ये दाँत दर्द कब मुझे छोड़ेगा (व्यंग्य)

बचपन में पढ़ी ये पंक्तियाँ पिछले कुछ दिन से शिद्दत से याद आ रही थीं- “वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। निकल कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।” ये कविता का असर है या दर्द का, नहीं बता सकता लेकिन किसी काम में मन नहीं लग रहा है। फिलहाल अपने बाएँ गाल पर हाथ रख कर बिस्तर पर पड़े-पड़े सोच रहा हूँ कि वह आह कैसी रही होगी जिससे कविता निकल कर बहने लगी होगी। सोचते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँच गया हूँ कि वह आह दाँत के दर्द वाली तो कदापि नहीं रही होगी। दो दिन से इस आह से कविता बहने की उम्मीद में डॉक्टर को भी दिखाने नहीं गया था। इसका असर यह हुआ कि दर्द बढ़ने के साथ ही आह निकलने की फ़्रीक्वेंसी भी बढ़ गई लेकिन कविता की एक पंक्ति नहीं बही। आह, कराह में बदलने लगी। इसी के साथ मेरे कवि बनने के अरमान तिरोहित होने लगे। मुझे विश्वास हो चला कि दाँत के दर्द से निकली आह कवि बनने के लिए मुफ़ीद नहीं है। कवि बनने के लिए आवश्यक आह अवश्य ही किसी और अंग के दर्द से संबंधित होगी। वह अंग कौन सा हो सकता है, इसके बारे में सोचने की इजाज़त फ़िलहाल दाँत का दर्द नहीं दे रहा है। 

दर्द बर्दाश्त से बाहर होने लगा तो हारकर डॉक्टर के दर पर मत्था टेकने जाना पड़ा। मत्था टेकने को आप गलत अर्थ और संदर्भ में मत लीजिए। लोग कितना ही कहें कि डॉक्टर देव तुल्य होते हैं लेकिन उनकी फीस देख कर कभी मेरा मन यह मानने को तैयार नहीं हुआ। अब आप कहेंगे, फिर ऐसा क्यों लिखा तो स्पष्ट करता चलूँ कि जब दर्द विदेश में उठा हो और डॉक्टर की फीस डॉलर में चुकाना हो तो सारे देवता याद आ जाना लाजिमी है। देवता याद आएँगे तो मत्था टेकना भी जरूरी है। हुआ भी यही। डॉक्टर की असिस्टेंट ने सबसे पहले ऊपरी जबड़े के तीन-तीन एक्सरे निकाले फिर मुझसे मुखातिब होकर बोली – “तेरह नंबर का दाँत टूट गया है जिस कारण बैक्टीरिया इंफेक्शन बहुत बढ़ गया है। इसे तुरंत निकालना पड़ेगा।” 

दाँतों के भी नंबर होते हैं, पहली बार पता लगा। डरते-डरते उस असिस्टेंट नाम की मोहत्तरमा से पूछा – “कितना खर्चा आएगा।” उसने मेरी निरीह और सहमी मुख-मुद्रा को नजरअंदाज करते हुए पूरी पेशेवर निर्ममता से उत्तर दिया – “सात सौ से नौ सौ डॉलर। फाइनल फिगर डॉक्टर बताएँगे।” मैंने मन ही मन विदेश गए आम भारतीय नागरिक की तरह सात सौ का अस्सी से गुणा किया हालाँकि मुझे 82 या 83 से करना चाहिए था। मैं कर भी सकता था लेकिन कोई रिस्क लेना नहीं चाहता था, इसलिए सेफ पैसेज लिया। एक तो मन इतना कठिन गुणा करने का आदि नहीं था, दूसरा गुणनफल में गलती इंजीनियरिंग की डिग्री पर संदेह जता सकती थी। मैं सीधा सादा इंजीनियर कोई इतने बड़े पद पर तो रहा नहीं, कि लोग मेरी डिग्री पर संदेह करें और मैं चुप रहा आऊँ। डिग्री मेरा गर्व रही है। उस पर संदेह, मतलब मेरे स्वयं के अस्तित्व पर संदेह जो मुझे नाकाबिले बर्दाश्त था।

बहरहाल इसी बीच डॉक्टर ने चैंबर में प्रवेश किया। आते ही उन्होंने एक उचाट सी दृष्टि तीनों एक्स रे पर डाली और बोले – “इंफेक्शन आँखों को जोड़ने वाले ब्लड वेसल तक पहुँच गया है। तुरंत दाँत नहीं निकलवाया तो आँखों को भी नुकसान पहुँच सकता है।” डॉक्टर का यह डरावना वक्तव्य आने से पहले ही मैं सात सौ में अस्सी का गुणा कर चुका था। गुणनफल का भान होते ही दाँत के दर्द का एहसास जाता रहा था लेकिन आँखों को नुकसान पहुँचने की बात से दिमाग के तार झनझना उठे थे। तभी डॉक्टर ने पूछा – “आपने पहले भी पेनिसिलिन लिया है ? उससे किसी तरह के रिएक्शन की शिकायत तो नहीं है।” मैंने मन ही मन कहा कि जब आपकी फीस को रुपयों में कन्वर्ट करने से हुए रिएक्शन को सहन कर लिया तो ये पेनिसिलिन का रिएक्शन भला क्या अहित करेगा |” मैंने न में सिर हिलाया ही था कि सिस्टर ने मुँह खोलकर जबड़े नम्ब करने के लिए दो इंजेक्शन ठोक दिए। डॉक्टर ने पाँच मिनट इंतजार किया। उन्होंने जैसे ही दाँत उखाड़ने का अभियान शुरु किया, आँखों से आँसू छलक आए और दिमाग में किसी पुराने फिल्मी गीत की तर्ज पर एक काव्य पंक्ति कौंध गई – “ये दाँत दर्द, कब मुझे छोड़ेगा, मेरा गम कब तलक मेरा दिल तोड़ेगा।”

अब लगभग पैंसठ हजार में 13 नंबर का प्रिमोलर टूथ निकलवा कर, आँखों से कविता बह जाने की अनुभूति से गदगद हूँ।

– अरुण अर्णव खरे

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