लोभतंत्र में चुनाव (व्यंग्य)

प्रभाव पैदा करने वाली एक खबर के अनुसार, इस बार चुनावों में उम्मीदवारों को, अखबारों में विज्ञापन देकर अपने आपराधिक रिकार्ड की जानकारी देनी थी, दी ही होगी। आपराधिक जानकारी मिलने से कुछ फर्क पड़ता तो होगा। इतिहासजी के अनुसार समझदार लोकतांत्रिक नेता, कोई अपराध जानबूझकर नहीं करते। परिस्थितियां द्वारा उन्हें उकसाया जाता है और बेचारी छोटी मोटी गुस्ताखियां हो जाया करती हैं, लेकिन इनका रिकार्ड कौन रखना चाहेगा जी। उनके यहां तो अच्छे कामों का रिकार्ड रखने के लिए जगह कम पड़ती है, बुरे काम का हिसाब किताब रखने का अपराध कोई क्यूं करेगा।

सार्वजनिक सूचना देने लायक अपराध, हमारे यहां कोई नेता नहीं करता। अगर समाज, संस्कृति, कानून और राजनीति, नेताजी की बातें, हरकतें, सौगातें कबूल करती रहे तो अपराध तो दूर, नेताजी कभी सामान्य गाली भी नहीं देंगे। सच्ची मुस्कुराहटें मुफ्त देंगे। यह तो कमबख्त परिस्थितियां ऐसी हो जाती हैं और कुछ असमाजिक तत्वों द्वारा बना दी जाती हैं कि अपराध खुद ब खुद होने लगता है।

पहले एक छोटा अपराध होता है फिर उसकी सफलता और प्रभाव से प्रेरित होकर मोटा होता है। फिर छटा, सातवां तेरहवां होता है। अपराध को छिपाने के लिए अपराध होता है, इसे ऐसे भी पढ़ सकते हैं कि करना पड़ता है। एक बार ऐसे कारनामों की तेरहवीं हो जाए तो अपराध करने का शोक समाप्त हो जाता है। खैर, इस बार फंसी हुई राजनीतिक पार्टियों को उस मजबूरी बारे बताना होगा जिसमें ऐसे उम्मीदवारों को चुना जाता है। कमाल है न, आपराधिक पृष्ठभूमि या संभावित अपराधी को ही कयूं चुनाव लड़वाया जाता है इस बारे देश के शरीफ बच्चे भी जानते हैं, कह रहे हैं कि बताना होगा।

सीधी सी बात है, उत्कृष्ट सामाजिक वस्त्र पहने, हर राजनीतिक पार्टी, हर क्षेत्र से, हर हालत में जीतने वाला व्यक्ति चाहती है जिसका क्षेत्र में सुप्रभाव और कुप्रभाव हो। सम्प्रदाय और जाति में सुदबाव और कुदबाव हो। वह इतने प्रतिशत वोट ले सके कि जीतकर सरकार का हिस्सा बने। क्षेत्र का मनमाना विकास  करवा सके। राजनीति तो समाज सेवा के लिए ही होती है जी। हर पार्टी ऐसे व्यक्तियों को समाज की मुख्यधारा में वापिस लाना चाहती है। चाहती है कि पार्टी और समाज सेवा करते हुए आपराधिक चरित्र सुधार ले। हमारे यहां अनुष्ठान कर पुराने पाप बहाकर नए करने की सुविधा भी है।

चुनाव के दौरान बैठकें खूब की जाती हैं ताकि खानापूर्ति बेहतर तरीके से हो सके। शराब पर सख्त बैन रहता है लेकिन शराबजी तो पानी की तरह रास्ता बना लेने में माहिर होती है। नकदी भी तो शुद्ध जल की तरह बहने या बहा देने का ही रूप है। आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद, राजनीति को यह करने और वह न कर सकने जैसी अनेक आदर्श स्थितियों के नैतिक आदेश मिलते हैं। चुनाव होने से पहले उम्मीदवार, चाहे पक्ष के हों या विपक्ष से, का दिमाग कहां मानता है। करोड़ों का दांव होता है। उससे भी ज्यादा मूल्यवान यानी गिर सकने वाली झूठी साख दांव पर होती है।

चुनाव का मैच तो जीतना ही होता है फिर चाहें अपराध हों या नहीं। नई धूप में, संहिता का आचार नए मसालों के साथ डालें। लोकतंत्र या लोभतंत्र किस बात के लिए मना करता है।

– संतोष उत्सुक

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