दाढ़ी और मूँछ (व्यंग्य)

beard and mustache

Prabhasakshi

मैं दाढ़ी-मूँछ के बालों से पूछना चाहता हूँ कि कब से तुम धर्म के नाम पर उगने लगे हो। मैं यह शिकायत इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि तुम मेरे चेहरे पर नहीं उगते। दूसरों के चेहरों पर उगते हो इसलिए भी नहीं। तुम्हारे उगने से मुझे कोई दिक्कत नहीं है।

व्याकरण दाढ़ी-मूँछों का लिंग बता देता है और राजनीति उनका धर्म। दाढ़ी और मूँछ के बालों ने न जाने कब अपनी पार्टी बना ली हमें खबर ही नहीं हुई। उगते तो ये चेहरे पर ही हैं लेकिन इनका धर्म आँखों के रास्ते से होते हुए कब वोट बटोरने का बहाना बन जाते हैं, इसका पता किसी राज्य में किसी की सरकार बनने और गिरने से चलता है। इन बालों में बड़ा दम है। बुरे को अच्छा और अच्छे को बुरा बताने की ताकत रखते हैं। थोबड़े में इनके उगने भर की खुराक हो तो कहने ही क्या। किसी को महान और किसी को शैतान बनाने का माद्दा रखते हैं।  

मैं दाढ़ी-मूँछ के बालों से पूछना चाहता हूँ कि कब से तुम धर्म के नाम पर उगने लगे हो। मैं यह शिकायत इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि तुम मेरे चेहरे पर नहीं उगते। दूसरों के चेहरों पर उगते हो इसलिए भी नहीं। तुम्हारे उगने से मुझे कोई दिक्कत नहीं है। उगो। खूब उगो। जितना उगना चाहते हो उतना उगो। यहाँ थोबड़ों की कमी थोड़े न है। एक माँगोगे तो सौ मिल जायेंगे। लेकिन यह बताकर उगो कि तुम किस धर्म के हो। कम से कम हम तुम्हें उस चश्मे से देख तो सकें। पता चला हम जिसे ‘क’ धर्म समझते रहे थे वह तो ‘ख’ धर्म निकला। इससे तो मामला गड़बड़ा जाएगा। मानता हूँ कि मैं बुद्धिजीवी नहीं हूँ। लेकिन बुद्धिजीवी की तरह ढोंग करने में किसी से कम नहीं हूँ। ऐसे में तुम्हारा असली बुद्धिजीवियों के साथ छल-कपट तो चल जाएगा, लेकिन हम जैसे नकली बुद्धिजीवियों का क्या होगा जिनकी बहुत बड़ी आबादी इधर-उधर हर जगह फैली है।

दाढ़ी-मूँछ से मेरी एक छोटी सी गुजारिश है। मुझे वे इतना भर बता दें कि तुम कैसे किसी के चेहरे पर उगकर रवींद्रनाथ टैगोर बन जाते हो और किसी के चेहरे पर उगकर सद्दाम हुसैन। जबकि रवींद्रनाथ टैगोर सा लगने वाला कविता का ‘क’ भी नहीं जानता और सद्दाम हुसैन सा लगने वाला तुम्हारे बिना पप्पु बनकर रह जाने वाला कैसे आतंकवादी बन जाता है। चोर की दाढ़ी में अब तिनके नहीं पड़ते। अब तो इन दाढ़ियों के रखरखाव के लिए इतना खर्च होता है कि उतने में सौ-पचास गरीबों का घर चल सके। काश तुम व्याकरण में लिंग तक ही सीमित रह जाते। अब मुझे तुम्हारे भीतर धर्म का जंजाल दिखायी देता है। हो सके तो उगने से पहले बता दो कि तुम किस धर्म के हो।

– डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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