बुद्ध का जाना और आना (व्यंग्य)

mahatma buddha

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बुद्धविचार देश से ज़्यादा विदेश पहुंच पाए और विदेशियों को बुद्धमय कर दिया तभी तो विदेशों में बुद्ध ज़्यादा उपस्थित हैं तभी स्वाभाविक है कि मूर्तियां विदेशों से ही आएंगी। उनके आने की शुरुआत हो चुकी होगी।

कुछ समय पहले सुना था महात्मा बुद्ध अपने देश आ रहे हैं। उन्हें चौरासी हज़ार मूर्तियों में आना था, संभवत आए होंगे। कहीं पढ़ा था कि इस योजना में कुछ साल लग सकते हैं। मानवीय वैचारिक संकट किसी भी किस्म की भूख के संकट से बड़ा होता है। यही संकट बुद्ध की शोरदार मांग करे तो मूर्तियों का आंकडा ऊपर जा सकता है कम नहीं हो सकता। देश को बुद्ध के विचारों की ज़रूरत पड़े न पड़े, मूर्तियों की बहुत ज़रूरत रहती है। सभी तरह की मूर्तियों और मूर्त विचारों की मांग हर पल बढ़ रही है।

बुद्धविचार देश से ज़्यादा विदेश पहुंच पाए और विदेशियों को बुद्धमय कर दिया तभी तो विदेशों में बुद्ध ज़्यादा उपस्थित हैं तभी स्वाभाविक है कि मूर्तियां विदेशों से ही आएंगी। उनके आने की शुरुआत हो चुकी होगी। करोड़ों की लागत होगी इनकी, जिनके माध्यम से बहुमूल्य विचार आ रहे हैं। सदविचार तो अमूल्य होते हैं, उनकी कीमत तो मूर्तियों से भी ज़्यादा ही होगी। उच्च विचारों के सीमेंट से ओत प्रोत मूर्तियों को फुट के हिसाब से बनाया जाता है, बनाया ही जाना चाहिए और बनाया जाता रहेगा। अब विचार तरल नहीं होते बल्कि ठोस होने लगे हैं। प्रशंसनीय है कि इन वैचारिक मूर्तियों को विहारों में स्थापित करने के साथ साथ घरों और संस्थानों को भी उपहार में दिया जाना था दी भी गई होंगी ताकि सदभाव का तारातम्य स्थापित हो रहा होगा।

बुद्ध की मूर्तियों के दानी विदेशी ज़्यादा देते हैं क्यूंकि उन्होंने बुद्ध को ज़्यादा अपनाया है। हमारे यहां अपनाने के लिए और बहुत कुछ है। बुद्ध जैसे विचार अपनाने, आत्मसात करने व प्रेरित होने का समय नहीं है। बुद्ध का मार्ग मध्यमार्ग माना गया है। हमारे यहां मध्य मार्ग पर चलने की सोच का अपहरण कर लिया गया है। स्वमार्ग अपनाकर बुद्ध विचार को सीमित कर दिया है। क्या देश में हो रहा बुद्ध की सबसे ऊंची प्रतिमा का निर्माण इस सोच को बदल पाएगा। यह भी एक सवाल है कि जिस तरह से गांधी आज भी विदेशी सोच में शामिल हैं क्या बुद्ध भी वहां ज़्यादा शामिल नहीं रहेंगे। क्या वे फिर से अपने देश आएंगे।

– संतोष उत्सुक

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