चम्मच से नहीं, जुबान से (व्यंग्य)

आप राजनीति में किस तरह अंगद पाँव की तरह जम गए हैं उसकी मिसाल आपका बेशकीमती कथन है। बस आप दो चीज़ें ठीक कर लें तो बड़ी कृपा होगी। एक तो अपने मुँह से खुद को खूब गरिया लें और दूसरा अपने विरोधी से अपने बारे में खुद भला बुरा कहलवायें।

“नेता जी! समझ में नहीं आ रहा है कि कौन से वादे करें इस चुनाव में। हर बार वादों के साथ खेल-खेलकर उबिया गए हैं। इस बार कुछ नए तरीके से खेलना होगा।” सेक्रेटरी ने नेता जी से पूछा जो हमेशा उनके तलवे चाटने में अपनी लबी जुबान बाहर लटकाए घूमता फिरता है। उसने सोशल मीडिया के अंतरजालीय मंचों पर सभी उपाय खोज डाले। उसकी अगुलियाँ सोशल मीडिया पर नाचने के लिए हिलती-डुलती हैं। किसी जमाने के आईएएस बने हैं, अब उनकी पढ़ाई-लिखाई नेता जी की वाह-वाही और हाँ में हाँ मिलाने में ही निकल जाती है। पढ़े-लिखे ज्यादा हैं लेकिन नेता जी के संगत में रहकर धूर्तता खूब सीख ली हैं। 

“आपका मत क्या है इस मामले में ?”

“मुझे लगता है सीधे गरीबों के साथ खेलना चाहिए इस बार। चुनाव का मजा गरीबों के साथ खेलने में ही आता है। उनकी छाती भी चौड़ी हो जाएगी जब देखेंगे कि सामने से नेता जी खुद उनके साथ खेलने के लिए आए हैं। इससे पहले भी खेलते थे, लेकिन पीठ पीछे। इसमे उन्हें वह मजा नहीं आया था, जो अब आएगा।” नेता जी ने अपनी गहरी समझ का परिचय दिया।

“आप राजनीति में किस तरह अंगद पाँव की तरह जम गए हैं उसकी मिसाल आपका बेशकीमती कथन है। बस आप दो चीज़ें ठीक कर लें तो बड़ी कृपा होगी। एक तो अपने मुँह से खुद को खूब गरिया लें और दूसरा अपने विरोधी से अपने बारे में खुद भला बुरा कहलवायें। जब आप खुद की तारीफ करते हैं तो लोगों को हँसी आने लगती है। इससे आपका इमेज जितना बनना चाहिए, उतना बन नहीं पाता है। ऐसा करने से आप सीधे चुनाव से फिसलकर खयालों में चले जाते हैं। खयालों में जीने वाले राजनीति में नहीं मुंगेरीलाल के हसीन सपने बुनने के काम आते हैं।”

इतना सुनते नेता जी आहत हुए। उन्हें लगा कि सेक्रेटरी लाठी घुमा रहा है। बोले- “हम समझ रहे हैं कि आप क्या कहना चाहते हैं। इतना सोशल मीडिया तो हम भी समझते हैं। हम भी पढ़े हैं, हाँ यह अलग बात है कि थोड़ा-बहुत नकल किए हैं। चुनाव के बारे में जरा क्या पूछ लिया आप तो सीधे हम पर ज्ञान पेलने लगे! हमारी पहुँच जानते हैं आप। आप की चुटिया अभी भी हमारे पास है। औकात के हिसाब अपनी जुबान चलाया करें।”

“आपको गलत फहमी हो गयी नेता जी। हम तो आपके तलुवाचाटुकार हैं। हम अपनी नौकरी के उतने करीब नहीं हैं जितने कि आपके करीब हैं। अगर आप फिर से सत्ता में आ जाते हैं तो हमें ऐसी कौन सी ख़ुशी है जो नहीं मिलेगी। आपके रास्तों की बाधाओं को देखना और हटाना हमारा काम है। इसी भावना से कहा, बाकी आपकी मर्जी है। वरना हम तो चुनाव जितने के तरीकों के बारे में सुझा रहे थे आपने ही दिशा बदल दी।” सेक्रेटरी ने सफाई दी।

“हाँ इस बार सीधे गरीब से खेलेंगे। उनकी जिंदगी सस्ती जो होती है। लेकिन गरीबों के साथ खेलकर हम भी कहीं गरीब हो गए तो… कीड़े-मकौड़ों से जीने वाले लोगों के बीच में जाना क्या हमारे स्टेटस के लिए ठीक रहेगा?”

“बात ठीक कहते हैं… गरीबों से मत खेलिए।”

“उनके यहाँ जाने की योजना भी रहने देते हैं।”

“यह भी सही कहा। क्यों न लोगों को लड़ा दें, इससे वे लड़ने में व्यस्त हो जायेंगे। इससे जो आग निकलेगी उस पर हम अपनी चुनावी रोटियाँ सेक सकेंगे। क्या कहते हैं आप?”

“उपाय तो अच्छा है, लेकिन इसके लाभ क्या होंगे?”

“लड़ाई जब दूसरों की हो तो लाभ ही लाभ होता है। इसमें अपना उल्लू साधने के कई अवसर मिलते हैं। ऐसे समय में आग में घी चम्मच से नहीं जुबान से डालनी पड़ती है।

“जुबान?”

“जी हाँ, जुबान ! यही तो वह चीज़ है जिसके चलते आपकी कुर्सी हमेशा बची रहती है।”

– डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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