विनय अग्निहोत्री/भोपाल. मप्र उर्दू अकादमी, संस्कृति परिषद और संस्कृति विभाग द्वारा ‘अंश हैप्पीनेस सोसायटी’ के सहयोग से महिला कलाकारों के लिए 15 दिवसीय चारबैत कार्यशाला गांधी भावन में आयोजित की गई है. कार्यशाला में उस्ताद मुख्तार द्वारा प्रशिक्षण दिया जा रहा है. इच्छुक कलाकार आकर यहां मुफ्त चारबैत सीख सकते हैं.
बता दें चारबैत एक 400 साल पुरानी पारंपरिक प्रदर्शन कला है, जिसे कलाकारों या गायकों के समूह द्वारा प्रस्तुत किया जाता है. चार बैत या फोर स्टैनज़ास लोक कथाओं और प्रदर्शन कला का एक रूप है. यह आज भी मुख्य रूप से रामपुर (उत्तर प्रदेश), टोंक (राजस्थान), भोपाल (मध्य प्रदेश) और हैदराबाद (तेलंगना) में जीवित है. उर्दू अकाडमी ने इसे पारंपरिक लोक कला के रूप में मान्यता दी. चारबैत’ गायकी की यूं तो टोंक के साथ ही देश के कई अन्य इलाकों में इसे सुना और गाया जाता रहा है, लेकिन समय के साथ इसके सितारे गर्दिश में चले गए और आज ये संरक्षण की मौहताज बन गई. सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के विभिन्न देशों में वहां की कुछ विशेष गायन शैलियां रही हैं जो अपने-अपने क्षेत्र में पीढ़ी दर पीढ़ी कभी परवान चढ़ी तो कभी वक्त के थपेड़ों के चलते गर्दिश में चली गईं. लेकिन इन सबके बीच कुछ गायन शैलियां ऐसी भी रही जो एक से दूसरे देशों का सफर तय करते हुए राजा-महाराजाओं के साथ दूसरे देशों तक पहुंच गई और वहां भी अपना मुक़ाम बना लिया.
युद्ध काल में जोश भर देती थी ‘चारबैत’
यह गायन शैली पुराने समय में युद्ध बंद हो जाने के बाद प्रतिदिन रात को गायी जाने वाली एक शैली है. इसका असली उद्भव स्थान सऊदी अरब है फिर अफगानिस्तान इसको लेकर भले ही चारबैत गाने वाले कलाकारों में अलग-अलग बातें प्रचलित हो, लेकिन इतना तो निश्चित है कि मुगल काल में गायन की यह शैली भारत आई थी. कालांतर में यह गायन शैली उस समय की मुस्लिम रियासतों में जैसे कि भोपाल, रामपुर, सीतापुर और टोंक पहुंची. यहां के तत्कालीन शासकों द्वारा इसे भरपूर बढ़ावा दिया गया और ये वहां पलती और बढ़ती रही. इस गायन शैली के विपरित परिस्थितियों में जिंदा रखने वाले कलाकार बताते हैं कि आज जब इस कला को किसी भी तरह का संरक्षण नहीं मिला हुआ है वे अपने दमख़म पर इसे जारी रखे हुए हैं.
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FIRST PUBLISHED : September 03, 2023, 17:33 IST