राजनीति में शामिल लोग आजकल खेला करने में लगे हैं। खेला करने के लिए उसके भावात्मक पहलुओं का मास्टर होना जरूरी होता है। जिन्हें खेलने का ज्ञान है, वे किसी भी क्षेत्र में स्कोर करते हैं। हाल के वर्षों में, ट्रेंड-सेटिंग करने वाला खिलाड़ियों चलन जोर-शोर से चल रहा है। पहले पहल, यह म़जा सा लगता है, लेकिन बाद में यह कलश में बदल जाता है। खिलाड़ियों को मज़े करने की ऐसी लत पड़ जाती है कि वे कबड्डी खेल रहे होते दिखाई देते हैं, लेकिन स्कोरकार्ड में रन दर्ज होते हैं। वे नीबू और सिरके से पहले दूध को बिगाडते हैं, फिर बिगाड़ा हुआ दूध अपने घर ले जाते हैं। किसी और के बिगाड़े हुए दूध से उनके घर में पनीर का दर्जा मिल जाता है। गाय दिखाने और बकरे मारने का यह खेल शतरंज से भी ऊपर का है। उनके लिए बकरे मारना गोलगप्पे खाने जैसा है। राजनीति में चिंता व्यापक है। “बकरे की अम्मा” कब तक खुशियां मनाएगी!
राजनीति में शामिल लोगों ने अपनी विरासत में छोटी-बड़ी सभी प्रकार की दीवारों को लांघ लिया है। इसलिए राजनीति खेल का होता है। संविधान होता ही है दीवारें गिराने के लिए। लेकिन उन्होंने दीवारें गिराने का काम नहीं किया। उन्हें दरवाजों में राजनीतिक संभावना अधिक दिखाई देती है। इसलिए दरवाजे बनाने का काम हाथ में ले लिया है। दरवाजों में खोलने और बंद करने की सुविधा राजनीति के लिए बहुत जरूरी है। नगर-नगर और गाँव-गाँव में सफल राजनीति की धूम है। घोषणा-पत्र में छोटे से बड़े नए सभी प्रकार के दरवाजों का वादा किया जाता है। दरवाजे हवा में नहीं बन सकते हैं। इसलिए दरवाजों के लिए नई दीवारों की जरुरत पड़ती है।
उधर लोग दरवाजों की उम्मीद में रहते हैं और और इधर दीवारें बनती जाती हैं। धीरे-धीरे वक्त आया जब दीवारों को प्राथमिक आवश्यकता माना जाने लगा। जहां दीवारें नहीं थीं, वहां लोग दीवार बनाने लगे। अगर दरवाजे हैं, तो विकास है, अगर दरवाजे हैं, तो लोक कल्याण है, अगर दरवाजे हैं, तो सुरक्षा और सुविधा हैं। कुछ लोग इसे इंडोर या आउटडोर गेम के रूप में भी देखते हैं। लोग अपनी अपनी दीवारों में बंद होकर गर्व महसूस करने लगे, इसलिए इसे उच्चकोटि की राजनीतिक सफलता कहा गया। दरवाजे ने उन्हें अवसर दिया कि मजबूरी या जरूरत के हिसाब से कुंडी खोल लेंगे, बंद कर लेंगे। समुद्र में दीवारें नहीं होतीं हैं, इसलिए यह नहीं जाना जा सकता कि बड़ी मछलियाँ राजनीति कैसे करेंगी, उनका व्यापार कैसे चलेगा, और उनके बच्चों का क्या होगा।
हाल ही में, कुछ लोग समझ गए कि एकता में बल है। लेकिन संकीर्णता की दीवारें मज़बूत हैं, और दरवाजे छोटे हैं। सबको पता है कि कुछ-कुछ दीवारों को गिराना पड़ेगा। हालांकि दरवाजे सभी खुल चुके थे, लेकिन सिर्फ थोड़ा ही खुले रह गए थे। वे एक-दूसरे को देखते ही हंसते रहे और कहते हमारा दिल भी तुम्हारा, हमारा भी तुम्हारा है। लेकिन किसी ने दीवारें गिराने को स्वीकार नहीं किया। सबने अपनी-अपनी दीवारों पर गठबंधन के इश्तहार अवश्य चिपका लिए, पर दरवाजा पूरा नहीं खोला। ‘पहले आप पहले आप’ में भरोसे की भैंस पाड़ा दे कर चली गई। एक बड़ी दीवार के पीछे, एक डीजे लगातार जोर से संगीत बजा रहा था – “कुण्डी न खड़काओ राजा, सीधे अन्दर आ जाओ राजा।”
– डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)