यूपी में इस शहर की धरोहर है ये घंटाघर, अनोखी है इसकी कहानी, जानें कब और किसने किया था निर्माण

ऋषभ चौरसिया/लखनऊः उत्तर प्रदेश की राजधानी अपनी संस्कृति, इतिहास और अतुल्य विरासत के लिए प्रसिद्ध है. यह शहर नवाबों की नगरी के रूप में जाना जाता है. जहां तहज़ीब, अदाब, शायरी, मुसीकी और भोजन की महक हर तरफ फैली हुई है. शहर की प्रमुख पर्यटन स्थली में से एक है घंटा घर, जिसकी विशालता और भव्यता देख दूर -राज से आए लोग आश्चर्यचकित रह जाते हैं.

इतिहासकार नवाब मसूद अब्दुल्लाह शीश महल के रॉयल फैमिली से हैं और अवध के तीसरे बादशाह के वंशज हैं. उन्होंने घंटाघर के बारे में बताया कि इसकी तामीर तब शुरू हुई थी, जब लेफ्टिनेंट गवर्नर सर जॉर्ज कूपर लखनऊ आ रहे थे हुसैनाबाद ट्रस्ट के ट्रस्टी ने घंटाघर को उनके सत्कार में बनवाया और 1887 में यह बनकर तैयार हुआ था.

क्या नसीरूद्दीन हैदर ने कराया था निर्माण ?
नवाब साहब का कहना है कि अफसोस इस बात का होता है कि हर जगह यही देखने और पढ़ने को मिलता है कि नवाब नसीरूद्दीन हैदर (1827-37) ने सर जॉर्ज कूपर के आगमन पर इसे बनवाया था, लेकिन 1937 में नसीरूद्दीन हैदर का इंतेकाल हो गया था और घंटाघर की तामीर 1881 में की गई थी, तो इतने सालों के बाद कैसे संभव है कि एक इंसान जिसका इंतेकाल को चुका चुका हो, वह इसे बनवा सकता है.

हर 15 मिनट में बजता था घंटा
उन्होंने बताया कि घंटाघर के पास बने पार्क में जब वो खेलते थे और हर जुम्मे की रात को हुसैनाबाद ट्रस्ट के कर्मचारी घंटाघर में चाबी भरने जाते थे. एक बार चाबी भरने के बाद पूरा 1 हफ्ते घड़ी चलती थी और हर 15 मिनट के बाद घंटा बजता था. उसकी आवाज बहुत मधुर होती थी. उन्होंने बताया कि जब दरवाजा खुलता था और वो घंटाघर के अंदर जाते थे तो वहां पहले कुछ छेत्र में पत्थर की सीढ़ियां होती थीं. फिर लकड़ी की सीढ़ियां और फिर वो पतली होते होते लोहे की सीढ़ियों हो जाती थी.

खनऊ की ऐतिहासिक है घंटाघर
वहीं उनका कहना है कि घंटाघर  लखनऊ की शान है, लेकिन अब इसकी शान फीकी पड़ गई है. इसकी घड़ी काफी समय से बंद पड़ी है. प्रशासन से गुजारिश करते हैं कि इसे जल्द से जल्द सही कराया जाए. यह लखनऊ की ऐतिहासिक धरोहर है.

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