चांद की जमीनः चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरा विक्रमा लैंडर और प्रज्ञान रोवर
“जो काम आज से पचास-साठ साल पहले चांद पर पहुंच चुके देश अरबों डॉलर फूंक के भी नहीं कर सके, इसरो के वैज्ञानिकों ने वह काम इतने कम पैसे में कर दिखाया जितने में स्पेस पर एक फिल्म भी नहीं बन पाती है, पूरी दुनिया में अब चर्चा का विषय बन चुका चांद के दक्षिणी ध्रुव पर केंद्रित भारत का तीसरा चंद्रयान अभियान महज एक घटना नहीं, आजादी के बाद बनाई गई इस देश की अंतरिक्ष एजेंसी इसरो की गौरवपूर्ण यात्रा का एक चमकदार पड़ाव”
चंद्रमा के सबसे दुर्गम हिस्से में पिछले 23 अगस्त को भारत ने अपना यान सुरक्षित पहुंचा कर अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में एक बहुत बड़ा कीर्तिमान कायम कर दिया है। भारत दुनिया का पहला देश है जिसने चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर चंद्रयान-3 के विक्रम लैंडर को धीमे से उतारने के कठिन और चुनौतीपूर्ण लक्ष्य को सफलतापूर्वक पूरा किया है। चंद्रमा के अंधेरे भाग में विक्रम मॉड्यूल की सफल सॉफ्ट लैंडिग भारतीय विज्ञान और इसरो की बहुत बड़ी उपलब्धि है। लैंडिंग के लिए दक्षिणी ध्रुव को चुनने के पीछे कई कारण हैं। चंद्रमा पर मनुष्य की भावी आउटपोस्ट के रूप में इस स्थान की पहचान की गई है। अतीत में चंद्रमा पर भेजे गए अमेरिका के अपोलो, सर्वेयर और रूस के लूना मिशन चंद्रमा की भूमध्य रेखा के आसपास सपाट इलाकों में उतरे थे। इस दृष्टि से इसरो की सफलता बहुत बड़ी है। चार साल पहले चंद्रयान-2 मिशन के लक्ष्य तक पहुंचने में सफल नहीं होने के बाद इसरो के विशेषज्ञों ने उन्नत चंद्रयान-3 लैंडर को विकसित करने के लिए 21 उपप्रणालियों को संशोधित किया। उन्होंने चंद्रयान-3 को पूरी तरह से कामयाब बनाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्हीं के कठोर परिश्रम के परिणामस्वरूप भारत आज उन गिने-चुने देशों में शामिल हो गया है जिन्होंने चंद्रमा पर सॉफ्ट लैंडिंग की है। भारत से पहले अमेरिका, सोवियत रूस और चीन ही चंद्रमा पर सॉफ्ट लैंडिंग कर पाए थे, लेकिन अंतरिक्ष की ये बड़ी ताकतें अभी तक दक्षिणी ध्रुव पर अपने यान नहीं भेज पाई हैं। भारत की सॉफ्ट लैंडिंग से कुछ दिन पहले रूस ने अपना लूना-25 यान दक्षिणी ध्रुव पर सॉफ्ट लैंडिंग के लिए भेजा था जो अपने उद्देश्य में विफल रहा। चंद्रयान-3 की सफल लैंडिंग से यह भी पता चलता है कि देश अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में अग्रिम पंक्ति में पहुंच चुका है। हम गर्व के साथ यह भी कह सकते हैं कि अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में भारत का समय अब शुरू हो गया है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि अतीत में भारत को ऐसे क्लबों से बाहर रखे जाने का खमियाजा भुगतना पड़ा है। हमें परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष और अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों में प्रौद्योगिकी हासिल करने से वंचित कर दिया गया। हमें ऐसे क्लबों से बाहर रखा गया क्योंकि हमारे पास अपनी क्षमताएं नहीं थीं और हम कुछ मायनों में निर्भर भी थे।
इसरो के मुख्यालय बेंगलूरू में सॉफ्ट लैंडिंग के वक्त नजारा
चंद्रयान-3 मिशन 14 जुलाई को भारत के एलवीएम 3 रॉकेट के प्रक्षेपण के साथ शुरू हुआ, जो देश का भारी लिफ्ट वाहन है। यह लगभग 8 मीट्रिक टन वजन को पृथ्वी की निचली कक्षा में रखने में सक्षम है। इसरो का यह तीसरा चंद्र मिशन है। चंद्रमा की सतह पर विक्रम लैंडर और प्रज्ञान रोवर को स्थापित करके उन्हें लगभग एक चंद्र दिवस या 14 पृथ्वी दिवसों तक संचालित करना इस मिशन का मुख्य लक्ष्य है। लैंडिंग के बाद छह पहियों वाले प्रज्ञान रोवर ने चंद्रमा की सतह पर घूमना शुरू कर दिया है और इसकी तस्वीरें हमें देखने को मिल रही हैं। विक्रम और प्रज्ञान दोनों सतह का अध्ययन करने के लिए वैज्ञानिक उपकरणों से सुसज्जित हैं।
सफल लैंडिंग की खुशी मनाते वैज्ञानिक
विक्रम से मिली ताजा जानकारी के अनुसार चंद्रमा की सतह पर तापमान में बहुत भिन्नता है। सतह पर मिट्टी की ऊपरी परत का तापमान 50 डिग्री सेल्सियस था जबकि सतह से 10 सेंटीमीटर नीचे तापमान माइनस 10 डिग्री था। चंद्रयान-3 के वैज्ञानिक उपकरणों का डेटा महत्वपूर्ण होगा क्योंकि यह मिशन चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के पास की मिट्टी, जमीन के नीचे की मिट्टी और हवा को भौतिक, रासायनिक और तापीय रूप से वर्गीकृत करने वाला पहला मिशन है। सौर ऊर्जा से संचालित लैंडर और रोवर के पास अपने परिवेश का अध्ययन करने के लिए लगभग दो सप्ताह का समय है जिसमें आधे से ज्यादा समय निकल चुका है।
एलवीएम3-एम4 वाहन
रोवर के दो पेलोड हैं। इनमें से एक लेजर इंड्यूस्ड ब्रेकडाउन स्पेक्ट्रोस्कोप (एलआइबीएस) सतह की रासायनिक और खनिज संरचना का पता करता है। दूसरा अल्फा पार्टिकल एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर (एपीएक्सएस) सतह की मौलिक संरचना का पता करता है। इसरो ने मैग्नीशियम, एल्युमीनियम, सिलिकॉन, पोटैशियम, कैल्शियम, टाइटेनियम और लोहे का उल्लेख उन तत्वों के रूप में किया है जिन्हें प्रज्ञान रोवर तलाश रहा है। लैंडर में चार पेलोड हैं जो चंद्रमा की सतह की अन्य विशेषताओं का अध्ययन कर रहे हैं। इनमें से एक उपकरण लेजर रेट्रोरिफ्लेक्टर एरे (एलआरए) नासा ने दिया है। रेट्रोरिफ्लेक्टर का उपयोग चंद्रमा की दूरी मापने के लिए किया जाता है। ध्रुवों पर पाए जाने वाले विकिरण, रोशनी, प्लाज्मा और धूल की जटिल अंतरक्रिया लैंडर को धूल भरे प्लाज्मा की एक भौतिकी प्रयोगशाला जैसा बना देगी। इससे चंद्रमा, बुध और एस्टेरॉयड जैसे सभी वायुहीन पिंडों पर मूलभूत प्रक्रियाओं की जानकारी मिलेगी। भविष्य के अन्वेषण मिशन के लिए धूल भरे वातावरण और उसके प्रभावों को समझना बहुत आवश्यक है। अंतरिक्ष अन्वेषण को आगे बढ़ाने के लिए स्थानीय संसाधनों का उपयोग महत्वपूर्ण होगा। दूसरी अंतरिक्ष शक्तियों को लैंडर और रोवर द्वारा एकत्र आंकड़ों का इंतजार रहेगा।
चंद्रयान-1ः 2008 में इसरो के चेयरमैन जी. माधवन नायर चंद्रमा की 3डी तस्वीर दिखाते
चंद्रयान-3 के लैंडर और रोवर की डिजाइन चंद्रयान-2 के समान ही है। सितंबर 2019 में चंद्रयान-2 का विक्रम लैंडर सफलतापूर्वक “फाइन ब्रेकिंग” मोड में प्रवेश कर गया था जो उसे चंद्र सतह पर धीरे से उतरने में मदद करता। चंद्रयान-2 भी चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुवीय क्षेत्र को ही लक्षित कर रहा था, जहां स्थायी रूप से छायादार गड्ढों के अंदर बर्फ पाई गई है। दुर्भाग्य से एक सॉफ्टवेयर की गड़बड़ी के कारण विक्रम रास्ते से भटक गया और अंतरिक्ष यान से इसरो का संपर्क टूट गया। नासा के ऑर्बिटर को वाहन का मलबा वांछित लैंडिंग क्षेत्र से लगभग 750 मीटर दूर बिखरा मिला था।
फिर भी भारत का यह चंद्र मिशन पूरी तरह से विफल नहीं था। चंद्रयान-2 में एक ऑर्बिटर भी शामिल था जो ऊपर से चंद्रमा का अध्ययन करता रहता है। अन्य वैज्ञानिक कार्यों के अलावा ऑर्बिटर पानी की बर्फ को स्कैन करने के लिए सुसज्जित है। विक्रम लैंडर में क्या खराबी आई, यह पता लगाने के बाद इसरो ने लैंडर के सॉफ्टवेयर को अपग्रेड किया। नए लैंडर की खासियत यह है कि यदि कोई एक पुर्जा या प्रक्रिया विफल हो जाती है तो दूसरा पुर्जा उसकी जगह ले लेता है। चंद्रयान-3 तय योजना के अनुसार चले, यह आश्वस्त करने के लिए उसने कई परीक्षण किए हैं। चंद्रयान-3 में ऑर्बिटर शामिल नहीं है, हालांकि लैंडर को चंद्र कक्षा में ले जाने वाला प्रोपल्शन मॉड्यूल कई महीनों या वर्षों तक वर्तमान कक्षा में अपनी यात्रा जारी रखेगा। यह मॉड्यूल एक खास वैज्ञानिक उपकरण से लैस है। इस उपकरण की मदद से वह सौरमंडल से परे बाहरी ग्रहों पर पारलौकिक जीवन की तलाश करेगा। वह पृथ्वी का इस तरह पर्यवेक्षण करेगा मानो वह एक बाहरी ग्रह हो। इससे भविष्य में बाहरी ग्रहों के अध्ययन के लिए उपयोगी डेटा मिल सकेगा।
चंद्रयान-2ः 2019 में तत्कालीन चेयरमैन के. सिवन
चंद्रयान-3 की सफलता ऐसे समय आई है जब भारत आर्टेमिस संधि पर दस्तखत कर चुका है। यह संधि 2025 तक चंद्रमा पर मनुष्यों को भेजने और उसके बाद सौरमंडल में पृथ्वी के पड़ोस में मानव अंतरिक्ष अन्वेषण का विस्तार करने के लिए अमेरिका के नेतृत्व वाला एक बहुपक्षीय प्रयास है। इस समझौते के तहत भारत अगली पीढ़ी के अंतरिक्ष कार्यक्रम में नासा के साथ सहयोग कर सकेगा। इस बात की भी संभावना है कि भारत ‘आर्टेमिस रिटर्न टु द मून’ जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में अमेरिकी अंतरिक्ष प्रशासन के साथ सहयोग करे। भारत के समक्ष आर्टेमिस संधि से बंधे उन देशों का नेतृत्व करने का अवसर है जो अपनी अर्थव्यवस्थाओं में अंतरिक्ष क्षेत्र के योगदान को बढ़ाने में रुचि रखते हैं।
चंद्रयान-3 की सफलता के साथ भारत विभिन्न किस्म के अंतरग्रहीय अंतरिक्षयानों की बारीकियों से भली-भांति वाकिफ हो चुका है। भविष्य के अंतरिक्ष मिशन के लिए यह तकनीकी ज्ञान बहुत उपयोगी होगा। भारत को कुछ अंतरिक्ष ताकतों की तुलना में अभी तकनीकी श्रेष्ठता हासिल करनी है, लेकिन चंद्रयान-3 मिशन की एक बड़ी खूबी उसकी कम लागत है। दुनिया के देश इस बात से आश्चर्यचकित हैं कि भारत के अंतरिक्ष मिशन कम बजट पर बन रहे हैं। चंद्रयान-3 पर 613 करोड़ रुपये (7.5 करोड़ डॉलर) खर्च हुए हैं। इसकी तुलना में 2014 में बनी हॉलीवुड फिल्म इंटरस्टेलर पर ज्यादा खर्च आया था। यह अच्छी बात है कि मिशन की लागत कम है, लेकिन वैज्ञानिक अभियानों के अच्छे नतीजों का एक अर्थ यह भी है कि भविष्य में खर्चों में कटौती के बजाय सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में अनुसंधान पर अधिक निवेश किया जाए। इसके अलावा, वैज्ञानिकों के योगदान का भी उचित मूल्यांकन करना होगा।
चंद्रमा का दक्षिणी ध्रुव क्यों आकर्षक है
चंद्रमा का दक्षिणी ध्रुव अन्वेषण के लिए कठिन चुनौतियां प्रस्तुत करता है। इसी वजह से अभी तक कोई भी चंद्रयान इस क्षेत्र में नहीं उतर पाया था। इसके ऊबड़-खाबड़ और जोखिम भरे इलाके और कुछ क्षेत्रों में लगातार अंधेरे के कारण अब तक भेजे गए चंद्र अभियानों में बाधा उत्पन्न हुई है। यहां तापमान आश्चर्यजनक रूप से माइनस 230 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है, जिससे वातावरण कठोर होता है। दक्षिणी ध्रुव पर स्थायी रूप से छाया वाले क्षेत्रों में पानी की बर्फ की उपस्थिति के कारण यह वैज्ञानिकों के लिए विशेष रुचि का विषय है। इस क्षेत्र में ऐसे क्रेटर मौजूद हैं जहां सूर्य की रोशनी उनके भीतर नहीं पहुंच पाती। ये क्षेत्र लाखों वर्षों से सूर्य के प्रकाश से अछूते रहे हैं। ऐसे क्रेटर ‘कोल्ड ट्रैप’ हैं जिनमें प्रारंभिक सौरमंडल की प्रकृति का पता देने वाले हाइड्रोजन, बर्फ और अन्य वाष्पशील पदार्थों का जीवाश्म रिकॉर्ड है। यह अज्ञात क्षेत्र चंद्रमा के इतिहास और ग्रहों के निर्माण के बारे में कई बड़े रहस्यों को खोल सकता है।
चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सूर्य क्षितिज के करीब मंडराता है, लंबी छाया बनाता है और तापमान में भारी अंतर पैदा करता है। दिन में तापमान 54 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकता है जबकि छायादार क्रेटरों में तापमान माइनस 203 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है। इसकी वजह से प्राचीन वाष्पशील पदार्थ और गैसें आदि काल के प्रवाह में जमी हुई स्थिति में वहां जस की तस दर्ज पड़ी हुई हैं। ऐटकेन बेसिन के किनारे पर स्थित दक्षिणी ध्रुव वैज्ञानिकों के लिए चंद्रमा की सतह के विविध स्तरों का अध्ययन करने का एक अनूठा अवसर प्रदान करता है। इन सामग्रियों के गहन अध्ययन से ग्रहों के निर्माण, प्रारंभिक सौरमंडल की गतिशीलता और भविष्य के चंद्र मिशन के लिए संभावित संसाधन उपयोग के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिल सकती है। चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के बावजूद पिछले चंद्र अभियानों ने इस क्षेत्र के महत्व को रेखांकित किया है।
2008 में भारत के चंद्रयान-1 मिशन ने चंद्रमा की सतह पर पानी की खोज की थी। चंद्रयान-1 में नासा का मून मिनरलॉजिकल मैपर (एम3) नामक उपकरण था जो बर्फ, तरल पानी और जल वाष्प के बीच अंतर करने में सक्षम था। चंद्रयान-1 और नासा के लूनर ऑर्बिटर पर लगे राडार उपकरणों द्वारा एकत्र जानकारी के अनुसार चंद्रमा के ध्रुवों पर 600 अरब किलोग्राम जल बर्फ मौजूद है। चंद्रयान-1 ने चंद्रमा पर पानी की मौजूदगी को निर्णायक रूप से स्थापित करने और ध्रुवीय क्षेत्रों में इसकी अधिक मात्रा का पता लगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
प्रधानमंत्री मोदी की पिछली अमेरिका यात्रा के दौरान आर्टेमिस संधि पर भारत के दस्तखत के बाद चंद्रयान की सफलता भविष्य के अंतरिक्ष अन्वेषणों का रास्ता खोल रही है। बीते अप्रैल में सुरक्षा पर कैबिनेट समिति से राष्ट्रीय स्पेस नीति को मिली मंजूरी ने निजी स्पेस कंपनियों की फंडिंग को जबरदस्त प्रोत्साहित किया है। आने वाला समय सरकारी और निजी क्षेत्र के मिश्रित प्रयासों से ऐसे अंतरिक्ष अभियानों का होगा जब भारत अंतरिक्ष पर पश्चिम के एकाधिकार को तोड़ेगा।
इसरो का सफरनामा
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) केंद्र सरकार की अंतरिक्ष एजेंसी है जिसकी जिम्मेदारी देश में अंतरिक्ष अनुसंधान और अन्वेषण गतिविधियों की योजना बनाना और उनका क्रियान्वयन करना है। यह 15 अगस्त, 1969 को डॉ. विक्रम साराभाई द्वारा स्थापित की गई थी, जिन्हें भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम का जनक माना जाता है।
डॉ. विक्रम साराभाई का जन्म 12 अगस्त, 1919 को गुजरात के आहमदाबाद में हुआ था। उन्होंने अपनी शिक्षा भारत और विदेश में प्राप्त की। उन्होंने इसरो की स्थापना के बाद सैटेलाइट लॉन्च वाहन (एसएलवी) कार्यक्रम की शुरुआत की, जिससे भारत को अपने उपग्रहों को स्वयं प्रक्षिप्त करने की क्षमता हासिल हुई। साराभाई ने स्वतंत्रता और स्वावलम्बन के महत्व को समझाया और इसरो का आत्मनिर्भरता की दिशा में मार्गदर्शन किया। डॉ. साराभाई का 30 दिसम्बर, 1971 को निधन हो गया, लेकिन उनकी प्रेरणा और योगदान आज भी इसरो और भारतीय अंतरिक्ष क्षेत्र में महत्वपूर्ण है।
विकास के चरण
प्रारंभिक वर्ष (1960 से 1970 का दशक)
भारत का पहला उपग्रह आर्यभट 1975 में सोवियत संघ द्वारा लॉन्च किया गया था। 1980 में भारत का पहला प्रायोगिक उपग्रह रोहिणी सैटलाइट आरएस-1 लॉन्च किया गया जिसे इसरो ने विकसित किया था।
एसएलवी युग (1980 से 1990 का दशक)
सैटेलाइट लॉन्च वाहन (एसएलवी) कार्यक्रम उपग्रह क्षमता को विकसित करने की दिशा में पहला कदम था। रोहिणी सैटेलाइट आरएस-1 की सफल उड़ान ने भारत का अंतरिक्ष प्रक्षेपण प्रौद्योगिकी में प्रवेश कराया। इसके बाद आवृत्ति उपग्रह लॉन्च वाहन (एएसएलवी) कार्यक्रम के विकास की शुरुआत की गई ताकि लोड क्षमता में सुधार किया जा सके। इसकी पहली उड़ानों ने कुछ चुनौतियों का सामना किया और कुछ असफल प्रयासों के बाद कार्यक्रम बंद कर दिया गया।
पीएसएलवी और जीएसएलवी विकास (1990 से 2000 का दशक)
पीएसएलवी
पोलर सैटेलाइट लॉन्च वाहन (पीएसएलवी) और भूस्थिर सैटेलाइट लॉन्च वाहन (जीएसएलवी) कार्यक्रम इसरो के लिए एक निर्णायक मोड़ था। पीएसएलवी ने विभिन्न आवृत्तियों में उपग्रहों को सफलतापूर्वक प्रक्षेपण करने में अपनी विश्वसनीयता और विविधता का प्रदर्शन किया। जीएसएलवी कार्यक्रम का उद्देश्य भारी लोड को भूस्थिर आवृत्तियों में प्रक्षेपित करना था। जीएसएलवी को पहले कुछ समस्याएं आईं, लेकिन आगामी अभियानों ने सफलता प्राप्त की। इसरो ने 2008 में चंद्रयान-1 मिशन का शुभारंभ किया। भारत का पहला चंद्र अन्वेषण केंद्र उपग्रहों के माध्यम से संपन्न हुआ जिसमें चंद्रमा पर पानी के अणुओं की मौजूदगी की पुष्टि हुई। इसी चंद्रयान का तीसरा संस्करण अभी चल रहा है।
आधुनिक उपलब्धियां
(2010 के बाद)
भारतीय मंगलयान मिशन 2013 में चलाया गया और इसने सफलतापूर्वक मंगल ग्रह की आवृत्ति में प्रवेश किया, जिससे भारत ऐसा करने वाला पहला एशियाई देश बन गया और इसरो ऐसा करने वाली चौथी वैश्विक एजेंसी बन गई। नवइक उपग्रह प्रविष्टि प्रणाली, जिसे “भारतीय जीपीएस” कहा जाता है, उपग्रह प्रविष्टि के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। इसरो ने उपग्रह प्रौद्योगिकी, पृथ्वी अवलोकन, संचार उपग्रह, और ग्रह-मंडलीय अन्वेषण में अगुवाई जारी रखी है, जिसने इसे वैश्विक अंतरिक्ष समुदाय में मजबूती से स्थापित किया गया है।
भविष्य के अन्वेषण कार्यक्रम
इसरो के चेयरमैन एस. सोमनाथन
इसरो ने भविष्य में अंतरिक्ष अन्वेषण के लिए कई बड़े कार्यक्रम बनाए हैं। सूर्य का अध्ययन करने वाली पहली अंतरिक्ष-आधारित भारतीय ऑब्जर्वेटरी आदित्य-एल1 प्रक्षेपण के लिए तैयार है। यह प्रक्षेपण 2 सितंबर को होगा। इसरो ने एक जलवायु अवलोकन उपग्रह इनसेट-3डीएस के प्रक्षेपण की भी तैयारी की है। देश के पहले मानव अंतरिक्ष उड़ान मिशन गगनयान के लिए ‘क्रू एस्केप सिस्टम’ के सत्यापन के लिए एक परीक्षण वाहन मिशन का शुभारंभ भी जल्द ही होने की उम्मीद है। क्रू एस्केप सिस्टम एक आपातकालीन व्यवस्था है जिसमें प्रक्षेपण के विफल होने की स्थिति में यान के चालकों को यान से निकाल कर सुरक्षित दूरी पर पहुंचा दिया जाता है। नासा-इसरो-सार (निसार) एक लो अर्थ ऑर्बिट ऑब्जर्वेटरी है जिसे नासा और इसरो द्वारा संयुक्त रूप से विकसित किया जा रहा है। निसार ऑब्जर्वेटरी 12 दिनों में पूरे विश्व का मानचित्रण करेगी और पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्र, बर्फ द्रव्यमान, वनस्पति बायोमास, समुद्र स्तर में वृद्धि, भूजल और भूकंप, सुनामी, ज्वालामुखी और भूस्खलन सहित प्राकृतिक खतरों में परिवर्तन को समझने के लिए डेटा प्रदान करेगी। एक्सपीओसैट (एक्स-रे पोलारिमीटर सैटेलाइट) भी लॉन्च के लिए तैयार है। यह चरम स्थितियों में उज्ज्वल खगोलीय एक्स-रे स्रोतों की विभिन्न गतिशीलता का अध्ययन करने वाला देश का पहला समर्पित पोलारिमेट्री मिशन होगा। भारत के चंद्र सर्वेक्षण कार्यक्रम के तीसरे चरण में जापान की एयरोस्पेस एक्सप्लोरेशन एजेंसी (जाक्सा) के साथ 2024-25 में लूपेक्स मिशन भेजने की योजना है। यह मिशन दक्षिणी ध्रुव में बर्फ की खोज करेगा।
1969 से लेकर वर्तमान तक इसरो की कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियां
1969: इसरो 15 अगस्त को स्थापित हुआ, इसके पहले चेयरमैन डॉ. विक्रम साराभाई बने।
1975: भारत का पहला उपग्रह आर्यभट सोवियत संघ द्वारा लॉन्च किया गया।
1979: सैटेलाइट लॉन्च वाहन (एसएलवी-3) ने आरोहणी सैटलाइट आरएस-1 को उपग्रह में सफलतापूर्वक प्रक्षिप्त किया।
1980: उपग्रह लॉन्च वाहन (एएसएलवी) कार्यक्रम की शुरुआत।
1983: एएसएलवी की पहली उड़ान असफल।
1983: एएसएलवी द्वारा रोहिणी सैटलाइट आरएस-डी2 का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण।
1984: एएसएलवी की दूसरी उड़ान असफल।
1987: भारतीय प्रयोगशील उपग्रह एसआरओएस-1 का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण।
1992: पीएसएलवी यानी पोलर सैटेलाइट लॉन्च वाहन कार्यक्रम की शुरुआत, जिसके साथ पीएसएलवी डी1 की उड़ान होती है।
1993: पीएसएलवी डी3 द्वारा आइआरएस-1ई उपग्रह को सफलतापूर्वक प्रक्षिप्त किया जाता है।
1994: भारत का पहला रिमोट सेंसिंग उपग्रह आइआरएस-1सी प्रक्षिप्त होता है।
1996: आइआरएस-पी3 के सफल प्रक्षेपण से भारत की पृथ्वी अवलोकन क्षमता मजबूत होती है।
1998: भारत का पहला मौसम विशेषज्ञ उपग्रह मेटसैट प्रक्षिप्त किया जाता है।
2000: आइएनएसएटी-3बी संचार उपग्रह का सफल प्रक्षेपण।
2004: भारत का पहला विशेष रक्षात्मक उपग्रह आरआइएसएटी-1 प्रक्षिप्त होता है।
2008: भारत का पहला चंद्रयान प्रक्षिप्त।
2008: जीएसएलवी मार्क 2 की पहली सफल उड़ान।
2009: पीएसएलवी सी14 उपग्रहों के साथ सफलतापूर्वक प्रक्षिप्त।
2013: मंगलयान मिशन शुरू, मंगलयान सफलतापूर्वक मंगल की आवृत्ति में प्रवेश करता है।
2014: इसरो एक ही पीएसएलवी मिशन में 104 उपग्रहों को प्रक्षिप्त करता है, जो एक रिकॉर्ड है।
2016: भारतीय क्षेत्रीय नैविगेशन सैटेलाइट सिस्टम (इरणिसी), जिसे बाद में नवइक के नाम से जाना गया, का पहला उपग्रह सफलतापूर्वक प्रक्षिप्त।
2017: इसरो जीसैट-19 संचार उपग्रह का सफल प्रक्षेपण करता है, जिसमें भारत से उच्चतम डेटा दर ट्रांसमिट की जाती है।
2019: चंद्रयान-2 मिशन में एक ऑर्बिटर, एक लैंडर और एक रोवर शामिल है। लैंडर को सफलता नहीं मिली, लेकिन ऑर्बिटर ने चांद की आवृत्ति में कई महत्वपूर्ण खोज की।
2020: मंगलयान मिशन 2 का प्रक्षेपण, जिसका उद्देश्य मंगल का अन्वेषण है।
2021: पीएसएलवी रॉकेट द्वारा सफलतापूर्वक अमेजोनिया-1 को प्रक्षिप्त करने का प्रयास।
कुछ अन्य महत्वपूर्ण उपग्रह प्रक्षेपण, अनुसंधान मिशन और प्रौद्योगिकी विकास हैं जिन्होंने इसरो की प्रगति और वैश्विक अंतरिक्ष समुदाय में महत्वपूर्ण योगदान किया है:
नवइक
नवइक एक भारतीय क्षेत्रीय नैविगेशन सिस्टम है जो ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) की तरह काम करता है। यह भारतीय स्थान परिगणना के लिए उपग्रहों का उपयोग करता है और नौकायन, नैविगेशन और समय की जानकारी प्रदान करता है।
आदित्य एल1
यह सूरज की दिशा में जाने वाला पहला भारतीय उपग्रह है जिसका उद्देश्य सूरज की किरणों की अध्ययन करना है। इसके माध्यम से वैज्ञानिक समुदाय को सूरज के बारे में नई जानकारी मिलेगी।
जीआइसैट-1
यह भारत का पहला गगन मानविकी उपग्रह है जिसका उद्देश्य भूचित्र के विशिष्ट क्षेत्रों की निगरानी करना है।
एडवांस कार्टोसैटोलॉजिकल इमेजिंग (कार्टोसैट) सैटेलाइट
यह सैटेलाइट उच्च-संकरण भूचित्र छवियों की तैयारी करने के लिए प्रयोग होते हैं, जिनका उपयोग नागरिक सेवाओं, वनस्पति आवृत्ति, भूखंड योजना, और समुद्री सांविदा के क्षेत्र में होता है।
आदित्य स्थानकारी उपग्रह (एस्ट्रोसेट)
यह भारतीय उपग्रह अगस्त 2015 में प्रक्षिप्त किया गया था।
अन्वेषण सूचना संचार यान (रीसेट)
यह राडार सूचना संचार उपग्रह होते हैं जो विभिन्न प्रकार की मौसमी परिस्थितियों की चेतावनी के लिए प्रयोग होते हैं।
चंद्रयान-3
भारत का तीसरा चंद्रयान मिशन।
उपग्रहों का स्वदेशी निर्माण
इसरो ने कई स्वदेशी उपग्रहों को विकसित किया है जैसे कि आर्यभट, चंद्रयान-1, मंगलयान, गिसेट, आदि।
इसरो युवा उद्यमिता संवर्ग
यह प्रोग्राम छात्रों को अंतरिक्ष अनुसंधान में रुचि पैदा करने के लिए उन्हें अनुभव प्रदान करने का एक माध्यम है।
गिसेट (GISAT)
यह सटीक भूचित्र डेटा कि निगरानी करने के लिए विकसित किया गया है जिसका उपयोग सुरक्षा, आपदा प्रबंधन, और विकास के क्षेत्र में होता है।
भूविज्ञानी उपग्रह
इसरो ने भूविज्ञानी उपग्रहों के माध्यम से भूमि, जलवायु, जलवायु परिवर्तन, अपशिष्ट व्यवस्था, वनस्पति आवृत्ति की निगरानी की है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विज्ञान विषयों के विशेषज्ञ हैं)