Untold Stories of Ayodhya: ध्वंस, हिंदू-मुसलमान के बीच टकराव, कुछ भी न होता, अगर राजीव गांधी ने ये राजनीतिक खेल न किया होता

अयोध्या में बन रहे राम मंदिर के लिए बीजेपी ने क्या किया ये किसी से छिपा नहीं है। लेकिन क्या अयोध्या में राम मंदिर को बनाने में कांग्रेस की भी कोई भूमिका है? क्या 23 दिसबंर 1949 को बाबरी मस्जिद जन्मस्थान पर जो ताला लगा था उसे खुलवाने में कांग्रेस की भी कोई भूमिका है। क्या तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ताला खुलवाया था या फिर इसके पीछे अदालत का आदेश था जिसे मानना सरकार की मजबूरी थी। ताला खुला इस आग ने पहले अयोध्या को जलाना शुरू किया, फिर दावानल बनकर पूरे देश में फैल गई। यह आग अपने पीछे एक जलता हुआ सवाल छोड़ गई कि अगर इस मामले में जल्दबाजी न दिखाई गई होती तो क्या ये मुद्दा राजनीतिक बनता? क्या किसी एक गलती से देश का ध्यान हटाने के लिए तब की सरकार ने दूसरी बड़ी गलती की थी ? अगर ताला न खुलता तो विवादित जगह पर शिलान्यास न होता। अगर शिलान्यास न होता तो ढाँचा न गिरता। अयोध्या सीरिज के पहले भाग में हमने आपको 1949 में रामलला के प्रकट होने और तब के प्रधानमंत्री नेहरू व फैजाबाद के डीएम केके नायर के बीच मूर्ति हटाने को लेकर हुए टकराव की कहानी बताई थी। अयोध्या में ध्वंस की जड़ में था विवादित परिसर का ताला खोला जाना। नफा नुकसान को तौलकर एक सोची समझी राजनीति के तहत ताला खुलवाने का फैसला तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने लिया था। यह सब क्यों और कैसे हुआ? इसकी भी एक बड़ी दिलचस्प कहानी है।  

अयोध्या में कैसे खुला ताला 

29 दिसंबर 2019 को फैजाबाद कोर्ट के एडिशनल मैजिस्ट्रेट ने सीआरपीसी 1898 के सेक्शन 145 के तहत पूरी जगह को राज्य सरकार को दे दिया और इस पर सरकारी ताला जड़ दिया गया। इसके बाद याचिकाओं की बाढ़ आ गई। अयोध्या में ताला खुलवाने का फैसला शाहबानो मामले में हाथ जलाने के बाद बहुसंख्यकों को खुश करने की खातिर राजीव गांधी का एक नासमझी भरा पैंतरा था। अरुण नेहरू और माखनलाल फोतेदार समते कांग्रेस के कई नेताओं ने उन्हें सलाह दी कि वो राम मंदिर का ताला खुलवा दें तो जो हिंदू शाहबानों प्रकरण की वजह से कांग्रेस से नाराज हैं वो खुश हो जाएंगे। राजीव गांधी इस बात को तैयार हो गए। इस बीच फैजाबाद के ही एक वकील उमेश चंद्र पांडेय ने 28 जनवरी 1986 को निचली अदालत में ताला खोलने की याचिका दाखिल कर दी। लेकिन निचली अदालत ने कहा कि केस से जुड़े कागजात हाई कोर्ट में हैं। फिर उमेश ने इस फैसले के खिलाफ 31 जनवरी 1986 को फैजाबाद जिला जज की अदालत में एक और याचिका दाखिल कर दी। जिला जज ने कानून व्यवस्था को लेकर राज्य सरकार से जवाब मांगा। प्रतिउत्तर में कहा गया कि ताला खुलने से कानून व्यवस्था की कोई दिक्कत नहीं होगी। 

अदालत के फैसले का पालन 40 मिनट के भीतर हुआ

क्या आपने कभी सुना है कि आजाद भारत में किसी अदालत के फैसले का पालन महज 40 मिनट के भीतर हो गया हो? में 1 फरवरी, 1986 को विवादित इमारत का ताला खोलने का आदेश फैजाबाद के जिला जज ने दिए और राज्य सरकार चालीस मिनट के भीतर उसे लागू कर देती है। शाम 4:40 पर अदालत का फैसला आया। 5:20 पर विवादित इमारत का ताला खुल गय़ा। अदालत में ताला खुलवाने की अर्जी लगाने वाले वकील उमेश चंद्र पांडेय ने भी तब इसका जिक्र करते हुए कहा था कि हमें इस बात का अंदाजा नहीं था कि सब कुछ इतनी जल्दी हो जाएगा। दूरदर्शन की टीम ताला खुलवाने की पूरी प्रक्रिया कवर करने के लिए मौजूद थी। तब दूरदर्शन के अलावा देशभर में कोई और समाचार चैनल था भी नहीं।  

फैसले का दिखा असर 

दावा किया गया कि पीएम ने जनवरी 1986 के दूसरे सप्ताह में ऐलान कर दिया था कि पर्सनल लॉ बोर्ड (मुस्लिम) से इस बात पर सहमति बन गई है कि शीतकालीन सत्र में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को उलटने वाला एक क़ानून पेश किया जाएगा। ये सेशन 5 फ़रवरी, 1986 से शुरू हो रहा था। इस घोषणा को लेकर इस क़दर विरोध हुआ कि सरकार शाह बानो मामले से लोगों का ध्यान हटाने के लिए किसी बैलेंसिंग एक्ट (काट) को लेकर सोचने लगी और इस सिलसिले में अयोध्या सामने था, जहां केंद्र सरकार के हुक्म पर उत्तर प्रदेश हुकूमत ने विवादित स्थल का ताला खुलवाने का इंतज़ाम किया। सरकार के खिलाफ देशव्यापी रोष से फोकस हटाने के लिए सरकार को तब यही रास्ता सूझा, जिसकी तार्किक परिणति अयोध्या ध्वंस के रूप में हुई।  लेकिन इस कदम ने बंटवारे के बाद देश को एक बार फिर से सांप्रदायिक आधार पर बांट दिया। इस घटना ने भारतीय राजनीति और समाज को तनाव के उस मुकाम तक पहुंचा दिया जहां हिंदू और मुसलमान आज बी टकराव के रास्ते पर ला दिया।  

 

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