आख़िरकार 2 अक्टूबर को नीतीश कुमार सरकार द्वारा राज्य में जाति सर्वेक्षण के आंकड़े जारी करने से मामला सुलझ गया। बिहार का जाति डेटा न केवल सकारात्मक कार्रवाई के लिए एक बेंचमार्क के रूप में काम करेगा, जैसा कि नीतीश ने कहा है, बल्कि लोकसभा और भविष्य के चुनावों में गेम चेंजर बनने की क्षमता भी रखता है। नीतीश कुमार ने कहा कि राज्य सरकार ने अपने संसाधनों से जाति आधारित गणना करायी है। गणना में सभी की आर्थिक स्थिति के बारे में भी जानकारी दी गई है। हम सभी वर्गों के विकास को सुनिश्चित करने के लिए आगे की कार्रवाई करेंगे।
सर्वे में क्या आया
जाति आधारित गणना के आंकडों के अनुसार राज्य की कुल आबादी में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) की हिस्सेदारी 63 प्रतिशत है। बिहार के विकास आयुक्त विवेक सिंह द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, राज्य की कुल जनसंख्या 13.07 करोड़ से कुछ अधिक है, जिसमें ईबीसी (36 प्रतिशत) सबसे बड़े सामाजिक वर्ग के रूप में उभरा है, इसके बाद ओबीसी (27.13 प्रतिशत) है। आंकड़ों के अनुसार, राज्य की कुल जनसंख्या 13.07 करोड़ से कुछ अधिक है, जिसमें ईबीसी (36 प्रतिशत) सबसे बड़े सामाजिक वर्ग के रूप में उभरा है, इसके बाद ओबीसी (27.13 प्रतिशत) है। सर्वेक्षण में यह भी कहा गया है कि ओबीसी समूह में शामिल यादव समुदाय जनसंख्या के लिहाज से सबसे बड़ा सुमदाय है, जो प्रदेश की कुल आबादी का 14.27 प्रतिशत है। सर्वेक्षण के अनुसार, अनुसूचित जाति राज्य की कुल आबादी का 19.65 प्रतिशत है जबकि अनुसूचित जनजाति की आबादी लगभग 22 लाख (1.68 प्रतिशत) है। ‘‘अनारक्षित’’ श्रेणी से संबंधित लोग प्रदेश की कुल आबादी का 15.52 प्रतिशत हैं, जो 1990 के दशक की मंडल लहर तक राजनीति पर हावी रहने वाली ‘‘उच्च जातियों’’ को दर्शाते हैं। सर्वेक्षण के अनुसार राज्य में हिंदू समुदाय कुल आबादी का 81.99 प्रतिशत है जबकि मुस्लिम समुदाय 17.70 प्रतिशत है।
राजनीतिक पकड़
सर्वेक्षण ने यह भी पुष्टि की है कि क्यों नीतीश चुनावी रूप से सफल रहे हैं और बिहार के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले मुख्यमंत्री बन गए हैं। हालाँकि नीतीश की अपनी कुर्मी जाति केवल 2.87 प्रतिशत है, यह ईबीसी और महादलितों के बीच उनकी लोकप्रियता है जिसने उन्हें बिहार के बाकी राजनीतिक नेताओं से ऊपर रखा है। राजनीतिक स्तर पर, सर्वेक्षण तेजस्वी यादव या राजद प्रथम परिवार के वर्चस्व की पुष्टि करता है, क्योंकि उनके पारंपरिक समर्थक-यादव अपनी सात उप-जातियों के साथ-एकल सबसे बड़े जाति समूह (14.26 प्रतिशत) के रूप में उभरे हैं। नीतीश ने अन्य दलों से जुड़ी कुछ जातियों के पारंपरिक रूप से स्थापित आधिपत्य की कीमत पर अधिक से अधिक सामाजिक समूहों को जगह देने के लिए हाशिए पर रहने वाले समूहों के लिए लक्षित सामाजिक कल्याण योजनाओं के साथ विकास का चतुराईपूर्वक समन्वय किया है। जातिगत आंकड़ों से पता चला है कि उनकी रणनीति ने बिहार के राजनीतिक क्षेत्र में क्यों काम किया है क्योंकि ईबीसी, जो 100 से अधिक जातियां हैं, बिहार की आबादी का 36 प्रतिशत से अधिक हिस्सा हैं।
भाजपा की स्थिति
भाजपा भी अपने जातीय समीकरण को बिहार में लगातार साधने की कोशिश करती रही है। बिहार में सवर्ण वोटो पर भाजपा की शुरू से पकड़ रही है। गठबंधन में होने की वजह से नीतीश कुमार की पार्टी जदयू को भी इसका बड़ा लाभ हुआ है। इसके अलावा नरेंद्र मोदी के उदय से भाजपा ने दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग को भी साधने की कोशिश की है। पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा के पक्ष में यह बात गई थी। मुफ्त अनाज योजना की वजह से महिलाओं में भी भाजपा की पकड़ मजबूत हुई है। ऐसे में भाजपा के लिए भी इस जातीय जनगणना के आने के बाद स्थिति में कोई बड़ा बदलाव देखने को नहीं मिल रहा है। बिहार में जो परिपाटी चली आ रही है, ठीक वैसा ही जातिय जनगणना का रिपोर्ट भी सामने आया है। हालाँकि, भाजपा को बिहार में सोशल इंजीनियरिंग में भी अपना हाथ आजमाते हुए देखा गया है, मार्च में कुशवाह नेता सम्राट चौधरी को राज्य इकाई के अध्यक्ष के रूप में स्थापित किया गया है, इसके अलावा फरवरी में उपेन्द्र कुशवाह को गठबंधन सहयोगी के रूप में शामिल किया गया है। भाजपा अध्यक्ष सम्राट चौधरी ने कहा, “मैं नीतीश कुमार को बार-बार कह रहा था कि रिपोर्ट जल्द जारी करें। यह आधी-अधूरी रिपोर्ट है, अभी भाजपा पूरी रिपोर्ट देखेगी, जांच करेगी और फिर अपना विस्तृत बयान देगी… यह आधा-अधूरा है, जो आर्थिक, सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग हैं उसका तो रिपोर्ट ही नहीं है। अभी सिर्फ जातियों की गणना नीतीश कुमार ने बताई है लेकिन किस तकनीक से यह किया गया उसकी रिपोर्ट हम लेंगे… लालू जी की आदत जातिय उन्माद फैलाने की रही है। भाजपा शुरू से जातिय सर्वेक्षण की समर्थक रही है।”
लोकसभा चुनाव पर असर
विपक्ष और विपक्षीय गठबंधन लगातार जाति जनगणना की मांग उठा रहा है। हालांकि, केंद्र सरकार कहीं ना कहीं हिचकिचाहट की स्थिति में है। बिहार में जातिगत रिपोर्ट सामने आने के बाद सामाजिक न्याय का मुद्दा एक बार फिर से जोर पकड़ने लगा है। 2019 और 2014 के लोकसभा चुनाव में ओबीसी मतदाताओं का एक बड़ा तबका भाजपा का खुलकर समर्थन किया था। अगर जातीय जनगणना का मुद्दा विपक्षी दलों की ओर से उठाया गया तो भाजपा के ओबीसी वोट बैंक में सेंध लग सकता है। इससे वोटो में बिखराव होगा और भाजपा को नुकसान हो सकता है। हालांकि, भाजपा भी इसके काट को तैयार है। भाजपा संगठन के लिहाज से उन नेताओं को आगे करने की तैयारी में होगी जहां जिनकी जाति के ज्यादा मतदाता है। क्षेत्रीय दलों को उम्मीद होगी कि बिहार जाति सर्वेक्षण भाजपा के हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के आख्यान को बेअसर करने के लिए ‘मंडल -2’ बनाएगा। जाति सर्वेक्षण से नीतीश और लालू के साथ जुड़े जातीय गठबंधनों का पुनरुत्थान या एक नया सुदृढ़ीकरण हो सकता है।
बिहार में जाति जनगणना भी हो गई और उसके रिपोर्ट भी आ गई। हालांकि यह सिर्फ एक चुनावी मुद्दा बनाकर ना रह जाए। जातीय जनगणना से पहले यह दावा किया गया था कि इससे सभी लोगों के आर्थिक और सामाजिक स्थिति का पता चल पाएगा और उसी के अनुसार विकास की योजनाएं बनेंगी। ऐसे में हम और आप यही उम्मीद कर रहे होंगे कि इससे आम लोगों को फायदा मिले। इसका सिर्फ राजनीतिक इस्तेमाल न किया जाए। यही तो प्रजातंत्र है।