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ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने बताया कि जुलाई 1980 में इसरो को एक बड़ी कामयाबी मिली थी जब SLV-3 को सफलतापूर्वक लॉन्च किया गया, जिससे भारत उपग्रह प्रक्षेपण यान में महारत हासिल करने वाला छठा देश बन गया।
प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क के खास कार्यक्रम शौर्य पथ में हमने इस सप्ताह ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) से जानना चाहा कि इसरो की तारीफों के पुल लगातार बांधे जा रहे हैं लेकिन कहा जा रहा है कि डीआरडीओ वह मुकाम हासिल नहीं कर पाया जोकि उसे करना चाहिए था। इसे कैसे देखते हैं आप? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि दोनों ही संगठनों की कार्यशैली में बड़ा अंतर है। उन्होंने कहा कि इसरो जहां सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय के अंतर्गत आता है वहीं डीआरडीओ रक्षा मंत्रालय के तहत आता है। उन्होंने कहा कि इसरो की स्थापना डीआरडीओ के बाद हुई थी लेकिन सीमित संसाधनों के बावजूद यह संगठन इसलिए अच्छा प्रदर्शन करने में सफल रहा क्योंकि इसमें नौकरशाही का हस्तक्षेप नहीं है जबकि दूसरी ओर लगभग 7500 वैज्ञानिकों और देशभर में 50 से ज्यादा विभिन्न प्रकार के लैबों के बावजूद डीआरडीओ ज्यादा सफल नहीं रहा। उन्होंने कहा कि डीआरडीओ के जो उत्पाद सफल रहे उनमें कई संयुक्त रूप से उत्पादित किये गये जैसे कि ब्रह्मोस को रूस के साथ मिलकर बनाया गया है।
ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने बताया कि जुलाई 1980 में इसरो को एक बड़ी कामयाबी मिली थी जब SLV-3 को सफलतापूर्वक लॉन्च किया गया, जिससे भारत उपग्रह प्रक्षेपण यान में महारत हासिल करने वाला छठा देश बन गया। उन्होंने कहा कि उस परियोजना के निदेशक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम बाद में भारत का मिसाइल कार्यक्रम विकसित करने के लिए डीआरडीओ में चले गए थे जिससे उस संगठन को लाभ हुआ। उन्होंने कहा कि सच कहें तो डीआरडीओ ने संगठन के रूप में नहीं बल्कि व्यक्तिगत प्रतिभा के कारण जरूर कुछ उपलब्धि हासिल की है। जैसे डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के नेतृत्व में एकीकृत निर्देशित मिसाइल विकास कार्यक्रम (आईजीएमडीपी) इन सफलताओं में सबसे प्रमुख है। उन्होंने कहा कि इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर सिस्टम के बाद के संस्करण भी रुक-रुक कर ही सही, सफल रहे हैं।
ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि आज इसरो और डीआरडीओ के बीच बड़ा विरोधाभास है। इसरो की जहां सराहना की जाती है वहीं डीआरडीओ की आलोचना की जाती है। उन्होंने कहा कि पिछले साल CAG ऑडिट में DRDO की कई परियोजनाओं में देरी से बढ़ने वाले खर्चों पर सवाल उठाये गये थे। साथ ही यह भी सवाल उठाये गये थे कि जिन परियोजनाओं को बंद किया गया उन्हें बाद में किस आधार पर चालू कर दिया गया? उन्होंने कहा कि यह भी सवाल उठता है कि भारी भरकम बजट वाले इस विभाग के बावजूद भारत को क्यों सामान्य हथियारों की खरीद के लिए भी आयात पर निर्भर रहना पड़ता है। उन्होंने कहा कि एक ओर इसरो दूसरे देशों के सैटेलाइट को लान्च करके आर्थिक लाभ कमाने लग गया है लेकिन दूसरी ओर डीआरडीओ एक सामान्य राइफल तक नहीं बना पाया है।
ब्रिगेडियर श्री डीएस त्रिपाठी जी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि यह भी देखने में आता है कि DRDO और भारत की सशस्त्र सेवाओं के बीच तालमेल का अभाव है। इससे समय और लागत दोनों बढ़ जाती है। उन्होंने कहा कि जब डीआरडीओ हमारी सेना की आवश्यकताओं को ही नहीं समझ पा रहा है और जब हमारे सशस्त्र बलों की कसौटी पर ही डीआरडीओ के उत्पाद खरे नहीं उतर पा रहे हैं तो हम दूसरे देशों को हथियार कैसे बेच पाएंगे? उन्होंने कहा कि देखा जाये तो पिछले कुछ वर्षों में डीआरडीओ का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है, जिससे सशस्त्र बलों में काफी निराशा है। उन्होंने कहा कि इसरो अपनी असफलता से भी सीखता है और डीआरडीओ में नौकरशाही इस कदर हावी है कि सफलता-असफलता तक बात पहुँच ही नहीं पाती क्योंकि उत्पाद बरसों बरस परीक्षण के दौर से ही गुजरते रहते हैं तब तक तकनीक बदल जाती है और सशस्त्र बलों को उसकी जरूरत नहीं रहती। उन्होंने कहा कि डीआरडीओ द्वारा विकसित किये जा रहे उत्पादों की समय सीमा सुनिश्चित करनी होगी और इसके कार्यों की सतत समीक्षा के लिए एक समिति बनानी होगी जिसमें इस संगठन के अलावा सशस्त्र बलों के भी अधिकारी शामिल होने चाहिए।
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