Karpoori Thakur Bharat Ratna: केंद्र सरकार ने बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर (Karpoori Thakur) को देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ‘भारत रत्न’ से सम्मानित करने का ऐलान किया है. ‘जननायक’ के नाम से मशहूर कर्पूरी ठाकुर दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे और सामाजिक न्याय के पुरोधा कहे जाते हैं. नाई परिवार में जन्मे कर्पूरी ठाकुर अपने सिद्धांतों के लिए मशहूर थे.
कर्पूरी ठाकुर जब 1952 में पहली बार चुनाव मैदान में उतरे तब उनकी जेब बिल्कुल खाली थी. इसी वजह से वह चुनाव लड़ने से हिचक रहे थे. ठाकुर के समर्थकों ने उनसे ताजपुर विधानसभा से चुनाव लड़ने को कहा, पर उन्होंने साफ मना कर दिया. बाद में सोशलिस्ट पार्टी के बड़े नेताओं की मांग के बाद चुनाव लड़ने को तैयार हुए, लेकिन एक शर्त रख दी.
चवन्नी-अठन्नी लेकर लड़ा था चुनाव
कर्पूरी ठाकुर ने शर्त रखी कि वह चंदे पर ही चुनाव लड़ेंगे. राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश ‘जननायक कर्पूरी ठाकुर स्मृति ग्रंथ’ में लिखते हैं कि कर्पूरी ठाकुर ने फैसला किया कि वह चंदा जुटाकर चुनाव लड़ेंगे और और चवन्नी-अठन्नी का चंदा लेंगे. ज्यादा से ज्यादा 2 रुपये का सहयोग लेंगे. उन दिनों जयप्रकाश नारायण की पत्नी प्रभावती देवी इकलौती थीं, जिन्होंने 5 रुपये का चंदा दिया था. चंदा जुटाकर कर चुनाव लड़ने वाले ठाकुर ने पहले ही चुनाव में कद्दावर नेता को हरा दिया था.
एक-एक पैसे का रखते थे हिसाब
हरिवंश लिखते हैं कि कर्पूरी ठाकुर अपने जीवन में एक लोकसभा चुनाव को छोड़कर कभी नहीं हारे और जीवन भर चंदे से ही चुनाव लड़ा. वह चंदे के एक-एक पाई का हिसाब खुद रखते थे और राजनीतिक चंदे का कभी निजी काम के लिए इस्तेमाल नहीं किया. कर्पूरी ठाकुर जब तक जीवित रहे, उनके पास हमेशा पैसे का अभाव रहा. अपनी चाय-पानी और टिकट जैसी चीजों का खर्च खुद वहन किया करते थे. ना तो कभी पार्टी से लिया और न कभी कार्यकर्ताओं को इस मदद के लिए प्रेरित किया.
कांख में दबाए रहते थे किताब का गट्ठर
कर्पूरी ठाकुर (Karpoori Thakur) हमेशा दूसरों को बहुत ध्यान से सुना करते थे और उनसे ज्ञान लिया करते थे. दिनभर लोगों की भीड़ से घिरे रहते. सबको सुनते और अपनी किताबों का गट्ठर कांख में दबाए रहते. जैसे ही मौका मिलता, किताबों में खो जाते. किताबों के जरिए देश, दुनिया को और करीब से जानने-समझने की कोशिश करते.
कर्पूरी ठाकुर के बारे में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हेमवती नंदन बहुगुणा लिखते हैं…
कर्पूरी ठाकुर किसी बीमारी के लक्षण पर बात नहीं करते थे बल्कि उसके कारण और जड़ पर बात किया करते थे जब किसी को प्रणाम करते तो घुटनों से नीचे भी झुक जाते लेकिन अपनी बात पर अड़े तो तानकर खड़े रहते
अंग्रेजी हटाई तो लोग कहने लगे- कर्पूरी डिवीजन
कर्पूरी ठाकुर बिहार के शिक्षा मंत्री भी रहे. जब उन्होंने शिक्षा मंत्री का कार्यभार संभाला तो सबसे पहला काम यह किया कि मैट्रिक की परीक्षा से अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म कर दी. उसके बाद विपक्ष के निशाने पर आ गए. विपक्ष कहने लगा कि चूंकि उन्हें खुद अंग्रेजी नहीं आती, इसलिए अंग्रेजी हटा दी.
उस साल बिहार बोर्ड से मैट्रिक में पास हुए बच्चों को ‘कर्पूरी डिवीजन’ से पास कहा जाने लगा. दिलचस्प बात यह है कि जिस साल बिहार सरकार ने मैट्रिक से अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म की थी, उसी साल पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने भी ऐसा ही किया था.
जब नेताओं ने भिजवाई ईंट
कर्पूरी ठाकुर ऐसे नेता थे जिनकी विपक्षी नेता भी इज्जत किया करते थे. बीजेपी नेता भोला सिंह उनसे जुड़ा है एक दिलचस्प संस्मरण सुनाते हैं. वह लिखते हैं कि कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री तो बन गए लेकिन उनका घर वैसे ही उजाड़ का उजाड़ रहा. उन्होंने अपना घर बनवाने पर ध्यान नहीं दिया. उठने-बैठने की ढंग की जगह तक नहीं थी. बाद में उनका घर बनवाने के लिए 50000 ईंट भेजी गई, पर कर्पूरी ठाकुर ने उन ईंट से अपना घर ना बनवाकर गांव का स्कूल बनवा दिया था.
सिर्फ एक चुनाव हारे
कर्पूरी ठाकुर अपने जीवन में सिर्फ एक चुनाव हारे. वह 1984 का लोकसभा चुनाव था. विधानसभा चुनाव में आजीवन अजेय रहे. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में कर्पूरी ठाकुर अपनी इच्छा के विपरीत समस्तीपुर लोकसभा सीट से लोकदल प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतरे. उन दिनों इंदिरा की हत्या के बाद सहानुभूति की लहर चल रही थी और इस लहर की चपेट में वह भी आ गए.
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FIRST PUBLISHED : January 24, 2024, 13:23 IST