Jana Gana Man Review: निजी दुश्मनी के जरिये एक बड़ी सामाजिक, नैतिक और कानूनी समस्या पर प्रहार – जन गण मन

Jana Gan Man Review: मलयालम सिनेमा को देश का विद्रोही सिनेमा घोषित कर देना चाहिए. इस सिनेमा में हमेशा से ही समसामयिक मुद्दों को फिल्म की कहानी में कुछ इस तरह पिरोया जाता है कि बुद्धिमान दर्शकों तक छुपा हुआ सन्देश भी पहुंच जाता है और जो फिल्म को मजे के लिए देखते हैं उनके लिए भी कहानी में पेट भर ड्रामा डाला जाता है. तमाम बंधनों और व्यावसायिक मजबूरियों के बावजूद मलयालम सिनेमा (Malayalam Cinem) एक के बाद एक ऐसी कहानियों पर फिल्में बनता आ रहा है जिन्हें आम दर्शक शायद कभी भी स्वीकार नहीं करते. केरल में शिक्षा का स्तर काफी ऊंचा है, रहवासियों की राजनैतिक समझ भी काफी जागरूक है, कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रभाव ज्यादा होने की वजह से मानवीय संवेदनाओं को अभी भी तवज्जो दी जाती है. यही बात मलयालम सिनेमा में भी देखने को मिलती है. इसका ताजा उदहारण है नेटफ्लिक्स (Netflix) पर रिलीज सिनेमा – जन गण मन (Jana Gana Mana). एक ही कहानी में हाल में हुई इतनी सारी घटनाओं के मोती पिरोये गए हैं कि फिल्म एक बेहतरीन आभूषण नज़र आती है. देखने लायक है. तुरंत देखी जानी चाहिए.

यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर सबा मरियम (ममता मोहनदास) की हत्या हो जाती है. मीडिया इस मामले को बहुत तूल देता है और सरकार एक वरिष्ठ अधिकारी एसीपी सज्जन कुमार (सूरज वेंजारमुडु) को इस केस को सॉल्व करने के लिए कहती है. सबा के छात्र और अन्य यूनिवर्सिटीज के छात्र सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे होते हैं, तब सज्जन कुमार, सबा की माँ से वादा करते हैं कि वो 30 दिन में गुनहगारों को पकड़ लेंगे. तहकीकात में 4 लड़कों को गिरफ्तार किया जाता है. सज्जन पर इस केस को रफा दफा करने के लिए दबाव आता है और अंततः उसे इस केस से हटा दिया जाता है. अपने हाथों से केस फिसलता देख कर सज्जन इन चारों अभियुक्तों को उसी जगह ले जाता है जहां उन्होंने सबा को जिंदा जलाया होता है ताकि इन्होंने अपराध कैसे किया वो समझ सके.

सज्जन इन चारों को गोली मार देता है. जनता इस इंस्टेंट जस्टिस की दीवानी हो जाती है और सज्जन की सब जगह तारीफ होने लगती है. इस एनकाउंटर के खिलाड़ ह्यूमन राइट्स, कोर्ट में केस दर्ज़ कर देते हैं. जनता को यकीन होता है की सज्जन को कुछ नहीं होगा लेकिन सज्जन के खिलाफ जो वकील है वो है अरविन्द स्वामीनाथन (पृथ्वीराज सुकुमारन) जो इस केस के हर आर्ग्युमेंट की धज्जियां बिखेर देता है और ये साबित करने में कामयाब होता है कि पूरा षडयंत्र सरकार के गृह मंत्री और सज्जन ने रचा है ताकि चुनाव में गृह मंत्री जीत कर मुख्यमंत्री बन सकें. अरविन्द कौन हैं, कहां से आया है, उसने ऐसा क्यों किया और सज्जन से उसकी क्या दुश्मनी थी… ये सब फिल्म में दिखाया तो गया है लेकिन ठीक उतना ही जिस से ये स्थापित किया जा सके कि इस फिल्म का सीक्वल बनेगा और जल्द ही आएगा.

केरल के ही एक युवा लेखक शारिस मोहम्मद ने इस फिल्म को लिखा है. एक एक दृश्य इतना सोच समझ के रचा गया है कि दर्शक अपनी राजनैतिक सोच पर प्रश्न उठाने को मजबूर हो जाते हैं. जो यूनिवर्सिटी दिखाई गयी है उसको जेएनयू से प्रभावित बनाया गया है. वाईस चांसलर जब सबा की मौत को हलके में लेते हैं तो छात्र संगठन उसके खिलाफ विरोध करता है और पुलिस वाले उन्हें बर्बरतापूर्वक मारते हैं. छात्र संघ की प्रेजिडेंट मार खाती है, उसका सर फूट जाता है और फिर भी वीडियो के ज़रिये छात्रों पर पुलिस द्वारा किये जा रहे अत्याचारों का कच्चा चिटठा सामने रख देती है. सूरज वेंजारमुडु जब छात्रों से बात करने यूनिवर्सिटी पहुंचते हैं तो लगता है कि कोई सच्चा और कर्तव्यपरायण अधिकारी बात कर रहा है और छात्र उनकी बातें एक बार में सुन भी लेते हैं. कमाल दृश्य रचा है यहां. भ्रष्ट राजनेता का किरदार भी लाजवाब है क्योंकि वो कहता है सब चलता है, जब चाहो तो नोट बंदी कर लो और जब चाहो तब वोट बंदी. देश की वर्तमान राजनीती पर तीखा प्रहार करती है ये फिल्म.

2019 के गैंग रेप के आरोपियों को पुलिस ने एनकाउंटर में मार गिराया जब अपराध स्थल पर इन आरोपियों को ले जाया गया था. फिल्म में इस दृश्य को हूबहू रखा गया है. जनता को इन्साफ का ये तरीका बहुत पसंद आया था लेकिन जब कोर्ट में वकील इस तरीके पर सवाल करता है तो जज के पास और जनता के पास इसका कोई जवाब नहीं होता. कानून और न्याय हमेशा एक जैसे हों ये ज़रूरी नहीं है. फिल्म इस बार की पुष्टि करती है. एक और जगह गांधीजी की कही बात का इस्तेमाल भी किया गया है – भीड़ का निर्णय, न्याय नहीं होता.

सूरज वेंजारमुडु का अभिनय फिल्म को एक तरफ झुका देता है. इतना शक्तिशाली किरदार फिल्मों में देखने को नहीं मिलता. जब आरोपी उनसे सिगरेट मांगता है तो उन्हें पता होता है कि राजनैतिक रसूख इस आरोपी को रिहा करवा लेगी तो उस आरोपी का एनकाउंटर करने से पहले उसे सिगरेट पिलाते हैं लेकिन लाइटर से जला कर नहीं, उसे खुद जलाने देते हैं. क्या दृश्य विन्यास है! फिल्म का पलड़ा तब पलट जाता है जब पृथ्वीराज की एंट्री होती है. इंस्टेंट कॉफी, इंस्टेंट नूडल जैसा इंस्टेंट जस्टिस चल रहा है क्योंकि चारों आरोपियों को न्याय के लिए कोर्ट में प्रस्तुत ही नहीं किया गया और उनका एनकाउंटर कर दिया.

पृथ्वीराज धीमे धीमे जनता की सोच को पलट कर रख देते हैं. अजमल कसाब को भी कोर्ट में प्रस्तुत किया गया और उसका पक्ष सुना गया, पूरी जांच हुई, अपराध सिद्ध हुए और उसके बाद उसे फांसी दी गयी लेकिन मीडिया ने सबा के केस को इतना प्रसारित किया कि लॉजिक छोड़ कर लोग भावनाओं में निर्णय लेने लगे. कोर्ट की जगह पुलिस के हाथों ही निर्णय होने लगा. पृथ्वीराज पूरी कानून व्यवस्था में आस्था जताते हैं लेकिन जनता और मीडिया की भावनात्मक निर्णयों वाली प्रणाली पर सवाल उठाते हैं. इन दृश्यों में लेखनी ने कमाल किया है और पृथ्वीराज जैसा बेहतरीन अभिनेता हो तो एक एक डायलॉग और एक एक दृश्य दिमाग में बस जाते हैं.

फिल्म के आखिरी 10 मिनिट
फिल्म के आखिरी 10 मिनिट में सब कुछ एक घालमेल की तरह है. इस फिल्म का एक दूसरा भाग भी होगा जिसमें पृथ्वीराज वकील क्यों बना और उसके साथ क्या क्या हुआ जिस वजह से वो पुलिसवालों और नेताओं के बीच के संबंधों का पर्दाफाश करना चाहता है, ये भी दिखाया जाएगा. हालाँकि दर्शक काफी कुछ तो आखिरी के 10 मिनिटों की फिल्म से समझ गए हैं लेकिन ये वाले दृश्य फिल्म में बेकार रखे गए हैं. सस्पेंस रखा जाता तो शायद कटप्पा और बाहुबली वाली बात यहाँ भी आ सकती थी. फिल्म बहुत लम्बी है क्योंकि कई सारी घटनाओं को शामिल करना था, कई सारे राष्ट्रीय मुद्दों और घटनाओं को जोड़ना था. पटकथा अच्छी तो है लेकिन इस सुपर फ़ास्ट ट्रेन की रफ़्तार आउटर पर आ कर कम हो जाती है. सूरज और पृथ्वीराज अपने कांधों पर पूरी फिल्म को उठाये हैं. पहला भाग सूरज और दूसरा भाग पृथ्वीराज. निर्देशक डिजो ने फिल्म को बाँध के रखा है. उनका निर्देशन अच्छा है और इतनी लम्बी फिल्म होने के बावजूद दर्शक बहुत कम दृश्यों में बोर होते हुए नज़र आएंगे.

कम्युनिस्ट विचारधारा के लोग इस फिल्म से इत्तेफ़ाक़ रखेंगे और दक्षिणपंथी इस फिल्म में किये गए राष्ट्रीय राजनैतिक किस्सों के समावेश से नाराज़ होंगे. सच तो ये है कि जन गण मन वास्तव में समाज का आईना है. इस फिल्म को प्रत्येक भारतीय को देखना चाहिए. सच हमेशा मीडिया नहीं दिखाता और मीडिया हमेशा सच नहीं दिखाता. इस तथ्य का इस फिल्म से बेहतर कोई उदहारण नहीं हो सकता. फिल्म की तारीफ में काफी कुछ लिखा जा सकता है. फिल्म करीब पौने तीन घंटे की है इसके अलावा आपको फिल्म में बहुत कम नुक्स नजर आएंगे. देखिये जरूर.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

जेक्स बिजॉय/5

Tags: Film review, Movie review, Review



Source link

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *