विगत कुछ वर्षों से मुख्य चुनाव आयोग की कार्यशैली सवालों के घेरे में हैं। कहने में गुरेज नहीं होगा कि पर्दे की आड़ लेकर आयोग के भीतर तक राजनीतिक दखल अब होने लगा है। कुछ वर्षों में ऐसे तमाम बदलाव दिखे, जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। चुनावी चंदा और दानदाताओं की पहचान को छुपाना, सरकारों के मुताबिक चुनावी तारीखों का एलान होना, नियमानुसार सत्तापक्ष पर कार्रवाई न होना, जैसे अनगिनत राजनीतिक हादसे उभरकर सामने आए हैं। चुनावों में कई जगहों पर नेताओं की गाड़ियों में ईवीएम मशीनों की बरामदगी का होना भी सवालों के घेरे में आया। ऐसे में भला कोई कैसे चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर विश्वास कर पाए? विपक्षी दल तो कई सालों से आयोग की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता पर सवाल उठा ही रहे हैं, अब ये मुद्दा सड़कों से लेकर गांव-गलियों तक पहुंच गया है। चुनाव आयोग की व्यवस्थाएं क्यों लचर हो रही हैं, इस मुद्दे को लेकर पत्रकार डॉ0 रमेश ठाकुर ने पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी से विस्तृत बातचीत की, पेश हैं बातचीत के मुख्य हिस्से-
प्रश्नः चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर उठते प्रश्नों से आप कितना इत्तेफाक रखते हैं?
उत्तर- भारतीय चुनाव आयोग की स्वायत्तता और निष्पक्षता पर सवाल कतई नहीं उठने चाहिए। अगर ऐसा होगा, तो मुकम्मल और साफ-सुथरे लोकतंत्र की कल्पनाएं नहीं की जा सकतीं? दखलंदाजी से बहुत कुछ गड़बड़ा जाएगा? मैं आपके सवाल से पूर्णतः इत्तेफाक रखता हूं कि आयोग की विश्वसनीयता पर विपक्ष ही नहीं, अब आम नागरिक भी सवाल उठाने लगे हैं। ये दुखद तस्वीर है, जो तेजी से उभर रही है। देखिए, संस्था कोई भी हो, उसकी कार्यशैली और उसका चरित्र तब कमजोर हो जाता है, जब उस पर अनावश्यक राजनीतिक प्रभाव डाल दिया जाता है। सामाजिक व्यवस्था का स्वच्छ निमार्ण तभी संभव है, जब संस्थाएं स्वतंत्र रहेंगी। सरकारों को इसके लिए प्रणालीगत सुरक्षा उपाय करने होंगे। साथ ही संस्थाओं को समय-समय पर और आधुनिक करने की आवश्यकताएं है। एकाध दशक बाद चीजें रिफॉर्म भी की जाएं। चुनावों में धन खर्च करने की छूट पर सख्त पहरा हो। वहीं, भड़काऊ भाषणों की मॉनिटरिंग की जाए और नियमों के उल्लंघन पर उम्मीदवारों की उम्मीदवारी पर बैन का प्रावधान बने। ऐसे सख्त कदम उठाने ही होंगे।
प्रश्नः आयुक्त पर बनी सिलेक्शन कमिटी से सीजेआई को बाहर रखने के निर्णय को आप कैसे देखते हैं?
उत्तर- जनमानस के लिए कोर्ट अंतिम भरोसे के तौर पर देखी जाती हैं। जब प्रत्येक जगहों से उम्मीदें धूमिल हो जाती हैं, तो कोर्ट ही ऐसी जगहें होती हैं जहां से उम्मीदें जन्म लेती हैं। मैं हमेशा से इस पक्ष में रहा हूं कि सीजेआई की दखल महत्वपूर्ण समितियों में ज्यादा से ज्यादा होना चाहिए, हुकूमत के निर्णय की मैं मुखालफत नहीं करता। पर, इतना जरूर है कि चुनाव आयुक्त के गठन वाली कमेटी में सीजेआई को नहीं रखने के निर्णय को मैं सही नहीं मानता। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एक नहीं, बल्कि कई कॉलेजियम का हिस्सा होते हैं। चुनाव आयुक्त गठन की कमिटी में भी अगर वह बने रहेंगे, तो और अच्छा होगा। मुझे लगता है तीसरा सदस्य सिलेक्शन कमिटी में स्वतंत्र और एकदम निष्पक्ष होना चाहिए। किसी पूर्व सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का शामिल होना कई मायनों में अच्छा रहेगा। केंद्र सरकार को इस बिल पर आम राजनीतिक सहमति बनाकर ही आगे बढ़ना चाहिए। क्योंकि लोकतंत्र में चुनाव आयोग का गठन ट्रस्ट के साथ होना चाहिए। ये एक ऐसी संस्था है जो बहुत महत्वपूर्ण है, लोकतंत्र की राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्थाएं भी इसी से निहित होती हैं।
प्रश्नः हजारों सवालों के बीच स्वायत्तता और निष्पक्षता पर आम जनों का विश्वास कैसे जगे?
उत्तर- मैंने कहा न, आयोग के नियमों को प्रभावी और मजबूत करने की दरकार है। वैसे, आयोग के मौजूदा नियम कठोर हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। पर, बात वहीं आकर अटकती है, आखिर उनका प्रयोग बिना रोकटोक के हो कैसे? आयोग को एक सुनहरा काल बीत चुका है, अब चुनौतियों की भरमार है, उन चुनौतियों को समझना होगा? आयोग को पता होना चाहिए कि अब ज्यादातर चुनाव धन-बल पर निर्भर होकर लड़े जाते हैं। चुनाव आयोग स्वतंत्र रहे और उसे सभी चुनावों पर अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण की शक्तियां प्रदान की जाएं। क्योंकि जब-जब इन शक्तियों पर चर्चाएं हुईं, तो शीर्ष अदालत ने बार-बार इन शक्तियों को पूर्ण और निर्विवाद होना बताया। अनुच्छेद-324 में ईसीआई की सभी शक्तियों का भंडार है जिनमें स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों को संविधान की मूल संरचना का हिस्सा माना गया है। बशर्ते उनका दुरुपयोग न हो।
प्रश्नः आयुक्त का दर्जा और दायरा बढ़ाने पर भी चर्चाएं कभी गर्म थीं?
उत्तर- बढ़ते आरोपों के बाद दर्जा और दायरा दोनों जरूरी हैं। पिछले वर्ष केंद्र सरकार की ओर से चुनाव आयुक्त को कैबिनेट सेक्रेटरी का दर्जा देने के प्रस्ताव पर सुगबुगाहट हुई थी। तब, मैंने कहा था कि ये शायद ठीक नहीं रहेगा। क्योंकि आयुक्त को चुनावी प्रक्रिया को मैनेज करना होता है जो बहुत ही संवेदनशील प्रक्रिया है। चुनाव आयुक्त को राजनीतिक दलों को डिसिप्लिन भी करना पड़ता है। इसके लिए चुनाव आयुक्त का दर्जा बढ़े, लेकिन राजनीतिक प्रभाव वाला पद न हो। वरना, उससे मनभ्रमित होने में देर नहीं लगेगी। आयोग की वेबसाइट पर चंदेदार की पहचान दर्ज हो, चुनावों में नियम तोड़ने वालों पर की जाने वाली कार्रवाईयों का ब्यौरा भी हो।
प्रश्नः बाहर के मुल्क भी भारतीय चुनावी प्रक्रिया के मुरीद हैं। पर, देश के भीतर ईवीएम मशीनों से लेकर समूची कार्य व्यवस्थाएं कटघरे में खड़ी हैं?
उत्तर- देखिए, एक वाजिब सवाल ये भी है कि सत्तारुढ़ दल कभी भी ईवीएम मशीन पर सवाल नहीं उठाते। पर जब वो विपक्ष में होते हैं तो शोर मचाते हैं। कभी बीजेपी भी ईवीएम पर सवाल उठाती थी। अब कांग्रेस ने मोर्चा संभाला हुआ है। रही बात हमारी चुनावी प्रक्रिया का अन्य देशों में डंका बजने का, तो हमें ये कहते हुए गर्व होता है कि भारतीय चुनाव आयोग विश्व गुरु है। अन्य मुल्कों में चुनाव कराने के मामले में बीते एक दशक में करीब 108 देश के चुनाव अधिकारी भारतीय चुनाव आयोग में आकर ट्रेनिंग ले चुके हैं। नेपाल, भूटान जैसे देशों में हमारे पर्यवेक्षक खुद जाकर चुनाव संपन्न करवाते हैं। लेकिन मैं, फिर भी यही कहना चाहूंगा कि बिल के प्रारूप में और सुधार जरूरी है। भारत सरकार को नए बिल पर राजनीतिक सहमति बनाकर और इसके मौजूदा प्रारूप में संशोधन करके आगे बढ़ने की दरकार है। चुनाव आयोग की विश्वसनीयता का बने रहना लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में अति आवश्यक होता है।
-बातचीत में जैसा पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने पत्रकार डॉ. रमेश ठाकुर से कहा।