Indo-Pak War 1971: 93000 सैनिकों के सरेंडर के साथ घुटनों पर आया ‘पाक का गुरूर’

Pakistani Soldiers Surrender. बंटवारे के बाद 1947 में भले ही पाकिस्‍तान के नाम से अलग देश बना हो, लेकिन सही मायनों में भारत के तीन टुकड़े हुए थे. पहला-भारत, दूसरा- पश्चिमी पाकिस्‍तान और तीसरा – पूर्वी पाकिस्‍तान. सामाजिक, बौद्धिक और सांस्‍कृतिक दृष्टि से बिल्‍कुल अलग पहचान रखने वाले पूर्वी पाकिस्‍तान और पश्चिमी पाकिस्‍तान के बीच कोई मेल नहीं था. सिर्फ बांग्‍लाभाषी की वजह से पूर्वी पाकिस्‍तान के वाशिंदों के साथ न केवल सौतेला व्‍यवहार हुआ, बल्कि उनके साथ गुलामों की तरह बर्ताव किया गया. 

बेबस पूर्वी पाकिस्‍तान के वांशिदों की दिल में पनप रही टीस, धीरे-धीरे आग बनकर उनके दिल में धधकने लगी. देखते ही देखते पूर्वी पाकिस्‍तान के वांशिदों का सब्र जवाब दे गया और उनके दिल में पल रही टीस मुक्ति वाहिनी के रूप में आग बनकर बाहर आ गई. कुछ ही समय में मुक्ति वाहिनी एक आंदोलन बन गया और पूरे पूर्वी पाकिस्‍तान में इस आंदोलन की आग धधकने लगी. बांग्‍लादेश नाम से अलग देश की मांग करने वाली मुक्ति वाहिनी आंदोलन को पंख उस वक्‍त लग गए, जब भारतीय सेना ने उनका हाथ थामकर उनके दर्द पर सैन्‍य मदद का मरहम लगाना शुरू कर किया. 

अपनी पुरानी ख्‍वाहिश पूरी करने की ताक में था पाकिस्‍तान
भारतीय सेना का पूर्वी पाकिस्‍तान की तरफ झुकाव देख पश्चिमी पाकिस्‍तान के सैन्‍य शासकों को ऐसा लगा कि भारत ने अपनी पूरी सैन्‍य ताकत मुक्ति वाहिनी की मदद में झोंक दी है. बस इसी गलतफहमी के साथ पाकिस्‍तान ने अपनी वर्षों पुरानी ख्‍वाहिश को पूरा करने के लिए साजिश रचना शुरू रख दिया. पाकिस्‍तान की इस पुरानी ख्‍वाहिश का नाम था जम्‍मू और कश्‍मीर. पाकिस्‍तान के सैन्‍य शासकों का मानना था कि वह अगर पश्चिमी मोर्चे से युद्ध की शुरूआत कर दें तो भारत की सैन्‍य ताकत पूरी तरह से बंट जाएगी और वह आसानी से जम्‍मू और कश्‍मीर पर अपना परचम लहरा देंगे. 

इसी गलतफहमी के साथ पाकिस्‍तान की एयरफोर्स ने 3 दिसंबर 1971 की रात उत्तर-पश्चिमी भारत की 11 एयर फील्‍ड्स पर हवाई हमला कर दिया. वहीं, जमीन पर पाकिस्‍तानी सेना के 2 हजार जवानों ने 65 टैंक और 1 मोबाइल इंफ्रेंट्री ब्रिगेड के साथ पश्चिमी मोर्चे पर राजस्‍थान लोंगेवाला पोस्‍ट पर हमला बोल दिया. इसी के साथ, पठानकोट पर कब्‍जा करने की कोशिश में आगे बढ़ रही पाकिस्‍तानी सेना के साथ शकरगढ़ में बसंतर की लड़ाई शुरू हो गई. देखते ही देखते पश्चिम से लेकर पूर्व तक भारत और पाकिस्‍तान की सेनाओं के बीच खूनी जंग शुरू हो गई. 

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13 दिनों में घुटनों पर ले आए पाकिस्‍तान का गुरूर
तत्‍काली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और सेना प्रमुख मानेक शॉ ने पाकिस्‍तान की इस गुस्‍ताखी का मुंहतोड़ जवाब देने का मन बना लिया था. भारतीय सेना के सामने पाकिस्‍तान को हर मोर्चे पर मुंह की खानी पड़ रही थी. महज 13 दिनों के भीतर भारतीय सेना के जांबाजों ने पाकिस्‍तान के गुरूर को घुटनों में ला दिया. हालात यहां तक पहुंच गए कि पूर्वी पाकिस्‍तान में युद्ध लड़ रहे पाकिस्‍तान सेना के 93 हजार जवानों ने भारतीय सेना के सामने हथियार डालकर आत्‍मसमर्पण कर दिया. यह आत्‍मसमर्पण ढाका के रमणा रेसकोर्स पर हुआ. 

इस तरह, 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्‍तान सेना के लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाज़ी ने जैसे ही अपने 93 हजार सैनिकों के साथ भारतीय सेना के सामने आत्‍मसमर्पण किया, पाकिस्‍तान का गुरूर पूरी तरह से खाक में मिल गया. लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाज़ी ने भारतीय सेना के जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ (पूर्वी कमान) लेफ्टिनेंट-जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने आत्‍मसर्पण कर दस्‍तावेजों पर हस्‍ताक्षर किए थे. इस तरह, 1947 में भारत के खिलाफ रची गई साजिश का अंत हुआ और बांग्‍लादेश के नाम से नए देश का उदय हो गया.

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दूसरे विश्‍व युद्ध के बाद दुनिया का सबसे बड़ा आत्‍मसमर्पण
16 दिसंबर 1971 को ढाका के रमणा रेसकोर्स पर हुआ पाकिस्‍तानी सेना का आत्‍मसमर्पण द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद दुनिया का सबसे बड़ा आत्‍मसमर्पण था. रमणा रेसकोर्स पर भारतीय सेना के जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ लेफ्टिनेंट-जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने 93 हजार सैनिकों के साथ पाकिस्‍तानी सेना के पूर्वी कमान के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाजी ने शाम करीब 4 बजकर 31 मिनट पर आत्‍मसमर्पण किया था. अपने हथियार भारतीय सेना के सामने डालने के बाद लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाजी ने बिना शर्त आत्‍मसर्पण के दस्‍तावेजों पर दस्‍तखत किए थे. 

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