लड़की के साथ छेड़छाड़
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कल रात शायद उन तमाम बेटियों की माएं सोई नहीं होंगी, जिनकी बेटियां बीएचयू में पढ़ती हैं। सोई तो वो बेटियां भी नहीं होंगी, जो इसी कैंपस में रहती हैं। और जागना तो हमें भी चाहिए वैसे। शायद तब तक, जब तक वो घिनौनी हरकत करने वाले तीनों गुंडे पहचाने-पकड़े और ठीक तरह से पूजे न जाएं। आखिर इस एक घटना ने न जाने कितनी बेटियों के हौसले को नुकसान पहुंचाया है। और कितने बेहिस हैं ना आप-हम की अपने घरों और जहन में घुप्प अंधेरा कर बैठे हैं।
जानते हैं, हम बेटियों को ऊंचा फलक, लंबी जमीन, गहरे इमोशन और मौके बड़ी मिन्नतों-मुरादों के बाद हासिल होते हैं। जैसे ही पुरुषों का स्पर्म तय कर दे कि बेटी होगी, एक्स्ट्रा संघर्ष जन्मपत्री में बड़े फॉन्ट में लिख दिए जाते हैं। मुझे तो यही सोचकर खौफ आ रहा है कि उन तमाम बेटियों को अगली ही ट्रेन से घर लौटने के टिकट न भेज दिए जाएं। बड़ी मुश्किल से अपने छोटे से गांव, आंगन या बस्ती से बीएचयू तक पहुंची हैं ये छोरियां। नया आसमां गढ़ने के ख्वाब बुनने वाली बेटियों का दिल आज कितना कांप-कलप रहा होगा। जो बीती रात उस पीड़ित छात्रा के साथ हुआ, दिनभर में कई बार अपने पर भी जरूर महसूस किया ही होगा।
और आप, हम जो बेटियों की बराबरी के कसीदे पढ़ते हैं, उन्हें आंख मींचे खुद पर छंटाक भर शर्म कर लेना चाहिए, ये सवाल पूछते हुए कि आखिर 1.30 पर वो टहलने निकली ही क्यों? अब वो रात के 1.30 बजे टहलने जाए, 2 बजे जाए या ढाई बजे। क्या देश के सर्वोच्च, सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम इंस्टीट्यूट में सुरक्षा भी नहीं दे सकते?
आंकड़ों की मानें तो देश में 48% महिलाएं हैं। 45 फीसदी 12 वीं पास कर पाती हैं। 28% इंजीनियरिंग और सिर्फ 8% आईआईटी पहुंच पाती हैं। उन 8% बेटियों के मोटी किताबों पर कुर्बान बचपन का वास्ता आपको। आप तो सर्वज्ञानी हैं। जानते ही होंगे कि आईआईटी कोई खाला का घर नहीं। हर साल आईआईटी में दाखिले के लिए 10 लाख बच्चे एग्जाम देते हैं। उसमें से 12 हजार ही एडमिशन ले पाते हैं। यानी सिर्फ 0.12 प्रतिशत। इस गिनती पर ही थोड़ा घमंड कर लेते। जरा सा इतरा लेते। और थोड़ी बहुत सुरक्षा जुटा लेते। कोई गुंडा, गेट, उस पर लगे सीसीटीवी, वहां पर तैनात गार्ड्स को बुड़बक बनाकर भीतर तक आ गया और पता ही नहीं चला। कैंपस में लगे सीसीटीवी तक ने इतने घिनौनी अपराध को देखकर आंखें मूंद लीं। और आप 11 घंटे मांगें, शर्तें और न्याय गिनते रहे। वैसे भी बड़ी चुनौती ये नहीं है कि उस छात्रा को न्याय दिलाए। न्याय तो मिल ही जाता है जनाब। आज नहीं तो कल, वरना परसों, तरसों। चुनौती है उन तमाम लड़िकयों के आंखों में उतर आए खौफ को मिटाने की। वो जो रात के अंधेरे से डरने लगी हैं। दुबक गई हैं। हथेलियों को मुट्ठियों में इतना भींच लिया है कि पसीने में लकीरें भी धुंधली होने लगी हैं।
महामना हमें माफ करना। पढ़ने-लिखने के जिस ख्वाब के साथ आपने इस इलाके को बोया था, उस पर ऐसे हादसे ने खरपतवार बो दी है।