(केशव मोहन पांडेय/ Keshav Mohan Pandey)
दिवाली के चहक-महक बीतते चारु ओर पावन परब छठ के निर्मलता लउके लागेला. गांव-देहात, देश-दुनिया, राजनीति-मनोरंजन, चारु ओर छठ व्रत पर अपना-अपना ढंग के छटा लउकेला. एकरा सथवे अपना सभ्यता-संस्कारन के छटा लउकेला. सभे छठ मैया के शरण में जा के मन के तृप्त करे के गोहार लगावत नजर आवेला. लोग-संस्कृति में देवी-देवता से ले के प्रकृति लेऽ पूजा-उपासना के परब-त्योहार ले तऽ बड़ले बा बाकिर थाती के रूप में आज छठ प्रस्तुत बा. लोक-जीवन के ओही पर्वन में सूर्योपासना खातिर छठ के एगो अलगे महत्त्व हऽ. छठ व्रत सूर्य षठी के होला जवना कारने एहके नाम छठ पड़ गइल. वइसे तऽ ई पर्व साल में दू बेर मनावल जाला बाकिर कातिक अँजोर के छठी पर मनावे जाए वाला ईऽ छठ सबसे प्रसिद्ध आ लोकप्रिय हऽ. परिवार के सुख-समृद्धि आ अनेक मनौतीअन के फल प्राप्ति खातिर ई पर्व मनावल जाला. ई पर्व मरद-मेहरारू सभे एक्के लखां मनावे ला. ई एको पहिलका पर्व ह जवना में उगत सुरुज के पहिले डूबतो सुरुज के आराधना होला. अरघ दिआला. छठ गीत से वातावरन एगो अलगे दुनिया के सिरजना करेला. सांस्कृतिक पहिचान के साथे श्रद्धापूर्ण संसार के रचेला. बेर-बेर सुने के मिलेला –
केरवा के पात पर उगे ले सुरुजमल झाके-झूके
ए करेलू छठ बरतिया कि झाके-झूके
छठ व्रत के संबंध में कहल जाला कि लोग माई छठ के पहिलका पूजा सूरजे भगवान कइले रहले. अगर विज्ञान के आंख से देखल जाव तऽ एह छठ पर्व के परंपरा में बहुत विज्ञान बा. खगोल विज्ञान के मानी तऽ षष्ठी तिथि अपने आपे में एगो विशेष खगोलीय अवसर हऽ. ओह दिन सूर्यदेव के पराबैगनी किरीन धरती के तल पर कुछ अधिक मात्रा में जमा हो जाली. इहो कहल जाला कि परब के पालन से सूरूज के पराबैगनी किरन के हानिकारक प्रभाव से जीव-जंतुअन के रक्षा संभव बा. सूरूज के किरीन धरती पर पहुंचला से पहिले वायुमंडल में प्रवेश करे से पहिले आयन मंडल से मिलेले. ऊँहवे पराबैगनी किरीन के उपयोग कऽ केऽ वायुमंडल अपना ऑक्सीजन तत्त्वन के संश्लेषित कऽ के ओकरा एलोट्रोप ओजोन में बदल देला. तब धरती पर एकर असर कम हो जाला. ज्योतिष के गिनती के अनुसार ई घटना कार्तिक आ चइत मास के अमावसा के छह दिन बाद पड़ेला.
एह तरे कार्तिक शुक्ल के छठी के दिने मनावल जाये वाला ई पर्व हर तरह से एगो पवित्र पर्व हऽ. साँच तऽ ई हऽ कि पहिले एह व्रत के खाली औरतें लोग करत रहल, बाकिर अब ढेर तादात में पुरुषों लोग सहभागिता लेबे लागल बाऽ. जइसन कि पहिलहूं कहल गइल बा, एह व्रत के सबसे अधिका उद्देश्य बेटा पावल, बेटा के दीर्घायु भइल रहल बा बाकिर आज तऽ ई व्रत सगरो कामना के पूरा करे खातिर मनावल जाला. आज के समय में ना बेटा-बेटी में भेद रहल आ ना छठ के एगो उद्देश्य. सच्चाई तऽ ई हऽ कि छठ माई के ई पावन व्रत भगवान भाष्कर के व्रत हऽ. भगवान भाष्करे के अरघा देहला के बाद व्रती लोग पारना करेला लोग. छठ व्रत के विधि का हऽ, ओकर सगरो विधान पूजा करत, तैयार करत के अवसर पर गावे वाला गीतन में सोंझहे लउके ला. सँचको बात ईहे हऽ कि लोक-उत्सवन के असली उमंग तऽ ओह अवसरन पर गाए जाए वाला गीतन के विविध रंगे से फूटेला. अदितमल से अरज करत औरत जब अपना दयनीय दशा के वर्णन करेली तऽ सुने वाला मनइयो के करेजा पसीजे लागेला। एगो गीत रउरो देखीं ना, –
काल्ह के भुखले तिरियवा
अरघ लिहले ठाढ़ऽ।
हाली-हाली उग ये अदितमल,
अरघा जल्दी दियावऽ।।
छठ व्रत में पारना के एक दिन पहिले वाला सांझ के बेरा डुबत अदितमल के, आ ओह दिन उगत अदितमल के, व्रती अरघा अर्पित करेला लोग. सूर्य देव के अरघा देबे के प्रक्रिया नदी, पोखरा आ तालाबन के किनारे पूरा कइल जाला. छठ के गीतन में गंगा जी के स्वच्छ आ झिलमिल जल के वर्णन मिलेला. एगो चित्र देखीं. देखीं ना, एगो भक्त परिवार छठ माई के पूजा करे नाव से घाट पर जाता. गंगा जी के झिलमिल पानी से चित्र और निखर जाता –
गंगा जी के झिलमिल पनिया
मम
ये कवना देई के साथ।
गोदिया में आवेलें कवन पूत
ये छठी मइया के घाट।।
लोक-जीवन के एह महान उत्सव खातिर कुछ दिन पहलहीं से सामान के व्यवस्था होखे लागेला. ई लोक-व्यवस्था के समरसता देखीं कि छठ पूजा में लागे वाला अधिकतर सामान प्रकृतिए के गोद से मिलेला. या तऽ ऊऽ सब प्रकृति देवी देली आ नाहीं तऽ कृषि आधारित होलाॉ. कहीं से केरा, कहीं से नेबुआ, कहीं से दही, सेब, सिंघाड़ा, ऊँख, हरदी, आदी, कोंहड़ा, चिउरा, ओल, सुथनी. ईऽ सगरो सामान आस-पड़ोस, सगा-संबंधी से मिल जाला. छठ के गीतन में तऽ ईहो वर्णन मिलेला कि घरे आवे वाला हीतो-नात अरघा के सामान जुटावेला लोग. देखीं –
कवन देई के अइले जुड़वा पाहुन,
केरा-नारियर अरघर लिहले।
भोजपुरी लोकमन ईहां के मटिए जइसन उर्वर आ निर्मल बाऽ. जेऽ तरे लोग के पावन मन में अनगिनत लालसा के जनम होला, ठीक ओही तरे भारत के माटियो पर किसिम-किसिम के फल-फूलन के ऊपज होला. भारत के धरती अनगिनत फल-फूल, धन-धान्य से भरल धरती हऽ. ई रतनन से भरल वसुन्धरा माई हमनी के सबकुछ दे देलीऽ. हर तरह से संपन्न करेली. हमनी के सुख-दुख, हँसी-खुशी, उछाह-उमंग, सबके ध्यान राखेली. आजुओ ईहां के गाँवन में, जहवां रेंगनी के कांट से जीभ छेंद के भाई के बचावे खातिर सरपला के व्रत भैया-दूज चाहे भाई-टीका होखे भा छठ, पिड़िया, बहुरा, पनढरकउआ आदि लोक व्रत-त्योहार लोक उत्सव के रूप में जीवित बा, ओह मौका खातिर सामानन के व्यवस्थवो सोंचल जाला. शहर के गति से पिछुआइल हमनी के गांवन में कातिके-अगहन नाऽ, सालो भर मौसम के अनुसार फल-फूल, साग-सब्जी के मनमौजी लता-लड़ी बेसुध होके घरन के छत-छान्ह पर पसरल रहेली आ अपना उन्मादल हरिहरी से मानव-मन के आकर्षित करत रहेली. कवनो गांव में चलऽ जाईं, हर जगह लौकी, कोंहड़ा, घेंवड़ा, तिरोई आ चाहें नेबूआ, केरा, हरदी, ओल, कोन, सुथनी के आकर्षण लउके ला. सगरो व्यवस्था मोहबे करेला, –
केरेवा जे फरेला घवद से,
ओहपर सुगा मेरड़ाय,
सुगवा के मरबो धनुष से,
सुगाा गिरे मुरछाय।
लोक जीवन! माने सहजता के जीवन. एह सहजता में अपनत्व बाऽ, प्रेम बाऽ आ समर्पण बाऽ. व्रत-त्योहारन के अवसर पर गावे जाए वाला गीतीयनो में लोक-जीवन के आशीष, प्रेम, अपनत्व, सहयोग, समरसता के सथवे अमरख आ बैरो के स्वरूप मिल जाला. एह आधार पर छठ के सामाजिक समरसता के व्रत कहल जाव त सबसे सही रही. सचहूं, छठ के कारने बैर बिला जाला, नेह समा जाला. बैर आ बाउर नजरी के डरो लउकेला –
काँच ही बाँस के बहँगिया
बहँगी लचकत जाय।
बाट जे पूछेला बटोहिया
ई बहँगी केकरा घरे जाय?
आँख तोर फूटो रे बटोहिया
ई बहँगी कवन बाबू के घरे जाय।।
छठ के गीतन के सांस्कृतिको पक्ष अद्भुत बाऽ. कहीं पार्वती माता शिव जी की फूलवारी से फूल तुरत लउकेली तऽ कहीं मालीन अपना काम में लीन. सभे श्रद्धा के भाव से छठ माई के पूजा-अर्चना में लीन भइल रहेला. अगर छठ माई के व्रत-पूजा के सामानन के व्रत-पूजा कहल जाव तऽ कतहीं से गलती ना होई. एह व्रत में हर किसीम के सामानन के व्यवस्था कइल जाला. एह व्रत में सामाजिक सहयोग के कवनो सीमा ना रहेला. ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, छोट-बड़, आपन-बीरान के सगरो भेद-भाव के आडंबर से परे हो के सभे उत्सव के सहयोग में जुट जाला. आनन्द आ उछाह के निमित्त बन जाला. सभे सबके मंगल के याचक बन जाला. एगो गीत देखीं ना, –
महादेव के लगाावल फूलवरिया
गउरा देई फूल लोढ़े जाय,
लोढ़त-लोढ़त गउरा धूपि गइली
सुति गइली अँचरा बिछाय।
आज के बेगवान समाज के बौद्धिक स्तर भले ऊंच हो ताऽ, बाकिर आज के जन मानस में बेटा-बेटी के प्रति सोच बदलत लउकता. आज के समय में खाली सुहाग के जोड़ा, बांह में चूड़ी, मांग में सेनूर लगवले में नारी के नारीत्व पूरा ना होला. पहिले तऽ बेटा खातिर औरत लोग कवनो उद्यम करे खातिर तैयार रहत रहे लोग, आज बेटा-बेटी में भेद के सोंच बदलल बा. ई सोच औरते लोग के कारन बदलल बाऽ. सचहूं औरत लोग अदम्य साहस के अक्षय-कोष हऽ लोग. एगो औरत के चित्रण देखीं जवन खाली पांच गो बेटा पाऽ के संतुष्ट हो जइहें. छठ के गीतन में ईहो मनोभाव देखे के मिलेला, –
खोंइछा अछतवा गड़ुअवा जुड़ पानी,
चलेली कवन देई अदितमल मनावे।
थोर नाहीं चाहीं अदितमल, बहुत माँगीले ना,
पाँच पूत ये अदितमल हमरा के देतीं।
भले आज अत्याधुनिक सभ्यता आ श्रेष्ठ शिक्षा के चमत्कार के कारन अपना प्राचीन धारणा आ विश्वासन में वैज्ञानिक आ तार्किक परिवर्तन भइल बाऽ, बाकिर भोजपुरी के लोक-संस्कृति के कलकल करत नदी के धारा आजुओ अपना पहिलके गति से बह रहल बा. लोग आजुओ ओही तरे छठ के व्रत राखता आ अपना मन के कामना के पूरा होखे खातिर छठ माई के विधिवत पूजा-व्रत राखत बा लोग. एही कारने देश में रोज राजनैतिक, सामाजिक आ आर्थिक व्यवस्था के साथे धार्मिक परिवर्तन होत बाऽ तऽ काऽ, आजुओ छठ मइया के प्रति आस्था बढ़ते बुझाता. खाली बुझाते नइखे, सच्चाइयो सिद्ध होऽ ता कि छठ सामाजिक समरसता के व्रत हऽ. छठ सांस्कृतिक संपन्नता आ वैभव के व्रत हऽ. छठ पावनता के व्रत हऽ.
जब तथाकथित बुद्धिजीवी लोग से सामाजिक शोषण के महागाथा सुनेनी तऽ क्षोभ होला. क्षोभ एह बात के कि कबो भइल होई शोषण, बाकिर आजु तऽ अपना समाज के जवन रूप लउकत बा, ऊ त दोसरे तथ्य उजागर करेला. आजु तऽ खाली छठ व्रत के देखि के डंका के चोट पर कहल जा सकेला कि ई व्रत सामाजिक व्यवस्था में एकरूपता, समरसता आ भाईचारा के व्रत हऽ. सामाजिक व्यवस्था के व्रत हऽ.
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FIRST PUBLISHED : November 17, 2023, 10:14 IST