हाइलाइट्स
बिहार में नीतीश कुमार को अपने पाले में करने की भाजपा-राजद में होड़ रहती है.
राजनीति के जानकारों की नजर में सीएम नीतीश कुमार जरूरी भी और मजबूरी भी.
बिहार में नीतीश कुमार की राजनीति का आधार कुर्मी-कोइरी वोट बैंक पर टिका है.
पटना. बिहार की राजनीति के लिए नीतीश कुमार जरूरी भी हैं और मजबूरी भी. राजनीति के जानकारों के लिए ऐसा कहने का आधार भी है क्योंकि बीते दो दशक में बिहार की राजनीति में अब तक यही देखा गया है कि नीतीश कुमार जिधर भी जाते हैं उस गठबंधन का पलड़ा भारी हो जाता है. इसके साथ ही यह भी साफ है कि नीतीश कुमार की पार्टी जदयू की अकेली कोई बहुत ताकत नहीं है, लेकिन जब किसी के साथ होती है तो उस गठबंधन की ताकत कई गुना बढ़ जाती है.
बिहार के संदर्भ में ये बात वर्ष 2005, 2010 और 2015 के विधानसभा चुनाव और 2009, 2019 के लोकसभा चुनाव में साबित भी हुई है. 2005 में जहां भाजपा और जदयू (नीतीश कुमार) की ताकत एक हुई तो लालू यादव और राबड़ी देवी की 15 साल की सत्ता को उखाड़ फेंका. इन दोनों (जदयू-भाजपा) ही दलों ने 2010 में विधानसभा चुनाव फिर साथ लड़ा और दो तिहाई से अधिक बहुमत के साथ बिहार की सत्ता में फिर काबिज हो गई. खास बात यह कि इन दोनों ही चनाव में नीतीश कुमार ही चेहरा रहे.
वर्ष 2015 में हालात बदले और जदयू ने राजद के साथ गठबंधन कर लिया. यहां भी नीतीश कुमार का पाला बदलने का बड़ा असर दिखा और 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी आरजेडी के साथ हुई तो अपार बहुमत से जीत हासिल हुई. 2015 में दोनों का महागठबंधन सफल रहा था, तब राष्ट्रीय जनता दल 80 सीटों के साथ बड़ी पार्टी रही थी और जनता दल यूनाइटेड को 71 सीटें मिली थीं. लेकिन, यहां भी चेहरा सीएम नीतीश कुमार ही थे. लेकिन, राजनीति के जानकार कहते हैं कि फेस नीतीश जरूर थे, लेकिन रियल फैक्टर लालू प्रसाद यादव थे.
जदयू के इन खास फैक्ट्स पर नजर डालिए
जदयू और भाजपा की संयुक्त शक्ति लोकसभा चुनाव में भी दिखी है. वर्ष 2009 और 2019 में भाजपा जदयू ने साथ चुनाव लड़ा था. वर्ष 2019 में बिहार की 40 लोकसभा सीटों में जदयू ने 25 और भाजपा ने 15 सीटों पर चुनाव लड़ा था. इसमें जदयू ने 20 और भाजपा ने 12 सीटें जीतीं. यानी जदयू ने 80% सफलता हासिल की. वहीं, वर्ष 2019 लोकसभा चुनाव में जदयू ने भाजपा और लोजपा के साथ गठबंधन करके बिहार में चुनाव लड़ा. गठबंधन को प्रचंड जीत मिली तथा बिहार की 40 सीटों में से 39 सीटें जीतीं. जानकारों की नजर में यहां भी बिहार में फेस नीतीश कुमार थे, लेकिन रियल फैक्टर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी थे.
अकेली जेडीयू की रहती है खस्ताहालत
हालांकि, सबसे बड़ा तथ्य यह है कि नीतीश कुमार किसी गठबंधन में होते हैं तो उनकी ताकत कई गुना बढ़ जाती है. लेकिन, अगर अकेले ताकत आजमाते हैं तो पासा उल्टा पड़ जाता है. तथ्यों पर नजर डालें तो वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में आरजेडी, जेडीयू और बीजेपी तीनों अलग-अलग चुनाव लड़ीं थीं. वर्ष 2014 में जदयू ने अपने दम पर 40 में 38 उम्मीदवार मैदान में उतार दिए. इस वर्ष 2014 में महज नालंदा और पूर्णिया की दो सीट ही जीत पाई थी.
वोट शेयर पर भी गौर कर लीजिए
वोट शेयर पर गौर करें तो बीजेपी को 29.90, आरजेडी को 20.50 और जेडीयू को 15.80 कांग्रेस को 8.60, एलजेपी को 6.50 प्रतिशत मत मिले थे. जबकि 2009 में जदयू-भाजपा की संयुक्त शक्ति में जदयू को 25 सीटों पर जहां 24.40 वहीं भाजपा को 15 सीटों पर 13.93 प्रतिशत मत मिले थे. साफ है कि दोनों की संयुक्त शक्ति मिली तो वोट प्रतिशत करीब 38 प्रतिशत हो गया. वहीं, 2014 जदयू अकेली लड़ी तो भाजपा तो बढ़ गई, लेकिन जदयू की ताकत घट गई.
नीतीश कुमार को क्यों चाहता है हर खेमा?
जाहिर है जदयू की अकेली ताकत बहुत नहीं है, लेकिन बिहार के राजनीतिक खेमों में हमेशा रस्साकशी चलती रहती है कि नीतीश कुमार उनके साथ में आ जाएं. आरजेडी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी भी अक्सर इस बात को दोहराते हैं और इसको समाजवादी आंदोलन से जोड़ते हुए लालू यादव और नीतीश कुमार की स्वाभाविक जुगलबंदी बताते हैं. वह यह भी मानते हैं कि हालात बदले तो जरूर हैं लेकिन, प्रदेश की सियासत में सबसे बड़े संतुलन के बहुत बड़े कारक (फैक्टर) नीतीश कुमार हैं.
सियासत के जानकार क्या कहते हैं?
वहीं, वरिष्ठ पत्रकार फैजान अहमद कहते हैं कि 2015 और 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने बड़ी जीत हासिल की है, लेकिन चेहरा नीतीश कुमार का नहीं बल्कि पीएम नरेंद्र मोदी थे, यह बात सबको मानना ही चाहिए. फैजान अहमद 2019 का जिक्र करते हुए कहते हैं कि एनडीए ने पहले तो बिहार में नीतीश कुमार का चेहरा एनडीए ने आगे किया, लेकिन जब राजनीतिक जमीन पर हालात पता लगा तो वे भी नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के नाम पर वोट मांगने लगे.
राजनीति को संतुलन करने के कारक नीतीश कुमार!
दूसरी ओर वरिष्ठ पत्रकार अशोक शर्मा कहते हैं कि इतने कम वोट बैंक के साथ नीतीश कुमार स्वयं बहुत मजबूत राजनीतिक ताकत तो नहीं हैं, लेकिन पिछड़ा चेहरा होना, कुर्मी व कोइरी और महादलित वोट का आधार, पंचायतों में आरक्षण, शराबबंदी और जीविकाकर्मियों को लेकर महिलाओं में उनकी विश्वसनीयता तथा उन्हें निर्णायक की स्थिति में ले आता है. ऐसे यह तो कहा ही जा सकता है कि वह जिस भी पाले में रहेंगे उसे बढ़त दिलाने का दम रखते हैं. विरोधी भाजपा और सहयोगी राजद दोनों के लिए वह जरूरी और मजबूरी हैं, यानी वह ऐसे जीरो में जिस किसी अंक के आगे जुड़ जाता है वह बड़ा हो जाता है.
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FIRST PUBLISHED : January 23, 2024, 12:53 IST