अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों से पहले होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की तारीखों का ऐलान हो गया है। चुनाव कार्यक्रम के ऐलान के साथ ही अब सबकी निगाह इस बात पर लग गयी है कि सत्ता का सेमीफाइनल कौन जीतेगा? सवाल यह भी है कि क्या जो सेमीफाइनल जीतेगा वही लोकसभा चुनाव भी जीतेगा? हम आपको बता दें कि जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की तारीखों का ऐलान हुआ है उसमें कांग्रेस के पास दो राज्यों- छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकार है तो वहीं भाजपा के पास मध्य प्रदेश में सरकार है। हालांकि पिछले विधानसभा चुनावों के बाद मध्य प्रदेश में कांग्रेस की ही सरकार बनी थी लेकिन आंतरिक मतभेदों के चलते कमल नाथ की सरकार गिर गयी थी और कांग्रेस विधायकों के दल बदल के चलते शिवराज सिंह चौहान एक बार फिर मुख्यमंत्री बन गये थे। इसके अलावा तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति की सरकार है तो वहीं मिजोरम में क्षेत्रीय दल मिजो नेशनल फ्रंट सत्ता में है।
बहरहाल, चुनावों की तारीखों के ऐलान के बाद सभी दलों के नेता अपनी अपनी जीत के दावे कर रहे हैं लेकिन देखना होगा कि जनता के मन में क्या है। आइये राज्यवार राजनीतिक हालात, मुद्दों और विभिन्न पार्टियों के समक्ष उपलब्ध अवसरों और चुनौतियों पर एक नजर डालते हैं-
छत्तीसगढ़
छत्तीसगढ़ में 2003 से 2018 के बीच 15 वर्षों तक शासन करने वाली भाजपा के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर के कारण कांग्रेस ने 2018 विधानसभा चुनाव में भारी जीत दर्ज की थी। कांग्रेस के पास वर्तमान में 90 सदस्यीय राज्य विधानसभा में 71 सीटें हैं। पार्टी ने आगामी चुनावों में भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली सरकार की किसान समर्थक, आदिवासी समर्थक और गरीब समर्थक योजनाओं के दम पर 75 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है। सत्ताधारी दल मुख्यमंत्री बघेल की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश में है क्योंकि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और ग्रामीण मतदाताओं पर उनकी अच्छी खासी पकड़ है।
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की ताकत के बारे में बात करें तो देखने को मिलता है कि राजीव गांधी किसान न्याय और गोधन न्याय योजना सहित कई कल्याणकारी योजनाओं का कार्यान्वयन, किसानों और ग्रामीण आबादी के लिए योजनाएं, बेरोजगारी भत्ता के अलावा समर्थन मूल्य पर बाजरा तथा विभिन्न वन उपज की खरीद कांग्रेस के पक्ष में मतदाताओं को आकर्षित कर सकती है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने स्थानीय लोगों में अपनी लोकप्रियता बढ़ाते हुए अपनी छवि ‘माटी पुत्र’ के रूप में विकसित की है। अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और ग्रामीण मतदाताओं पर उनकी अच्छी खासी पकड़ है। इसके अलावा, पिछले पांच वर्षों में पार्टी ने बूथ स्तर तक अपने संगठनात्मक ढांचे को मजबूत किया है। राजीव युवा मितान क्लब योजना से जुड़े करीब तीन लाख युवा, मतदाताओं को अपने पक्ष में गोलबंद करने में पार्टी की मदद कर सकते हैं। इस योजना का उद्देश्य राज्य के युवाओं को रचनात्मक कार्यों से जोड़ना, नेतृत्व कौशल विकसित करना और उन्हें उनकी सामाजिक जिम्मेदारियों के बारे में जागरूक करना है। कांग्रेस ने 2018 के बाद छत्तीसगढ़ में पांच विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में भी जीत हासिल की थी और राज्य में अपनी मजबूत स्थिति का अहसास कराया था।
इसे भी पढ़ें: चुनावी तारीखों के ऐलान का BJP-Congress ने किया स्वागत, अपनी-अपनी जीत का ठोका दावा
इसके अलावा, कांग्रेस की कमजोरियों की बात करें तो आपको बता दें कि पार्टी की राज्य इकाई में गुटबाजी और अंदरुनी कलह है। पिछले पांच वर्षों में, पार्टी में मुख्यमंत्री बघेल के धुर विरोधी टी.एस. सिंहदेव ने कई बार विद्रोह का झंडा उठाया है। आखिरकार पार्टी को इस साल की शुरुआत में उन्हें उपमुख्यमंत्री नियुक्त करके संतुष्ट करना पड़ा। वहीं, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम के भी बघेल के साथ अच्छे संबंध नहीं थे। हालांकि, कुछ महीने पहले ही उन्हें राज्य मंत्रिमंडल में शामिल किया गया। इन सबके बावजूद पार्टी में अंदरूनी कलह अभी भी बरकरार बताई जाती है। भूपेश बघेल सरकार राज्य में कोयला परिवहन, शराब बिक्री, जिला खनिज फाउंडेशन (डीएमएफ) कोष के उपयोग और लोक सेवा आयोग भर्ती में भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रही है। वर्तमान शासन के दौरान राज्य में धर्मांतरण, सांप्रदायिक हिंसा और झड़पों की कुछ घटनाएं हुईं, जिससे विपक्षी दल भाजपा को कांग्रेस पर हिंदू विरोधी होने का आरोप लगाने का मौका मिला।
कांग्रेस के पास अवसरों की बात करें तो आपको बता दें कि पिछले लगभग पांच वर्षों में भाजपा कांग्रेस पर प्रभावी हमला करने में विफल रही है। भाजपा में नेतृत्व का मुद्दा लगातार बना हुआ है। 2018 के विधानसभा चुनावों के बाद भाजपा ने अपने प्रदेश अध्यक्ष को तीन बार बदला है और पिछले वर्ष विधानसभा में अपने नेता प्रतिपक्ष को भी बदल दिया है। भाजपा ने रमन सिंह को भी लगभग दरकिनार कर दिया है, जो 2013 से 2018 के बीच मुख्यमंत्री रहे। इनके कार्यकाल में सरकार पर नागरिक आपूर्ति घोटाले और चिट फंड घोटाले का आरोप लगा। राज्य में कांग्रेस लगातार भाजपा पर निशाना साध रही है और दावा कर रही है कि उसके केंद्रीय नेतृत्व को राज्य में पार्टी के अग्रिम पंक्ति के नेताओं पर भरोसा नहीं है।
कांग्रेस के खिलाफ जो मुद्दे जा सकते हैं अगर उसकी बात करें तो आपको बता दें कि छत्तीसगढ़ में शराबबंदी और संविदा कर्मचारियों के नियमितीकरण सहित अधूरे वादे विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में लोगों के क्रोध का कारण बन सकते हैं। ‘मोदी फैक्टर’ जो भाजपा को प्रतिद्वंद्वी पार्टियों पर बढ़त दिलाता है। आम आदमी पार्टी (आप) और सर्व आदिवासी समाज (आदिवासी संगठनों का एक समूह) के चुनाव में ताल ठोंकने से कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लग सकती है। हम आपको बता दें कि वर्ष 2018 में चुने गए 68 कांग्रेस विधायकों में से कुल 35 पहली बार चुने गए थे और उनमें से अधिकांश अब अपने प्रदर्शन को लेकर जनता के विरोध का सामना कर रहे हैं। वैसे छत्तीसगढ़ में आमतौर पर भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस सबसे प्रमुख राजनीतिक दल माने जाते हैं। राज्य में कुछ अन्य राजनीतिक दल भी हैं लेकिन उनका प्रभाव कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित है। आदिवासी समुदायों की संस्था ‘सर्व आदिवासी समाज’ के चुनाव मैदान में आने से इस बार का चुनाव दिलचस्प हो सकता है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि इससे ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में सत्ताधारी दल को नुकसान हो सकता है। राज्य में आदिवासियों के हितों के लिए काम करने वाली गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (जीजीपी) भी चुनाव मैदान में है। हम आपको बता दें कि राज्य की आबादी में लगभग 32 प्रतिशत हिस्सेदारी जनजातीय समुदाय की है।
दूसरी ओर राज्य में भाजपा की बात करें तो आपको बता दें कि पार्टी अब चुनावी रणनीति के तहत सरकार को भ्रष्टाचार और कुशासन के मुद्दों पर घेरने की कोशिश कर रही है। भाजपा अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता पर भरोसा कर रही है। वहीं पार्टी के स्टार प्रचारक राज्य में अपनी यात्राओं के दौरान कई मुद्दों, विशेषकर भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस सरकार पर खुलकर हमले कर रहे हैं। कुछ महीने पहले तक भाजपा की राज्य इकाई जो गुटबाजी से ग्रस्त दिखाई दे रही थी पिछले कुछ महीनों में आक्रामक हो गई है। राज्य में चुनाव के करीब आते ही भाजपा के रणनीतिकार अमित शाह ने यहां कई बैठकें की है तथा प्रधानमंत्री मोदी की रैलियों में अच्छी भीड़ ने पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाया है। पिछले तीन महीनों में अपनी चार रैलियों के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने कोयला, शराब, गोबर खरीद और जिला खनिज फाउंडेशन (डीएमएफ) फंड के उपयोग सहित हर क्षेत्र और सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार तथा कथित घोटालों को लेकर कांग्रेस पर निशाना साधा है। प्रधानमंत्री ने भाजपा के सत्ता में आने पर भर्ती परीक्षा आयोजित करने वाले राज्य लोक सेवा आयोग (पीएससी) में कथित घोटाले की जांच कराने का भी वादा किया है। इधर, भाजपा ने यह भी आरोप लगाया है कि आदिवासी बहुल इलाकों में धर्मांतरण हो रहा है तथा दावा किया कि सरकार उन पर अंकुश लगाने में विफल रही है। राज्य में भाजपा ने अब तक 21 विधानसभा सीटों के लिए उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है, जबकि सत्ताधारी दल कांग्रेस ने अभी तक अपने उम्मीदवारों की घोषणा नहीं की है। दोनों प्रमुख दलों ने कहा है कि वे सामूहिक नेतृत्व के आधार पर चुनाव लड़ेंगे, न कि किसी एक राजनेता के चेहरे पर।
हम आपको बता दें कि पिछले चुनाव में कांग्रेस ने विधानसभा की कुल 90 सीटों में से 68 सीटें जीती थीं, जबकि भाजपा 15 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर रही थी। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी द्वारा स्थापित जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे) को पांच सीटें मिली थीं और उसकी सहयोगी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने दो सीटों पर जीत हासिल की थी। कांग्रेस को 2018 में 43.04 प्रतिशत मत मिले थे, जो भाजपा (32.97 प्रतिशत) से लगभग 10 प्रतिशत अधिक था।
तेलंगाना
माना जा रहा है कि तेलंगाना विधानसभा के लिए होने वाले चुनावों के लिए प्रचार अभियान के दौरान तेलंगाना राज्य लोक सेवा आयोग (टीएसपीएससी) की परीक्षाओं से जुड़े प्रश्नपत्र लीक मामले के अलावा दिल्ली आबकारी नीति मामले में भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) की विधान परिषद सदस्य के कविता पर लगे आरोपों, बीआरएस सरकार के ‘धरणी’ भूमि रिकॉर्ड पोर्टल से संबंधित शिकायतों और राज्य सरकार की कथित विफलताओं का मुद्दा छाया रह सकता है। वहीं, बीआरएस मतदाताओं को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए प्रेरित करने के वास्ते विकास और जनकल्याण के अपने ‘तेलंगाना मॉडल’ को प्रचारित करना जारी रखेगी। देखा जाये तो तेलंगाना में नौकरियों की कमी एक प्रमुख मुद्दा है, क्योंकि युवाओं ने नये राज्य में नौकरियां हासिल करने की उम्मीद के साथ अलग प्रदेश के गठन के लिए लड़ाई लड़ी थी।
कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का आरोप है कि बीआरएस सरकार ‘हर परिवार को नौकरी देने का अपना वादा’ निभाने में नाकाम रही है। दोनों पार्टियों का दावा है कि बीआरएस सरकार ने अपने कार्यकाल के दौरान पर्याप्त भर्तियां न करके तेलंगाना के युवाओं को निराश किया है। वे टीएसपीएससी द्वारा आयोजित भर्ती परीक्षाओं के प्रश्नपत्र लीक होने के लिए भी सरकार को कसूरवार ठहरा रही हैं। प्रश्नपत्र लीक की घटनाओं ने तेलंगाना को हिलाकर रख दिया था। कांग्रेस और भाजपा ने इस साल मार्च और अप्रैल के दौरान बीआरएस सरकार के खिलाफ कई विरोध-प्रदर्शन किए थे। दोनों दलों ने बेरोजगारी भत्ता प्रदान करने के अपने चुनावी वादे को पूरा नहीं करने के लिए भी बीआरएस सरकार की आलोचना की थी।
इसके अलावा, कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि दिल्ली आबकारी नीति घोटाला मामले में सत्तारुढ़ पार्टी की विधान परिषद सदस्य और मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की बेटी के कविता पर लगे आरोपों के संबंध में बीआरएस और भाजपा के बीच एक मौन सहमति है। हम आपको बता दें कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने इस मामले में कविता से भी पूछताछ की है, जिससे कांग्रेस और भाजपा को मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव के नेतृत्व वाली बीआरएस सरकार पर हमला करने का एक हथियार मिल गया। यही नहीं, एकीकृत भूमि रिकॉर्ड प्रबंधन प्रणाली ‘धरणी’ को लेकर भी बीआरएस सरकार को कांग्रेस और भाजपा की कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा है। ऐसे में प्रचार अभियान के दौरान ‘धरणी’ के खराब कार्यान्वयन का मुद्दा भी प्रमुखता से उठने की उम्मीद है। कांग्रेस ने ‘धरणी’ को लेकर सरकार पर भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और विफलताओं का आरोप लगाया है। कांग्रेस नेताओं ने दावा किया है कि बड़ी संख्या में छोटे और सीमांत किसानों के परिवारों के भूमि रिकॉर्ड को ऑनलाइन प्रणाली में शामिल नहीं किया गया है।
तेलंगाना में विरोधी दल जिन अन्य मुद्दों को लेकर बीआरएस सरकार को निशाना बना सकते हैं, उनमें गरीबों के लिए दो बेडरूम वाले घर बनाने, ‘हर परिवार को नौकरी देने’ और दलितों का कल्याण सुनिश्चित करने के पार्टी के चुनावी वादे शामिल हैं। कांग्रेस और भाजपा का मानना है कि बीआरएस सरकार ने अपने कार्यकाल के दौरान प्राप्त आवेदनों की संख्या की तुलना में गरीबों के लिए कम दो बेडरूम वाले घर बनाए हैं। कांग्रेस का आरोप है कि बीआरएस की प्रमुख दलित कल्याण योजना ‘दलित बंधु’ से जमीनी स्तर पर ज्यादातर लोगों को लाभ नहीं हुआ। वहीं, भाजपा का दावा है कि बीआरएस सरकार का वादे के मुताबिक दलितों को तीन एकड़ जमीन वितरित करने में नाकाम रहना भी एक बड़ा चुनावी मुद्दा होगा।
हम आपको यह भी बता दें कि हाल ही में कांग्रेस ने हैदराबाद में एक जनसभा के दौरान तेलंगाना के लिए छह चुनावी ‘गारंटी’ की घोषणा की थी। पार्टी इन घोषणाओं के जरिये जमीनी स्तर के मतदाताओं के बीच पैठ बनाना चाहती है। पड़ोसी राज्य कर्नाटक में किए गए इसी तरह के वादों के बलबूते कांग्रेस को इस साल मई में वहां आयोजित विधानसभा चुनावों में भाजपा को करारी शिकस्त देने और सत्ता में वापसी करने में मदद मिली थी।
दूसरी ओर, बीआरएस अध्यक्ष और मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने जोर देकर कहा है कि प्रति व्यक्ति आय के मामले में तेलंगाना देश में शीर्ष पर है। पार्टी नेता बीआरएस सरकार में राज्य में हुई प्रगति को दर्शाने के लिए अक्सर ‘मिशन भगीरथ’ का जिक्र करते हैं, जिसके तहत घरों में पाइप से पीने के पानी की आपूर्ति की जाती है। राज्य सरकार ने दावा किया है कि मुख्यमंत्री राव के दिमाग की उपज इस पहल के तहत हर घर में पाइप से पीने का पानी पहुंचाया जा रहा है। सामाजिक सुरक्षा पेंशन में बढ़ोतरी, किसानों के लिए ‘रायथु बंधु’ निवेश सहायता योजना और ‘रायथु बीमा’ जीवन बीमा योजना, ‘कल्याण लक्ष्मी’ एवं ‘शादी मुबारक’ जैसी विवाह सहायता योजना तथा कृषि क्षेत्र को हफ्ते में सातों दिन चौबीस घंटे मुफ्त बिजली आपूर्ति उन योजनाओं में शामिल है, जिनके जरिये बीआरएस अपनी उपलब्धियां गिनाने की कोशिश करेगी। बीआरएस केंद्र में सत्तारुढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) और भाजपा की कथित सांप्रदायिक राजनीति तथा आंध्र प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम के तहत तेलंगाना से किए गए वादों को पूरा नहीं करने को लेकर बेहद आलोचनात्मक रही है।
तेलंगाना में भाजपा की बात करें तो पिछले तीन साल में कुछ उपचुनाव और वृहद हैदराबाद नगर निगम चुनाव जीतने के बाद आंतरिक कलह का सामना करना पड़ा। अंसतुष्टों को शांत करने की कवायद के रूप में पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के स्थान पर बंदी संजय कुमार को हटाकर केंद्रीय मंत्री जी किशन रेड्डी को नियुक्त करना पड़ा। भाजपा की ताकत, कमजोरियों, अवसरों और चुनौतियों का विश्लेषण करने के दौरान अगर भाजपा की ताकत के बारे में बात करें तो राज्य में पार्टी द्वारा बरकरार साफ छवि उसे फायदा पहुंचा सकती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता और राज्य में पार्टी की राजनीतिक स्फूर्ति उसकी ताकत बन सकती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरआरएस) से संबद्ध विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और बजरंग दल जैसे संघ परिवार से समर्थन मिलेगा।
भाजपा की कमजोरियों की बात करें तो आपको बता दें कि कई निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा के पास मजबूत संगठनात्मक ढांचे का अभाव है और सभी 119 विधानसभा सीटों पर मजबूत उम्मीदवार न होना भी उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है। इसके अलावा स्थानीय ईकाई की प्रत्येक फैसले के लिए केंद्रीय नेतृत्व पर निर्भरता है। लोगों के बीच यह प्रबल भावना है कि भाजपा और बीआरएस के बीच एक मौन साझेदारी है। बंदी संजय को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाना एक कमजोरी के रूप में देखा जाता है। राज्य इकाई में ऐसा कोई नेता नहीं है जो मुख्यमंत्री केसीआर के कद का मुकाबला कर सके।
भाजपा के लिये अवसरों की बात करें तो पार्टी कुछ उपलब्धियों पर दावा जता सकती है जैसे कि महिला आरक्षण विधेयक पारित होना और 17 सितंबर को तेलंगाना मुक्ति दिवस के रूप में मनाना। वह सत्तारुढ़ गठबंधन में स्थानीय नेतृत्व के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों को भी उठा सकती है। केसीआर की बेटी कविता की दिल्ली आबकारी घोटाले मामले में कथित भूमिका का मुद्दा भी उठा सकती है।
भाजपा की चुनौतियों की बात करें तो कर्नाटक चुनाव के बाद उसकी राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस तेलंगाना में बीआरएस के एक विकल्प के रूप में उभरी है। इसके परिणामस्वरूप सत्ता विरोधी वोट कांग्रेस के पाले में जा सकते हैं। कांग्रेस का प्रचार अभियान भाजपा और बीआरएस के बीच कथित मौन साझेदारी के इर्द-गिर्द हो सकता है। भाजपा को इससे प्रभावी रूप से निपटने की आवश्यकता है। कांग्रेस अपने प्रमुख चुनावी मुद्दों में से एक के रूप में इसका इस्तेमाल कर सकती है। इसके अलावा, सभी 119 निर्वाचन क्षेत्रों में मजबूत नेतृत्व का अभाव है। कुछेक नेताओं को छोड़कर पार्टी में लोगों को आकर्षित करने वाले नेताओं की कमी है।
इसके अलावा, यह भी देखने को मिलता है कि तेलंगाना में सत्तारुढ़ भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) को 30 नवंबर को होने वाले विधानसभा चुनाव के दौरान सत्ता विरोधी लहर से जूझना पड़ सकता है जबकि नए रूप और आत्मविश्वास में नजर आ रही कांग्रेस और आक्रामक भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) उसे चुनौती देने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगी। बीआरएस निवेश और कानून-व्यवस्था के क्षेत्र में अपने ट्रैक रिकॉर्ड पर सवार होकर चुनावी जीत की हैट्रिक लगाना चाहेगी। पहले तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के नाम से जानी जाने वाली मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के नेतृत्व वाली बीआरएस को साल 2014 (अविभाजित आंध्र प्रदेश में) और फिर 2018 में हुए चुनाव में जीत हासिल हुई थी। विपक्षी दलों ने विभिन्न सरकारी परियोजनाओं में भ्रष्टाचार के आरोप लगाए हैं।
बीआरएस की मजबूती की बात करें तो केसीआर को तेलंगाना के लिए राज्य का दर्जा दिलाने वाले एकमात्र व्यक्ति के रूप में पहचाना जाता है। रायतू बंधु और केसीआर किट्स जैसी कुछ सरकारी योजनाओं से उनका समर्थन बढ़ा है। उनकी सरकार बनने के बाद से राज्य में ग्रामीण और शहरी बुनियादी ढांचे और स्वास्थ्य देखभाल में उल्लेखनीय बदलाव आया है। चुनाव कार्यक्रम जारी होने से पहले ही पार्टी के उम्मीदवारों की घोषणा कर दी गई, जिससे बीआरएस उम्मीदवारों को बढ़त मिल गई। बीआरएस सरकार को निवेशकों के लिहाज से अनुकूल माना जाता है, और राज्य में पार्टी के पिछले नौ वर्ष के शासन में भारी निवेश हुआ है। केसीआर ने एक स्थिर सरकार का नेतृत्व किया है, जिसका राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने का ठोस ट्रैक रिकॉर्ड है। हैदराबाद में राज्य की कुल आबादी का लगभग एक-चौथाई हिस्सा रहता है, इस शहर को केसीआर के बेटे और आईटी मंत्री केटी रामा राव की प्रत्यक्ष देखरेख में एक वैश्विक शहर के रूप में मान्यता मिली है। पिछले नौ वर्षों में पार्टी का संगठनात्मक ढांचा जमीनी स्तर पर मजबूत हुआ है। बीआरएस के पास धन की कोई कमी नहीं है। पार्टी के पास अल्पसंख्यक वोटों का ठोस आधार है।
बीआरएस की कमजोरियों की बात करें तो पार्टी के कई मौजूदा विधायक पार्टी के भीतर सत्ता विरोधी लहर और असंतोष का सामना कर रहे हैं। केसीआर पर लगे ‘पारिवारिक शासन’ के आरोप और उनकी बेटी के. कविता के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप चुनावी मुद्दा बन सकते हैं। कर्नाटक विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की शानदार जीत ने राजनीतिक कहानी बदल दी है, जिसे लेकर पार्टी आत्मविश्वास से भरी हुई है, वहीं कर्नाटक में हार से आहत भाजपा उतनी ताकतवर नहीं दिख रही है। इससे वोटों का विभाजन कम होने पर विरोधी वोट कांग्रेस के खाते में जा सकते हैं।
बीआरएस के पास अवसरों की बात करें तो विपक्षी दलों का अपेक्षाकृत कमजोर होना बीआरएस को एक अवसर दे सकता है क्योंकि कांग्रेस से जुड़े कई नेताओं और विधायकों ने पाला बदल लिया है। कांग्रेस और भाजपा दोनों अंतर्कलह से जूझ रही हैं। भाजपा ने वह लय खो दी जो पार्टी के पूर्व प्रमुख बी. संजय कुमार ने बनाई थी। उनकी जगह केंद्रीय मंत्री किशन रेड्डी को लाया जाना स्थानीय स्तर पर पार्टी के लिए कमजोरी के रूप में देखा जा रहा है। यदि विपक्षी वोट कांग्रेस और भाजपा के बीच समान रूप से विभाजित हो जाता है, तो त्रिकोणीय मुकाबला बीआरएस के लिए फायदेमंद होगा।
बीआरएस की चुनौतियों पर बात करें तो अडिग भाजपा और उसका सख्त नेतृत्व बीआरएस के लिए चुनौती पैदा कर सकता है। एससी और एसटी को कृषि भूमि और दो-बेडरूम आवास योजना जैसी कुछ योजनाएं अधूरी हैं। विपक्ष इसे चुनावी मुद्दा बना सकता है। दलित बंधु योजना, जिसके तहत एससी परिवारों को 10 लाख रुपये दिए जाते हैं, अन्य वर्गों में असंतोष पैदा कर सकती है। कविता का नाम दिल्ली आबकारी नीति मामले में ईडी द्वारा दायर आरोप पत्र में उल्लेखित है। इससे पार्टी को परेशानी हो सकती है। पार्टी का नाम टीआरएस से बदलकर बीआरएस करने को तेलंगाना की पहचान को छोड़ने के रूप में पेश किया जा सकता है। पार्टी तेलंगाना के नाम पर ही अब तक राजनीति करती आई है। जनता के बीच यह आम धारणा है कि बीआरएस और भाजपा के बीच एक मौन सहमति है, जिससे पार्टी की चुनावी संभावनाओं को नुकसान पहुंच सकता है। टीएसपीएससी पेपर लीक को न रोक पाने के लिए भी बीआरएस को दोषी ठहराया गया है।
राजस्थान
सरकार के खिलाफ ‘सत्ता विरोधी’ लहर से लेकर कानून व्यवस्था सहित अनेक मुद्दे हैं जो राजस्थान में आगामी विधानसभा चुनाव में ‘प्रमुख कारक’ बन सकते हैं। राज्य की अशोक गहलोत सरकार ने राज्य में फिर बाजी मारने के लिए पिछले कुछ महीने से कड़ी मेहनत की है और कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) बहाल करने सहित आम लोगों के लिए अनेक योजनाओं की घोषणा की है। सरकार ने चुनाव आचार संहिता लगने से ठीक पहले ‘जातिगत सर्वेक्षण’ कराने का दांव भी चला। राज्य में एक ही चरण में 23 नवंबर को मतदान होगा जबकि वोटों की गिनती तीन दिसंबर को होगी।
राज्य के विधानसभा चुनाव में यह प्रमुख मुद्दे हो सकते हैं-
सत्ता विरोधी लहर: राज्य में 1993 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद का इतिहास कहता है कि उसके बाद हर विधानसभा चुनाव में एक बार कांग्रेस तो एक बार भाजपा को सत्ता की बागडोर मिलती रही है। यानी कोई भी पार्टी लगातार दो बार सरकार नहीं बना पाई। इस ‘परिपाटी’ के लिहाज से इस बार सत्ता में आने की ‘बारी’ भाजपा की है।
गुटबाजी: चुनावों से पहले, कांग्रेस नेता अशोक गहलोत और सचिन पायलट ने अपने मतभेदों को कम से कम फौरी तौर भले ही दरकिनान कर दिया हो लेकिन राज्य में ‘मुख्यमंत्री पद’ के लिए उनका संघर्ष वर्षों से राजस्थान में पार्टी को कमजोर कर रहा है। अगर भाजपा पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और उनके प्रति वफादार नेताओं को नजरअंदाज करेगी तो उसे भी दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है।
ओपीएस, सामाजिक कल्याण योजनाएं: कांग्रेस का चुनाव अभियान राज्य में अपनी सरकार द्वारा पुरानी पेंशन योजना को फिर से शुरू करने पर जोर देगा। ओपीएस बहाली का फायदा राज्य के लगभग सात लाख सरकारी कर्मचारियों और उनके परिवारों को प्रभावित करेगा। इसके अलावा गहलोत की कुछ चर्चित कल्याणकारी योजनाओं में चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत 25 लाख रुपये का बीमा, शहरी रोजगार गारंटी योजना, सामाजिक सुरक्षा के रूप में 1,000 रुपये की पेंशन और उज्ज्वला योजना के लाभार्थियों के लिए केवल 500 रुपये में रसोई गैस सिलेंडर शामिल हैं।
कानून और व्यवस्था: कानून व्यवस्था को लेकर मुख्य विपक्षी दल भाजपा हाल ही में राज्य सरकार पर काफी आक्रामक रही है। भाजपा विशेष रूप से महिलाओं के खिलाफ अपराधों को मुद्दा बना रही है। लेकिन कांग्रेस सरकार का कहना है कि जब भी ऐसी कोई घटना हुई उसने त्वरित कार्रवाई की।
पूर्वी राजस्थान नहर परियोजना: कांग्रेस ने बार-बार पूर्वी राजस्थान नहर परियोजना को ‘राष्ट्रीय परियोजना’ का दर्जा देने की मांग की है। इस योजना का उद्देश्य 13 जिलों की सिंचाई और पीने के पानी की जरूरतों को पूरा करना है। कांग्रेस का कहना है कि भाजपा पिछले चुनावों से पहले ईआरसीपी पर दिए गए आश्वासन से पीछे हट गई है। और वह इसी क्षेत्र से अपना चुनावी अभियान शुरू करने की योजना बना रही है।
सांप्रदायिक तनाव: भाजपा ने हिंदुत्व कार्ड खेलते हुए करौली, जोधपुर और भीलवाड़ा में सांप्रदायिक दंगों का मुद्दा उठाया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में उदयपुर में दर्जी कन्हैया लाल की हत्या मुद्दा उठाते हुए कहा कि सत्तारूढ़ कांग्रेस अपने ‘वोट बैंक’ को लेकर चिंतित रही है।
पेपर लीक: हाल के महीनों में शिक्षकों के लिए ‘रीट’ जैसी सरकारी भर्ती परीक्षाओं के पेपर लीक हो गए हैं। यह लाखों बेरोजगार युवाओं को प्रभावित करने वाला मुद्दा है। भाजपा के अलावा कांग्रेस के असंतुष्ट नेता सचिन पायलट ने भी इसे लेकर गहलोत सरकार पर निशाना साधा।
कृषि ऋण माफी: भाजपा ने कांग्रेस पर ऋण माफी का चुनावी वादा पूरा नहीं करने का आरोप लगाया जा रहा है। सरकार का दावा है कि उसने सहकारी बैंकों से लिए गए ऋण माफ कर दिए हैं, और अब यह केंद्र की जिम्मेदारी है कि वह वाणिज्यिक बैंकों से किसानों का बकाया माफ कराए।
शिक्षकों के तबादले: तृतीय श्रेणी के लगभग एक लाख शिक्षक अपनी पसंद के जिलों में तबादले की मांग कर रहे हैं। राज्य की कांग्रेस सरकार कहती रही कि वह इस पर एक नीति लाएगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
कांग्रेस व भाजपा के बीच सीधी लड़ाई
राजस्थान में पिछले लगभग तीन दशक से हर विधानसभा चुनाव में ‘सरकार’ बदलने की ‘परिपाटी’ है और यहां एक बार फिर सत्तारुढ़ कांग्रेस व विपक्षी भारतीय जनता पार्टी के बीच सीधा मुकाबला रहने की संभावना है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पिछले महीने कहा था कि राजस्थान में विधानसभा चुनाव में मुकाबला “बहुत करीबी” रहेगा। यह कहते हुए उन्होंने एक तरह से संकेत दिया कि वह राजस्थान में अपनी पार्टी के दोबारा सरकार बनाने को लेकर अन्य राज्यों की तुलना में अधिक आश्वस्त नहीं हैं। राज्य की ‘परिपाटी’ को देखते हुए हो सकता है कि कांग्रेस नेता का यह आकलन सही साबित हो।
राज्य में 1993 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद का इतिहास कहता है कि उसके बाद हर विधानसभा चुनाव में एक बार कांग्रेस तो एक बार भाजपा को सत्ता की बागडोर मिलती रही है। यानी कोई भी पार्टी लगातार दो बार सरकार नहीं बना पाई। इस ‘परिपाटी’ के लिहाज से इस बार सत्ता में आने की ‘बारी’ भाजपा की है। यह समीकरण उस समय बन रहा है जबकि भारतीय जनता पार्टी के नेता राज्य में ‘डबल इंजिन की सरकार’ बनाने की अपील कर रहे हैं ताकि केंद्र व राज्य में एक ही पार्टी की सरकार हो और विकास को गति दी जा सके। वहीं कांग्रेस नेताओं का दावा है कि इस बार राज्य का ‘रिवाज’ टूटेगा। यानी एक बार फिर कांग्रेस की सरकार आएगी। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कई बार कह चुके हैं कि पहली बार राज्य में सरकार के खिलाफ कोई ‘सत्ता विरोधी लहर’ देखने को नहीं मिली है। गहलोत पिछले कई महीनों से लगातार एक के बाद एक कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा कर काम पर जुटे हैं। वे बार बार दावा करते हैं कि उनकी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ राज्य के ‘हर गांव, हर परिवार’ तक पहुंचा।
गहलोत की कुछ चर्चित कल्याणकारी योजनाओं में ‘चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा योजना’ के तहत 25 लाख रुपये का बीमा, ‘शहरी रोजगार गारंटी योजना’, सामाजिक सुरक्षा के रूप में 1,000 रुपये की पेंशन और उज्ज्वला योजना के लाभार्थियों के लिए केवल 500 रुपये में रसोई गैस सिलेंडर शामिल हैं। उन्होंने पात्र लाभार्थियों को इन कल्याणकारी योजनाओं के लिए “महंगाई राहत शिविरों” में पंजीकरण करने के लिए प्रोत्साहित किया और योजनाओं को पूरा करने के ‘गारंटी कार्ड’ दिए।
वहीं राज्य सरकार के कर्मचारियों के लिए उन्होंने पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) का बड़ा दांव चला। यदि सरकारी कर्मियों के परिवारों को भी इसमें शामिल कर लिया जाए तो पुरानी पेंशन योजना की बहाली से लगभग 35 लाख लोगों को लाभ होगा। वहीं चुनाव के लिए आदर्श आचार संहिता लागू होने से ठीक पहले उन्होंने राज्य में जातिगत सर्वेक्षण कराने का आदेश दिया।
अपनी कल्याणकारी योजनाओं को पेश करने के अलावा कांग्रेस पूर्वी राजस्थान नहर परियोजना (ईआरसीपी) को एक प्रमुख मुद्दा बनाने के लिए तैयार है। पार्टी केंद्र पर ईआरसीपी को राष्ट्रीय परियोजना का दर्जा देने का अपना ‘वादा’ नहीं निभाने का आरोप लगा रही है। गहलोत आरोप लगाते रहे हैं कि केंद्रीय जल शक्ति मंत्री और जोधपुर से सांसद गजेंद्र सिंह शेखावत ने इसके लिए ‘पर्याप्त कोशिश’ नहीं की।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि राजस्थान में कांग्रेस में अंदरूनी खींचतान लगातार चलती रही है। मुख्यमंत्री गहलोत व उनके पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच राज्य में नेतृत्व को लेकर तनातनी कम होती नजर नहीं आ रही है। पायलट ने 2020 में पार्टी के दिग्गज गहलोत के खिलाफ खुला विद्रोह कर दिया था। और इसी साल, पायलट ने भ्रष्टाचार पर कार्रवाई करने में सरकार की “विफलता” को लेकर अप्रत्यक्ष रूप से गहलोत सरकार पर निशाना साधा। पायलट ने भर्ती परीक्षाओं के पेपर लीक होने को लेकर भी कांग्रेस सरकार को नहीं बख्शा। यह ऐसा मुद्दा था जिसे मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी भी भुनाने का प्रयास कर रही है। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने दोनों नेताओं में एक तरह का संघर्ष विराम तो करवा दिया है लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि यह ‘शांति’ पार्टी द्वारा आगामी विधानसभा चुनाव के प्रत्याशी चुनने के समय भी जारी रहेगी।
उधर भारतीय जनत पार्टी के हालात भी कोई अच्छे नहीं दिखते। पार्टी आलाकमान राज्य में किसी को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करने से भले ही बच रहा है लेकिर वसुंधरा राजे के समर्थक उन्हें फिर से इस पद के प्रमुख उम्मीदवार के रूप में देखते हैं। राजे दो बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। भाजपा के अब तक के प्रचार अभियान में अगर कोई एक चेहरा रहा है तो वह वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं। वह पहले ही राज्य में कई रैलियों को संबोधित कर चुके हैं, जिनमें से एक तो हाल ही में गहलोत के निर्वाचन क्षेत्र सरदारपुरा जोधपुर में हुई। मोदी ने इस जनसभा में पिछले साल जोधपुर में हुई सांप्रदायिक हिंसा का जिक्र करते हुए कांग्रेस सरकार पर “तुष्टिकरण” का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि कांग्रेस को राजस्थान के हित से ज्यादा अपना वोट बैंक प्यारा है।
राज्य में भाजपा की चुनाव रणनीति में “तुष्टिकरण” और हिंदुत्व अपील प्रमुख कारक हो सकता है। भाजपा कानून-व्यवस्था, खासकर महिलाओं के खिलाफ अपराधों को लेकर भी राज्य सरकार पर निशाना साधती रही है। और फिर कथित “लाल डायरी” का मामला है, जिसके बारे में दावा किया जाता है कि इसमें वित्तीय अनियमितताओं का विवरण था। गहलोत मंत्रिमंडल के बर्खास्त सदस्य राजेंद्र गुढ़ा का दावा है कि यह उनके पास है। राज्य के विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय लोकदल, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) द्वार भी कुछ सीटों उम्मीदवार खड़े करने की उम्मीद है।
लेकिन इतिहास के हवाले से विश्लेषक मानते हैं कि राजस्थान के विधानभा चुनाव दरअसल दो ही पार्टियों की ‘दौड़’ है। 2018 के विधानसभा चुनावों में 199 सीटों में से कांग्रेस को 99 व भाजपा को 73 सीटें मिलीं। अलवर जिले की रामगढ़ विधानसभा सीट पर बसपा प्रत्याशी के निधन के बाद चुनाव स्थगित कर दिया गया जो 28 जनवरी को हुआ। इसमें भी कांग्रेस ने बाजी मारी। वहीं अगले साल 2019 में लोकसभा चुनाव में भाजपा को 25 में से 24 सीटें मिलीं। बाकी एक सीट उसकी सहयोगी पार्टी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी आरएलपी के पास चली गई।
मध्य प्रदेश
मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिए तारीखों की घोषणा हो चुकी है। नवंबर में 17 तारीख को होने वाले चुनाव में यहां दस मुद्दों के प्रचार परिदृश्य पर हावी होने की संभावना है और ये मुद्दे 230 सदस्यीय विधानसभा के चुनाव के नतीजे तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। मप्र में सत्तारुढ़ भाजपा और विपक्षी कांग्रेस सत्ता के मुख्य दावेदार बने रहेंगे, हालांकि आम आदमी पार्टी (आप) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) जैसे संगठन अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में भारतीय राजनीति की दो दिग्गज पार्टियों (भाजपा और कांग्रेस) के सामने अपनी उपस्थिति दर्ज कराने और कड़ी टक्कर देने की कोशिश करेंगे। वर्ष 2018 में आखिरी चुनावों के बाद, राज्य में मार्च 2020 में तब सत्ता परिवर्तन देखने को मिला जब अनुभवी राजनेता कमल नाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार गिर गई और भाजपा सिर्फ 15 महीने तक विपक्ष में रहने के बाद सत्ता में वापस आ गई। दिसंबर 2018 से मार्च 2020 तक की 15 महीने की अवधि को छोड़कर (जब कांग्रेस सत्ता में थी), भाजपा को लगभग चार कार्यकालों की सत्ता-विरोधी लहर से पार पाने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। दूसरी ओर, कांग्रेस कई मुद्दों पर शिवराज सिंह चौहान सरकार के खिलाफ लोगों के बीच नाराजगी को भुनाने की कोशिश करेगी।
1. नरेन्द्र मोदी: प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी प्रचार परिदृश्य पर हावी रहेंगे और भाजपा के तुरुप का इक्का बने रहेंगे। भाजपा एक और चुनावी जीत हासिल करने के लिए मोदी की शक्तिशाली वाक् कला, राजनीतिक करिश्मा, स्थायी जन अपील और लोकप्रियता पर बहुत अधिक निर्भर करेगा।
2. भ्रष्टाचार/घोटाले: कांग्रेस मौजूदा भाजपा शासन में कथित भ्रष्टाचार को अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने जा रही है। विपक्षी दल ने दावा किया है कि जब भाजपा सत्ता में थी तो कर्नाटक में 40 फीसदी कमीशन की सरकार थी, लेकिन मध्य प्रदेश में 50 फीसदी कमीशन की सरकार है। कुछ महीने पहले कांग्रेस ने प्रदेश भर में शिवराज चौहान सरकार पर 50 फीसदी कमीशनखोरी का आरोप लगाते हुए पोस्टर चिपकाए थे। कांग्रेस ने उज्जैन में ‘महाकाल लोक’ के निर्माण में भी भारी अनियमितता का आरोप लगाया है। कांग्रेस ने भाजपा शासन के 18 साल के दौरान 250 से ज्यादा बड़े घोटाले भी गिनाए हैं। वित्तीय घोटालों की सूची में व्यापमं भर्ती और प्रवेश घोटाला सबसे ऊपर है।
3. सत्ता विरोधी लहर: भाजपा मध्य प्रदेश में 2003 से 15 महीने की अवधि (दिसंबर 2018-मार्च 2020) को छोड़कर सत्ता में है और सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रही है। इन 15 महीनों में कांग्रेस का शासन मप्र में था। भाजपा शासन के सभी वर्षों में, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पार्टी का चेहरा बने रहे। रणनीति में बदलाव करते हुए, भाजपा ने राज्य में तीन केंद्रीय मंत्रियों और चार संसद सदस्यों को मैदान में उतारा है, इस कदम को चार बार के मुख्यमंत्री चौहान के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर को कुंद करने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। इतने सारे वरिष्ठ भाजपा नेताओं की मौजूदगी ने मुख्यमंत्री पद के दावेदारों के लिए मैदान खुला छोड़ दिया है।
4. सिंधिया समर्थकों का भाग्य: केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के वास्ते अपने सभी प्रमुख समर्थकों के लिए चुनाव टिकट प्राप्त करना एक कठिन काम होगा, जो 2020 में कांग्रेस छोड़कर उनके साथ भाजपा में शामिल हो गए। उन सभी को समर्पित भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं की कीमत पर समायोजित करना होगा जो कि निश्चित रूप से नाराजगी पैदा करेगा।
5. अपराध: बढ़ता अपराध ग्राफ, विशेषकर महिलाओं और दलितों और आदिवासियों सहित कमजोर वर्गों के सदस्यों के खिलाफ घटनाएं, मतदाताओं के बीच एक प्रमुख मुद्दा है। सीधी जिले में एक व्यक्ति द्वारा एक आदिवासी व्यक्ति पर पेशाब करने की घटना ने राज्य को झकझोर कर रख दिया। क्षति नियंत्रण के प्रयास में मुख्यमंत्री चौहान ने आदिवासी व्यक्ति के पैर धोए और उससे माफी मांगी।
6. प्रोजेक्ट चीता: मध्य प्रदेश के कुनो नेशनल पार्क में छह चीतों और तीन शावकों की मौत ने दुनिया के जमीन पर सबसे तेज दौड़ने वाले जानवर को देश में फिर से लाने के कार्यक्रम पर सवाल खड़े कर दिए हैं। पुनरुद्धार कार्यक्रम लोगों के बीच चर्चा का विषय बन गया है। संरक्षणवादियों के एक वर्ग ने पूरी परियोजना की कल्पना और कार्यान्वयन के तरीके पर सवाल उठाया है।
7. किसान: राज्य में कृषि संबंधी मुद्दे हमेशा राजनीतिक चर्चा में हावी रहे हैं और सभी दलों ने किसानों को लुभाने की कोशिश की है। सत्ता में रहने के दौरान कांग्रेस और भाजपा दोनों ने कृषि ऋण माफी के मुद्दे पर किसानों को धोखा देने का आरोप लगाया है। गुणवत्तापूर्ण बीजों की अनुपलब्धता और उर्वरकों की कमी किसानों के लिए प्रमुख चिंता का विषय रही है।
8. बेरोजगारी: युवाओं के बीच बेरोजगारी की उच्च दर एक चुनौती बनी हुई है और मतदाताओं के लिए शीर्ष मुद्दों में से एक है। बेरोजगार युवाओं का दिल जीतने के लिए आप ने सत्ता में आने पर बेरोजगारी भत्ता देने का वादा किया है। दूसरी ओर, भाजपा सरकार युवाओं में कौशल विकसित करने और उन्हें वित्तीय सहायता प्रदान करने की कोशिश कर रही है।
9. शिक्षा और स्वास्थ्य: दोनों का आम नागरिकों और उनके समग्र कल्याण से गहरा संबंध है। ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी संख्या में स्कूल खोले गए हैं, लेकिन योग्य शिक्षकों की कमी है, और यदि शिक्षक उपलब्ध हैं, तो छात्रों को उचित शिक्षा प्रदान करने के लिए बुनियादी ढांचे की कमी है। इन चुनावों में अस्थायी शिक्षकों का नियमितीकरण एक बड़ा मुद्दा है। छोटे शहरों के अधिकांश अस्पतालों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में पर्याप्त प्रशिक्षित कर्मचारियों, विशेषकर डॉक्टरों की कमी है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
10. मुख्यमंत्री चेहरा: जबकि कांग्रेस ने स्पष्ट रूप से कहा है कि उसके अनुभवी नेता कमल नाथ पार्टी का मुख्यमंत्री चेहरा हैं, वहीं मुख्यमंत्री चौहान राज्य के नेताओं में सबसे लोकप्रिय व्यक्ति बने हुए हैं, इसके बावजूद भाजपा इस मामले पर स्पष्ट नहीं है।