Arm Race: युद्ध से कैसे प्रॉफिट कमाता है अमेरिका, US डिफेंस इंडस्ट्री की पूरी कहानी

बीआर चोपड़ा के निर्देशन में बनी महाभारत का वो दृश्य जिसमें योद्धा अपना सधा हुआ बड़े से बड़ा अस्त्र छोड़ता था और सामने वाला योद्धा उसकी काट में अपना अस्त्र। दोनों आसमान में जाकर एक दूसरे से टकराते। ज्यादा मारक वाले अस्त्र सामने वाले के अस्त्र को नष्ट कर देता। तकनीक के क्षेत्र में दुनिया काफी तरक्की कर रही है। इसी तरक्की के साथ हथियारों की रेस में भी अलग-अलग प्रयोग हो रहे हैं। 1991 में जब दुनिया में शीत युद्ध खत्म हुआ था तो लोगों को लगा था कि हथियारों की स्पर्धा खत्म हो जाएगी। उस वक्त किसी ने इस बात पर गौर नहीं किया कि शीत युद्ध तो खत्म हो गया है। लेकिन हथियारों को बनाने वाले उनकी फैक्ट्रियां और बाजार खत्म नहीं हुआ है। दुनिया की सबसे सुपर पावर अमेरिका जल, थल और वायु में सबसे खतरनाक हथियारों से सजी सेना है। दुनिया के सबसे घातक हथियारों से लैस अमेरिका एटम बम का भी इस्तेमाल कर चुका है। किसी को आश्चर्य नहीं कि संयुक्त राज्य अमेरिका किसी भी अन्य देश की तुलना में युद्ध पर अधिक पैसा कमाता है। अपने डेटा स्रोत के रूप में स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (एसआईपीआरआई) के हथियार उत्पादन डेटाबेस का उपयोग करते हुए, ब्रोंस्टीन ने दिखाया कि दुनिया की शीर्ष 100 हथियार उत्पादक कंपनियों में से 40 संयुक्त राज्य अमेरिका में स्थित हैं, जिनमें लॉकहीड मार्टिन और बोइंग शामिल हैं। दायरा जितना बड़ा होगा, कंपनी या देश ने हथियार बेचकर उतना अधिक पैसा कमाया।

दुनिया में चल रहे तीन बड़े विवाद

विदेशी सरकारें अमेरिका से दो तरीकों से हथियार खरीद सकती हैं। पहला डायरेक्ट कंपनी से डील कर सकती है। ये तरीका कम पारदर्शी है और इसको लेकर बहुत कम जानकारी पबल्कि डोमेन में आती है। दूसरा तरीका होता है कि डिप्लोमैटिक चैनल्स के जरिए रिक्वेस्ट किया जाए। आम तौर पर सरकारें अपने देश में अमेरिकी दूतावास से संपर्क करती हैं और फिर उसके माध्यम से ऑर्डर दिए जाते हैं। एक दौर करने वाली बात ये है कि दोनों ही सूरतों में अमेरिकी सरकार की अनुमति अनिवार्य है। 2023 में अमेरिका से सबसे बड़ा रक्षा सौदा पोलैंड ने किया। उसने 1 लाख 90 हजार करोड़ रुपए देकर अपाचे हेलीकॉप्टर और रॉकेट लिए हैं। पोलैंड यूक्रेन की सीमा से सटा हुआ है। रूस यूक्रेन युद्ध के बाद उसकी सुरक्षा पर भी भारी संकट खड़ा हुआ। इसलिए वो अपनी सैन्य क्षमता बढ़ाना चाहता है। पोलैंड एक उदाहरण है। जिन भी देश में तनाव की स्थिति बन रही है वहां हथियारों की रेस शुरू हो गई है। इस वक्त दुनिया में तीन बड़े तनाव फरवरी 2022 से जारी रूस यूक्रेन के बीच का युद्ध, अक्टूबर 2023 में शुरू हुआ इजरायल और हमास के बीच का विवाद और चीन और ताइवान के बीच टकराव की बढ़ती स्थिति देखने को मिल रहे हैं। 

अमेरिका से ये हथियार कौन खरीदता है?

2002-2016 के बीच अमेरिका ने लगभग 167 देशों को 197 बिलियन डॉलर के हथियार और गोला-बारूद बेचे। 2001-2021 में कंपनियाँ शीर्ष 5 सैन्य ठेकेदार हैं: लॉकहीड मार्टिन, रेथियॉन, जनरल डायनेमिक्स, बोइंग और नॉर्थ्रॉप ग्रुम्मन ने सार्वजनिक वित्त पोषण में 2.02 ट्रिलियन डॉलर कमाए। ये कंपनियां इराक, लीबिया, यमन और सूडान जैसे देशों को हथियार बेचती हैं। बिना इस बात पर विचार किए कि क्या ये राष्ट्र लोकतंत्र/नागरिक अधिकारों की अवधारणाओं और सिद्धांतों का पालन करते हैं। इन युद्धों को लड़ने के लिए अमेरिकी रक्षा विभाग इन जैसे देशों से गोला-बारूद खरीदता है।

अमेरिका कैसे उठा रहा फायदा

रूस हथियारों का दूसरा सबसे बड़ा सप्लायर रहा है। चीन, मिस्र और भारत उसके सबसे  बड़े खरीदारों में से हैं। यूक्रेन जंग के बाद रूस के ऊपर कई प्रतिबंध लगे हैं। उसके लिए  बुनियादी चीजें मंगाना महंगा और मुश्किल हो गया है। इसका सीधा असर हथियार उद्दोग पर भी पड़ा। उसकी उत्पादक क्षमता प्रभावित हो गई है और एक प्रमुख निर्यातक के रूप में रूस की भूमिका अब खतरे में है। अमेरिका इस स्पेस को भरने कि फिराक में है। वो इसका इस्तेमाल अपनी रक्षा उद्योग को मजबूत करने के लिए कर रहा है। 

तालिबान

अमेरिका अफगानिस्तान पर 2 ट्रिलियन डॉलर खर्च करने का दावा करता है, तो फिर हमें इस देश में विकास का कोई निशान क्यों नहीं दिखता? अमेरिका अप्रत्यक्ष रूप से उसी पैसे को अपने देश में वापस भेजता रहा है। ये घटनाएँ ‘युद्ध मुनाफाखोरी’ नामक प्रक्रिया द्वारा जारी रहीं। संयुक्त राज्य अमेरिका ने अफगानिस्तान में आउटसोर्स युद्ध लड़ा; उन्होंने युद्ध को निजी ठेकेदारों और संयुक्त राज्य अमेरिका से जुड़ी कंपनियों को आउटसोर्स कर दिया। इसलिए अमेरिका द्वारा युद्ध में निवेश किया गया पैसा उन्हीं कंपनियों द्वारा कमाया गया था जिन्होंने उन्हें सबसे पहले पैसा मुहैया कराया था। इस प्रकार, जो निवेशक ऐसे युद्धों में निवेश करते हैं, वे हर बार संयुक्त राज्य अमेरिका के युद्ध में शामिल होने पर अपना लाभ बढ़ाते हैं। युद्ध में शामिल होना संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए लाभदायक है। वे सीरिया, इराक और लीबिया जैसी दमनकारी शक्तियों वाले अन्य देशों में भी यही रणनीति अपनाते हैं। अमेरिका ने अफगान पुनर्निर्माण की निगरानी के लिए एक एजेंसी की स्थापना की है जिसे अफगानिस्तान पुनर्निर्माण के लिए विशेष महानिरीक्षक कहा जाता है। SIGAR ने 2018 में एक रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें धोखाधड़ी/अपव्यय/ और सरकारी धन के दुरुपयोग के माध्यम से $15 मिलियन के गायब होने की बात कही गई। इनमें से अधिकांश फंडिंग अमेरिकी जेब में चली गई।

वैश्विक भ्रष्टाचार पर अभी तक सवाल क्यों नहीं उठाया गया?

इस प्रश्न का उत्तर अमेरिका का लौह त्रिभुज होगा। इस त्रिभुज के तत्व एक दूसरे पर निर्भर हैं। इनमें शामिल हैं- हथियार उद्योग, रक्षा विभाग और राष्ट्रीय कांग्रेस। हथियार उद्योग चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवारों द्वारा किए गए अभियानों को वित्तपोषित करता है। यह फंडिंग एक प्रोत्साहन के रूप में काम करती है। यह निर्वाचित उम्मीदवार को रक्षा बजट बढ़ाने के लिए रक्षा विभाग को प्रेरित करने के लिए प्रेरित करता है। ताकि अंततः वे उन्हीं कंपनियों से हथियार खरीदें जो सरकार को फंड देती हैं। इसलिए शेयर की कीमतें और अभियान फंडिंग सीधे आनुपातिक हैं, क्योंकि वे एक साथ बढ़ते हैं।

अफगानिस्तान का उपयोग करना लक्ष्य

अमेरिकी संघों का एक और स्वार्थी उद्देश्य था, जो युद्ध छेड़कर कर बचाना था। विकीलीक्स के संस्थापक जूलियन असांजे ने एक दशक पहले कहा था कि लक्ष्य अफगानिस्तान को पूरी तरह से अपने अधीन करना नहीं है। लक्ष्य अफगानिस्तान के माध्यम से अमेरिका और यूरोप के कर अड्डों से पैसा निकालने के लिए अफगानिस्तान का उपयोग करना है। इसलिए, राष्ट्र-निर्माण पैसा कमाने का एक और बहाना था। अमेरिकी करदाताओं ने कभी भी अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण नहीं चाहा। उन्होंने अपनी अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण किया। ये अमेरिकी संघ वैश्विक मंच पर ऐसी रणनीतियों का उपयोग करते हैं।

लगातार बढ़ाया जा रहा डिफेंस बजट

यूरोपीय देश भी तेजी से रक्षा बजट बढ़ा रहे हैं। आंकलनों में साफ बताया जा रहा है कि युद्ध की नौबत आने पर उनके हथियार कितनी जल्दी खत्म हो जाएगे। एक तरफ यूक्रेन को मदद भेजने की जरूरत और खुद के रक्षा को भी बढ़ाना है दूसरी तरफ चीन की इस युद्ध पर गहरी नजर है और वह अपने लिए जरूरी सबक ले रहा है जो ताइवान के मामले में काम आ सकते हैं। वहीं भारत की भी जरूरतें चीन के लिहाज से बढ़ रही है जिसमें आत्मनिर्भरता एक प्रमुख तत्व है।

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