A Thursday Review: एक कसी हुई कहानी है होस्टेज ड्रामा ‘अ थर्सडे’

Review: अक्सर ऐसा होता है कि जिन फिल्मों के प्रोमो बहुत अच्छे होते हैं, फिल्म उतनी ही कमज़ोर निकलती है, जैसे गहराइयां. ‘अ थर्सडे’ इसके ठीक विपरीत निकली. पिछले कुछ दिनों से डिज्नी+ हॉटस्टार पर ‘अ थर्सडे’ फिल्म के प्रोमो दिखाए जा रहे थे और प्रोमो से ही फिल्म के बारे में काफी उत्सुकता जाग गयी थी. न केवल प्रोमो बहुत ही अच्छे थे, फिल्म उस से भी बेहतर है. फिल्म देख कर यामी गौतम धर की अभिनय क्षमता पर यकीन हो जाता है और ऐसा लगता है कि शायद इन्हें और ज़्यादा काम मिलना चाहिए. पूरी फिल्म अकेले के दम पर चलायी है और अपने किरदार को ऐसा लाजवाब रंग दिया है कि फिल्म देखने के कई घंटों बाद तक भी उनके अभिनय की छाप दिलोदिमाग पर रह जाती है.

नाम और प्रोमो से ऐसा लग रहा था कि ये फिल्म नीरज पांडेय की फिल्म ‘अ वेडनेसडे’ (नसीरुद्दीन शाह, अनुपम खेर) की फिल्म जैसी ही फिल्म होगी और यकीन मानिये ये फिल्म उसी तर्ज़ पर चलती है और एक ऐसी समस्या से जूझती है जिस को लेकर देश में कई कानून और कई कानूनी परिवर्तन लाये जा चुके हैं मगर आज भी वो समस्या भयावह स्वरुप में मुंह उठाये खड़ी है. नैना जायसवाल (यामी) ने एक प्लेस्कूल की टीचर का रोल अदा किया है जो अपने ही स्कूल के बच्चों को स्कूल में बंधक बना लेती है और पुलिस को फ़ोन कर के इसकी सूचना भी देती है. मौके पर पहुंचती है पुलिस अफसर कैथरीन (नेहा धूपिया). नैना की पहली शर्त होती है कि पुलिस अफसर जावेद खान (अतुल कुलकर्णी) को बुलाया जाए ताकि नेगोशियेशन्स किये जा सकें. अतुल, नेहा के पूर्व पति हैं और साथ ही उनके अधीनस्थ हैं. यामी की मांगों के अनुसार यदि उनकी कोई शर्त न मानी गयी तो वो एक एक करके बच्चों को मार देगी. दुर्भाग्य से इस प्रकरण में एक बच्ची का ड्राइवर और स्कूल की आया भी बंधक बन जाते हैं. अपने बैंक अकाउंट में 5 करोड़ रुपये जमा करवाने से शुरू होने वाला ये खेल प्रधानमंत्री (डिंपल कपाड़िया) से रूबरू मुलाक़ात पर खत्म होता है. यामी ऐसा क्यों करती हैं, अतुल की इस प्रकरण में क्या भूमिका है और क्या बच्चे सुरक्षित निकल पाते हैं, ये इस फिल्म का सस्पेंस है.

यामी गौतम ने अपनी पहली हिंदी फिल्म विक्की डोनर से काफी उम्मीदें जगाई थीं, फिर उन्होंने दक्षिण भारत की फिल्मों में काम किया और हिंदी फिल्मों में उनकी काबिल को छोड़ कर कोई फिल्म खास चली नहीं या उनका काम कुछ नोटिस भी नहीं हुआ. ‘अ थर्सडे’ में पूरी स्क्रीन पर यामी छायी हुई हैं और उन्होंने कमाल का अभिनय किया है. वो आज के ज़माने की लड़की बनी हैं इसलिए मोबाइल हॉटस्पॉट, व्हॉट्स ऍप, रिंग लाइट आदि बातों को जानती-समझती और इस्तेमाल करती हैं. यामी नैसर्गिक रूप से सुन्दर हैं इसलिए वो चाह कर भी अपने चेहरे को विकृत नहीं कर सकती. इस फिल्म में इस बात का फायदा उठाया गया है और उनके चेहरे पर उठे भावों को सही तरीके से इस्तेमाल किया है. वो डरती हैं, डराती हैं और बड़े ही संयत स्वर और शांत दिमाग से बाकी किरदारों को पूरी तरह हिला डालती हैं. अतुल कुलकर्णी निजी जीवन में बहुत ही मस्त मौला किस्म के शख्स हैं लेकिन इस फिल्म में उन्होंने बड़ा संजीदा रोल निभाया है. फिल्म के क्लाइमेक्स तक अतुल से सब घृणा ही करते रहते हैं लेकिन अतुल आखिरी मौके पर बाजी पलट देते हैं. ख़ास बात ये है कि उन्होंने बाजी पलटने की इस घटना को किसी डायलॉग या किसी भारी भरकम सीन से नहीं दिखाया है. नेहा धूपिया फिल्म बनते समय प्रेग्नेंट थीं और उन्होंने फिल्म में भी अपने आप को प्रेग्नेंट ही दिखाया है. रोल छोटा है लेकिन पुलिस फ़ोर्स में एक महिला अफसर की मजबूरियों को उन्होंने अच्छे से बयान किया है. डिंपल कपाड़िया और करणवीर शर्मा के रोल महत्वपूर्ण हैं, छोटे हैं और कुछ खास करने को था नहीं इसलिए अच्छे से निभा लिए गए.

फिल्म की सफलता के पीछे उसकी लेखनी ज़िम्मेदार है. फिल्म लिखी है निर्देशक बहज़ाद खम्बाटा और एश्ले लोबो ने. फिल्म लिखना किसी बच्चे जो जन्म देने के समान होता है. प्रक्रिया बहुत कठिन होती है, हर दिन एक नया अनुभव जुड़ते जाता है, हर बार एक नयी सीख जुड़ती है और हर सीन को बार बार लिखना पड़ता है. हर कहानी की पटकथा बनने की प्रक्रिया में कई बार रीड्राफ्टिंग करनी पड़ती है. शुरू में सस्पेंस पैदा करने से लेकर सस्पेंस खुलने तक और कहानी को उसके मंतव्य तक पहुंचाने में लेखकों को कई पापड बेलने पड़ते हैं. ‘अ थर्सडे’ ऐसी ही एक पटकथा है. एकदम कसी हुई. एक भी सीन ऐसा नहीं है जिसे देखने में दर्शकों को असहज होना पड़े जबकि जिस समस्या पर यह फिल्म बनी है वो बहुत ही घृणित कृत्य होता है.

निर्देशक बहज़ाद काफी समय से फिल्म इंडस्ट्री में काम कर रहे हैं. यह उनकी दूसरी फिल्म है. उनकी पहली फिल्म थी ‘ब्लैंक’ (सनी देओल) जो कि एक टेररिस्ट की कहानी थी. ब्लैंक चली नहीं लेकिन बहज़ाद की तारीफ हुई थी. ‘अ थर्सडे’ के बाद बहजाद को एक बेहतरीन निर्देशक माना जाना चाहिए. पुलिस ड्रामा, होस्टेज ड्रामा जैसे विदेशी कॉन्सेप्ट्स का भारतीयकरण करने में बहज़ाद ने काफी मेहनत की है. उनका साथ दिया है एडिटर सुमीत कोटियन ने. सुमीत ने बहुचर्चित और सफल वेब सीरीज ‘द फॅमिली मैन’ (मनोज वाजपेयी) को भी एडिट किया है. कहानी की रफ़्तार पूरे समय बनी रही है. सिनेमेटोग्राफी अनुज राकेश धवन और सिद्धार्थ वासानी की है. बारिश के सीन अच्छे बने हैं और फ्लैशबैक को भी बड़े ही अनूठे तरीके से फिल्माया है. फिल्म में गानों की गुंजाईश नहीं थी लेकिन कैज़ाद का म्यूजिक बेहतर हो सकता था. यूरोपियन फील का म्यूजिक, भारतीय फिल्म में जांचने की कोशिश की गयी है लेकिन उस वजह से कई सीन का प्रभाव कम हो गया है, खास कर क्लाइमेक्स का.

फिल्म में कुछ कमियां हैं जैसे नेहा धूपिया का किरदार जो शायद हटाया जा सकता था. अतुल कुलकर्णी पूरे समय सिगरेट फूंकते नज़र आते हैं. टेलीविज़न न्यूज़ का गन्दा चेहरा दिखाने की कोशिश कई फिल्मों में पहले भी की गयी है और आगे भी होती रहेगी. दर्शकों को अब टेलीविजन न्यूज की वास्तविकता, टीआरपी की लड़ाई के लिए सच के विकृत स्वरुप दिखाना, प्राइम टाइम होस्ट करने की लड़ाई जैसी कई बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता. ये भी फिल्म का अनावश्यक अंग लगता है. बच्चों के माता-पिता बहुत ही कम सीन में नज़र आते हैं, इस संकट से उनकी मनःस्थिति पर क्या असर पड़ रहा है या वो लोग क्या कर रहे हैं; इन बातों को बहुत ही सतही तौर पर दिखाया गया है. फिल्म इन सब के बावजूद अच्छी है, देखने लायक है. फिल्म का आखिरी सीन बहुत देर तक दिमाग पर चलता रहता है. देखिये ज़रूर.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

कैज़ाद घरड़ा/5

Tags: A Thursday, Dimple kapadia, Film review, Neha dhupia, Yami gautam

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