रावण समूह के काफी सदस्य मानने लगे थे कि पिछले कई साल से राक्षसी हितों बारे ढंग से विचार विमर्श नहीं हो पाया है। वे चाहते थे कि इस साल दशहरा के बाद, दीपावली से पहले, समूह की बैठक ज़रूर रखी जाए। कुछ सदस्यों ने अध्यक्ष रावण को सूचित किया गया कि सरकार जनता की भलाई के लिए संजीदगी से बहुत काम कर रही है, समाज से भ्रष्टाचार, बुराई खत्म करने के बेहतर तरीके निकाले जा रहे हैं। एक समय आएगा जब बुराई जड़ से समाप्त हो जाएगी। फिर हमारा क्या होगा, सरकार हमें भी खत्म कर देगी। इसलिए बैठक बहुत ज़रूरी है।
यह बात सुनते ही रावण की आंखों में खून उतर आया वो अट्टहास कर उठा, ‘शांत हो जाओ, मुझे लग रहा है मैं मूर्खों की सभा का अध्यक्ष हूँ। ज़रूर किसी नेता ने तुम्हें बरगलाया है। मेरी नज़र से देखो मेरे दिमाग से समझो, समाज में हमारा कद और भी ऊंचा होता जा रहा है, तुम बेवकूफों को पता नहीं है कि मेरा, दुनिया का सबसे ऊंचा पुतला दो सौ इक्कीस फुट का जलाया जा चुका है। उसमें 40 फुट लंबी तो मेरी शानदार मूछें ही थी। यह हमारे इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है। इसके श्रद्धालु प्रायोजकों ने लाखों रूपए खर्च किए हैं, मैंने सुना है अपनी ज़मीन तक बेच दी है। लोग मेरे पुतले की ‘अस्थियां’ यानी जली हुई बांस के टुकड़े भी अपने घर ले गए थे। इससे मेरा स्वाभिमान और हमारी संस्था का कद कितना बढ़ गया है।’
उन्होंने आगे कहा, ‘हमें बुराई का प्रतीक बताकर, विश्व रिकार्ड कायम किए जा रहे हैं, लेकिन जनता के स्वास्थ्य की चिंता नहीं है। लाखों जलाकर, बुराई पर अच्छाई की विजय मानी जा रही है लेकिन इतने साल में पर्यावरण को कितना नुक्सान पहुंचा चुके हैं किसी को पता नहीं चल रहा। दूसरे सामाजिक आयोजनों में इतने दर्शक नहीं जुटते जितने मुझे, मेघनाद और कुम्भकर्ण को देखने आते हैं। हमारी ख्याति बढ़ती जा रही है। शायद तुम जानते नहीं कि कई जगह अभी भी मेरी पूजा की जाती है।’
रावण का क्रोध बोलता जा रहा था, ‘यह लोग पुतले जलाते रहते हैं, इन्हें लगता है पुतले फूंकने के साथ बुराई का अंत हो गया। बहुत नासमझ हैं। यह सब समाज में रोपित राक्षसी खूबियों के परिणाम हैं। अच्छाई अब चमकदार मुखौटा बन चुकी है, कोई अपना बुरा आचरण अच्छे में बदलने को राज़ी नहीं, सबकी जुबां पर भगवान का नाम है और दिमाग में, मैं हूं रावण, हा हा हा। हमारे दरबार जैसी सुख सुविधाएं, मनोरंजन, नाच गाना, खाना, पीना और गप्पे मारना भारतवासियों को बहुत पसंद हैं, वे इनमें डूबे हुए हैं और अपने कर्तव्य भूलते जा रहे हैं। उनकी नई संचार व्यवस्था ने उनके दिमाग पर कब्ज़ा कर रखा है।’
मेघनाद ने कहा, ‘पिता महाराज, आप अनुमति दें तो मैं भी अपनी प्रशंसा कर लूँ।’ लेकिन रावण बोला, ‘भगवान् होना बहुत मुश्किल है। आदमी बुराई जल्दी सीखता है, अच्छाई नहीं। लोगों ने कितनी लंकाएं बसा रखी हैं, हम तो बुराई के प्रतीक मात्र हैं लेकिन समाज में तो अनगिनत रावण हैं, कितने मेघनाद और कुंभकर्ण तो करोड़ों की संख्या में हैं जो आंखे खोलकर भी सोए रहते हैं। हमारी असुर प्रवृति समाज में विकसित होती जा रही है। हमारे गुण, अहंकार, हवस, लोभ, मोह, काम, क्रोध, अनीति, अधर्म, अनाचार, असत्यता निसदिन बढ़ते जा रहे हैं। बुराई, नफरत व्यवसाय बन चुकी है, हमारे नाम पर त्यौहार अब धंधा बन चुका है।’
उनका भाषण सुनते सुनते कुंभकर्ण और दूसरे काफी सदस्य सो चुके थे। मेघनाद को इशारा करते हुए रावण ने कहा, ‘अब बैठक संपन्न हुई पुत्र, बोलो महा पराक्रमी, महा बुद्धिमान, महा यशस्वी, हरयुगी राजा रावण की जय।’
– संतोष उत्सुक