12 साल बाद जब यहां गांव में लगता है दोष तो गाया जाता है विश्वकर्मा जागर, ये हैं इसके एकमात्र गायक

कमल पिमोली/ श्रीनगर गढ़वाल.विश्वकर्मा की संरचना उनकी निर्माण शैली को दुनिया भले ही देव शिल्पी ओर भवन नगर निर्माण शिल्पी के रूप में जानें, परंतु चमोली जनपद में विश्वकर्मा जिसे स्थानीय भाषा में विशकम के रूप में भी जाना जाता है. वह पहाड़ के जन जीवन में इतने रचे-बसे हैं कि उन्हें देवता का सम्मान तो है ही साथ ही वह जागरों में भी खूब प्रचलित हैं. पारिवारिक रूप से विसकम जागर की विद्या पाये मथुरा दास की जागर गायन शैली भी अद्भुत है, वे अकेले विश्वकर्मा जागर के गायक/जागरी हैं.

पहाड़ में विश्वकर्मा का एकमात्र पूजा स्थान जिसे गढ़वाली भाषा में थान कहा जाता है, उर्गम घाटी (चमोली) के देवग्राम में है. देवग्राम को पूरे उर्गम घाटी में देवताओं का गांव माना जाता है. देवभूमि की लोक संस्कृति में विभिन्न जागरों का गायन सुनने को मिलता है. ये देवों के आवाहन पर निर्भर करता है कि किस देवता को अवतरण के लिए बुलाया जा रहा है. उसके अनुरूप ही जागर गाये जाते हैं. ऐसे ही जागर की कई विद्याओं में से एक विद्या है विश्वकर्मा जागर की. यह विद्या बेहद ही कम लोगों के पास है.

विश्वकर्मा जागर के इकलौते गायक हैं मथुरादास

चमोली जिले के जोशीमठ तहसील स्थित टंगडी गांव के 62 वर्षीय मथुरा दास एकमात्र ऐसे जागरिये हैं. जो विश्वकर्मा का जागर गाते हैं. 4 दशकों से वे विश्वकर्मा के जागर गा रहे हैं, बताते हैं कि उन्होंने 20 साल की उम्र से यह विधा सीख ली थी. विश्वकर्मा जागर में दोनों वर्गों का (संर्वण व अनुसूचित जाति) विशेष सहयोग रहता है. जागर में विश्वकर्मा द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर महाभारत के पात्रों का जिक्र किया जाता है. महाकाव्यों के संकेतों के साथ देवताओं का गीत गाते हैं, जिसमें भगवान के आह्वान किए जाने के साथ स्थानीय देवी देवताओं का अवतरण होता है. विश्वकर्मा दोष पर ही इसका आयोजन होता है

विश्वकर्मा दोष के ये हैं लक्षण..!

मथुरा दास बताते हैं कि विशेष अवसर पर ही विश्वकर्मा जागर का आवाहन किया जाता है. बताते हैं कि जहां विश्वकर्मा का दोष लगता है उस गांव में अनुष्ठान किया जाता है. गांव के खेतों में अनाज न होना, चूहों का गड्डे बनाना, जंगली जानवरों का फसल खराब करना समेत प्रकृति का प्रकोप देखने को मिलता है. ऐसे में वहां विश्वकर्मा का दोष माना जाता है. मथुरादास जानकारी देते हुए बताते हैं कि अक्सर 12 साल के अंतराल में ही यह दोष लगता है. जिस गांव में दोष लगा है वहां के सभी ग्रामीण मिलकर विश्वकर्मा मेला/कौथिग आयोजित करते हैं. तीन दिन तक इस कौथिग का आयोजन होता है. इसमें विश्वकर्मा के जागर गाने वाले को बुलाया जाता है.

नई पीढ़ी नहीं दिखा रही रूची.

मथुरादास दुखी मन से कहते हैं कि आने वाली पीढ़ी लोक संस्कृति के प्रति रूची नहीं रख रही हैं. उनके बेटे भी कहते हैं कि उनसे यह कार्य नहीं हो पायेगा. दो तीन दिनों तक दिन रात जाग कर विश्वकर्मा जागर का बखान करना उनके बस में नहीं है. बताते हैं कि नई पीढ़ी का कहना है कि ये चीजें उनकी समझ से बाहर है. मथुरा दास बताते हैं कि अगर वें इन्हें किताब के प्रारूप् में भी लिख दें तो भी इन्हें गाया नहीं जा सकता. क्योंकि इन्हें गाने की शैली बिल्कुल अलग होती है.

जागर में होता है ढोल, दमाऊ का प्रयोग

मथुरादास बताते हैं कि ढोल दमाऊ की थाप पर देवी देवताओं को अवतरित करवाया जाता है. जिस गांव में यह अनुष्ठान होता है वहां के स्थानीय देव देवता समेत भूम्याल, क्षेत्रपाल को पक्ष्वाओं के अंदर अवतरित कर नचाना पड़ता है. बताते हैं कि कई जागरों में हुडका, थाल या डोंर का प्रयोग किया जाता है, लेकिन विश्वकर्मा जागर में ढोल व दमाऊ का ही प्रयोग होता है.

विश्वकर्मा जागर का किया जा रहा डाक्यूमेंटेशन

श्रीनगर गढ़वाल स्थित गढ़वाल विश्वविद्यालय के लोक संस्कृति एवं निस्पादन केन्द्र में इन दिनों प्रो0 डीआर पुरोहित के मार्गदर्शन में विश्वकर्मा के एकलौते जागर गायक मथुरादास के जागरों की डॉक्यूमेंटेशन किया जा रहा है. जिससे कि उनके बाद भी उनकी यह विद्या विलुप्त न हो. डिजिटल रूप में यह विद्या हमेशा जीवित रहे, व लोक संस्कृति में कार्य कर रहे लोगों को इसका लाभ मिले.प्रो0 डीआर पुरोहित ने बताया कि इससे पहले 25 दिनों का एक मांगल वर्कशाप उनके द्वारा आयोजित किया गया जिसका डाक्यूमेंटेशन करने के बाद अब किताब के प्रारूप में वह सामने होगी . इसके बाद द्वाराहाट व नंदप्रयाग घाट के जागर गायकों को भी रिकार्ड किया गया. साथ ही अब एकमात्र जागर गायक जो विश्वकर्मा के जागरों को गाते हैं उनकी रिकार्डिंग की जा रही है.

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