हरदोई के इस गांव का पुश्तैनी काम है खादी तैयार करना, आज भी गांव की आधी आबादी बना रही प्योर कॉटन का कपड़ा

शिवहरि दीक्षित/हरदोईः हरदोई में एक ऐसा गांव है. जहां पर वर्षों से खादी का कपड़ा बनाने का काम किया जा रहा है और आज भी इस गांव की आधी आबादी इस पुस्तैनी काम को करती आ रही है. हांलांकि बदलते समय में नई पीढ़ी इस काम को करने में रुचि नहीं ले रही है, क्योंकि इस काम से ज्यादा कमाई नहीं हो पाना इसका कारण बन रहा है. वहीं कुछ आज भी इस परंपरा को मानते हुए चले आ रहे हैं.

उत्तर प्रदेश के हरदोई से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मल्लावां क्षेत्र में गांव काजीपुर फरहतनगर है. जहां का पुस्तैनी काम खादी का कपड़ा बनाना है. आज भी वर्षों पहले स्वदेशी अपनाने की मुहिम से हुई शुरुआत को यह गांव आगे बढ़ाते चल रहा है. इस गांव के लोगों का बस एक ही काम था वह था खादी का प्योर कॉटन कपड़ा बनाना. हांलांकि आज के समय में इस गांव की आधी आबादी ही इस काम को कर रही है और आज भी बहुत से घर हैं जो कि अपने इस पुस्तैनी काम को करते आ रहे हैं.

ऐसे तैयार होता है खादी का कपड़ा
काजीपुर फरहटनगर के निवासी कमरुज्जमा बताते हैं कि वह खादी का प्योर कॉटन कपड़ा बनाने के लिए स्वराज्य आश्रम से धागा लाते हैं. जिसे घर लाकर भिगोया जाता है और फिर माड़ चढ़ाया जाता. जिसके बाद चरखे से उसे काता जाता उसके बाद उसे रील बनाकर कपड़े बनाने के लकड़ी की हाथ से चलने वाली मशीन से बनाई की जाती है और यह लकड़ी की मशीन कोई आधुनिक नहीं खुद के द्वारा ही बनाई गई है, मतलब की इस कपड़े को तैयार करने में किसी भी मशीन का नहीं बल्कि हाथों से तैयार किया जाता है.

पूरा परिवार करता है मेहनत
गांव के कमरुज्जमा का कहना है कि स्वराज्य आश्रम से धागा लाने के बाद इसे तैयार करने के लिए पूरा घर जुट जाता है. कोई चरखे से धागा बनाता है तो कोई लकड़ी से बनी मशीन पर बैठ कर कपड़े की बुनाई करता और ऐसा केवल एक घर नहीं बल्कि गांव की आधी आबादी करती है.

पुस्तैनी काम से फेर लिया मुंह
खादी का कपड़ा बनाने वाले इस गांव के बहुत से ऐसे परिवार हैं. जिन्होंने अपने इस पुस्तैनी काम से मुंह फेर लिया है. इसका कारण है कि इस काम में मेहनत ज्यादा है. मगर मेहनताना कम है. कमरुज्जमा बताते हैं कि जैसे जैसे नई पीढ़ी आती गई वह अपने इस पुस्तैनी काम को छोड़ते चले गए और कुछ और काम की करने लगे, वह बताते हैं कि इस खादी के कपड़े को 100 मीटर तैयार करने में जब परिवार के लोग लगते हैं. तो सप्ताह भर में तैयार हो पाता है. उसके बाद तैयार कपड़े को स्वराज्य आश्रम में दे देते हैं. जहां से उन्हें इसके एवज में 12 रुपये प्रति मीटर ही मिलता है और शायद यही वजह है कि लोग इस काम को छोड़ते जा रहे हैं.

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