सुप्रसिद्ध गीतकार ‘जां निसार अख़्तर’ की चुनिंदा ग़ज़लें

माथे पर बिखरे पेपर-सॉल्ट (काले-सफ़ेद) बाल, बालों को सुलझाती उनकी उंगलियां और होठों के बीच दबी सुलगती सिगरेट… कुछ ऐसे दिखते थे जां निसार अख़्तर. 18 फरवरी 1914 को जन्मे कवि-गीतकार जां निसार अख़्तर अपने हिंदी-उर्दू साहित्य की वजह से दुनिया भर में मशहूर रहे और आज भी उसी शिद्दत से पढ़े और गुनगुनाए जाते हैं. गौरतलब है कि आज के दौर के मशहूर शायर और दशकों से बॉलीवुड को एक से एक खूबसूरत गीत देने वाले ‘जावेद अख़्तर’ मरहूम जां निसार अख्तर के ही बेटे हैं.

दंगों के दौरान जां निसार अख़्तर ग्वालियर से भोपाल चले गए. यह उनके संघर्ष भरे दिन थे और फिर भोपाल से 1949 में मुंबई पहुंच गए. मुंबई वह फिल्मों में काम की तलाश में पहुंचे थे, जहां उनकी दोस्ती इस्मत चुगताई और साहिर लुधियानवी जैसे लोगों से हुई. इस दौरान उन्हें भोपाल से अपनी पत्नी सफ़िया (जावेद अख़्तर की मां) से भी आर्थिक मदद मिलती रही. 1953 में सफ़िया की कैंसर से मौत हो गई, जिसके बाद अख़्तर साहब ने 1956 में ‘ख़दीजा तलत’ से शादी की.

साल 1955 में हिंदी सिनेमा की दुनिया में फिल्म ‘यासमीन’ से अख़्तर साहब की पहचान बनी और उसके बाद उन्होंने हिंदी सिनेमा को ‘आंखों ही आंखों में इशारा हो गया’, ‘ये दिल और उनकी निगाहों के साये’, ‘ऐ दिले नादां’ और ‘आप यूं फासलों से गुज़रते रहे’ जैसे एक से एक सुपर हिट गीत दिए. गौरतलब है कि ‘रज़िया सुल्तान’ फिल्म के लिए उन्होंने आखिरी गीत लिखा था और 19 अगस्त 1976 को मुंबई में उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली.

साहिर लुधियानवी से अख़्तर साहब की अच्छी दोस्ती थी. कहा जाता है कि अपनी ज़िन्दगी के सबसे हसीन साल उन्होंने साहिर के साथ दोस्ती में गवां दिए और साहिर ने उन्हें ठीक तरह से उभरने का मौका नहीं दिया. इस बात में कितनी सच्चाई यह तो नहीं पता लेकिन जैसे ही वह साहिर से दूर हुए उनके लेखन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिला. साल 1976 में अख़्तर साहब को ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से भी नवाज़ा गया.

असग़र वजाहत कहते हैं, “जां निसार अख़्तर को समझने के लिए सफ़िया अख़्तर को समझना ज़रूरी है. कल्पना कीजिए, 1942-43 में एक मुसलमान जवान ख़ातून किस क़दर गहराई से अपने आप को अपने रिश्ते को देखती हैं और एनालाइज़ करती हैं अपने माशरे को. इस स्तर की इंटेलेक्चुअल किस क़दर बेपनाह, बेतहाशा मोहब्बत करने लगीं जां निसार से, उससे लगता है कि उनमें ज़रूर कुछ रहा होगा.’

तरक्कीपसंद शायरी के स्तंभ कहे जाने के बावजूद अख़्तर साहब बुनियादी तौर पर एक रूमानी लहजे के ग़ज़लकार थे, जिन्हें लोग बोहेमियन शायर के तौर पर भी याद करते हैं. उनकी गज़लों में जो रोमांस है, वो रोमांस ही उनके काव्य का सबसे खूबसूरत और अहम पहलू है. उनकी उर्दू इतनी सहज और सलर है, कि हिंदी के बहुत करीब लगती है और शायद यही उनके लोकप्रिय होने की सबसे बड़ी वजह भी रही. अख्तर साहब सांप्रदायिक सौहार्द के कट्टर हिमायती थे. वतनपरस्ती उनमें कूट-कूट कर भरी थी.

मरहूम शायर निदा फ़ाज़ली जां निसार अख़्तर के बारे कहते हैं, “साहित्य में लगाव होने के कारण मैं जां निसार के करीब आ गया था और मेरी हर शाम कमोबेश उनके ही घर पर गुज़रती थी. मेरे जाने का रास्ता उनके घर के सामने से गुज़रता था. जब मैं सोचता था कि उनके यहां न जाऊं क्योंकि रोज़ जाता हूं तो अच्छा नहीं लगता, तो अक्सर अपनी बालकनी पर खड़े होते थे और मुझे गुज़रता देख कर पुकार लेते थे. वो दिन जां निसार अख़्तर के मुश्किल दिन थे. साहिर लुधियानवी का सिक्का चल रहा था. साहिर को अपनी तन्हाई से बहुत डर लगता था. जां निसार इस ख़ौफ़ को कम करने का माध्यम थे जिसके एवज़ में वो हर महीने 2000 रूपये दिया करते थे. ये जो अफ़वाह उड़ी हुई है कि वो साहिर के गीत लिखते थे, ये सही नहीं है लेकिन ये सच है कि वो गीत लिखने में उनकी मदद ज़रूर करते थे.”

प्रस्तुत हैं जां निसार अख़्तर के सुप्रसिद्ध ग़ज़ल-संग्रह ‘एक जवान मौत’ से चुनिंदा ग़ज़लें, जिसे वर्ष 1999 में ‘वाणी प्रकाशन’ ने प्रकाशित किया और इसे लोकप्रिय शायर निदा फ़ाज़ली ने संपादित किया. इस संग्रह में ऐसी कई ग़ज़लें हैं जिन्हें फिल्मों में डालॉग के तौर पर भी इस्तेमाल किया, साथ ही ऐसी तमाम ग़ज़लें जिन्हें पढ़ते हुए आप पाएंगे, कि इस लोकप्रिय ग़ज़ल को तो आप पहले भी कई बार सुन चुके हैं, लेकिन शायर के नाम से शायद वाकिफ नहीं थे…

1)
आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो

आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो
साया कोई लहराए तो लगता है कि तुम हो

जब शाख़ कोई हाथ लगाते ही चमन में
शर्माए लचक जाए तो लगता है कि तुम हो

संदल सी महकती हुई पुरकैफ़ हवा का
झोंका कोई टकराए तो लगता है कि तुम हो

ओढ़े हुए तारों की चमकती हुई चादर
नदी कोई बलखाए तो लगता है कि तुम हो

2)
हरेक रूह में इक ग़म छुपा लगे है मुझे

हर एक रूह में एक ग़म छुपा लगे है मुझे
ये ज़िन्दगी तो कोई बद-दुआ लगे है मुझे

जो आंसू में कभी रात भीग जाती है
बहुत क़रीब वो आवाज़-ए-पा लगे है मुझे

मैं सो भी जाऊं तो मेरी बंद आंखों में
तमाम रात कोई झांकता लगे है मुझे

मैं जब भी उस के ख़यालों में खो सा जाता हूं
वो ख़ुद भी बात करे तो बुरा लगे है मुझे

मैं सोचता था कि लौटूंगा अजनबी की तरह
ये मेरा गाओं तो पहचाना सा लगे है मुझे

बिखर गया है कुछ इस तरह आदमी का वजूद
हर एक फ़र्द कोई सानेहा लगे है मुझे

3)
हम ने काटी हैं तिरी याद में रातें अक़्सर

हमने काटी हैं तिरी याद में रातें अक़्सर
दिल से गुज़री हैं सितारों की बरातें अक़्सर

और तो कौन है जो मुझको तसल्ली देता
हाथ रख देती हैं दिल पर तिरी बातें अक़्सर

हुस्न शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-अलम है शायद
ग़मज़दा लगती हैं क्यों चांदनी रातें अक़्सर

हाल कहना है किसी से तो मुख़ातिब हो कोई
कितनी दिलचस्प, हुआ करती हैं बातें अक़्सर

इश्क़ रहज़न न सही, इश्क़ के हाथों फिर भी
हमने लुटती हुई देखी हैं बरातें अक़्सर

हम से इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक़्सर

उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक़्सर

हमने उन तुंद हवाओं में जलाए हैं चिराग़
जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक़्सर

4)
आए क्या क्या याद नज़र जब पड़ती उन दालानों पर

आए क्या क्या याद नज़र जब पड़ती इन दालानों पर
उस का काग़ज़ चिपका देना घर के रौशन-दानों पर

आज भी जैसे शाने पर तुम हाथ मिरे रख देती हो
चलते चलते रुक जाता हूं साड़ी की दूकानों पर

बरखा की तो बात ही छोड़ो चंचल है पुरवाई भी
जाने किस का सब्ज़ दुपट्टा फेंक गई है धानों पर

शहर के तपते फ़ुटपाथों पर गांव के मौसम साथ चलें
बूढ़े बरगद हाथ सा रख दें मेरे जलते शानों पर

सस्ते दामों ले तो आते लेकिन दिल था भर आया
जाने किस का नाम खुदा था पीतल के गुल-दानों पर

उस का क्या मन-भेद बताऊं उस का क्या अंदाज़ कहूं
बात भी मेरी सुनना चाहे हाथ भी रक्खे कानों पर

और भी सीना कसने लगता और कमर बल खा जाती
जब भी उस के पांव फिसलने लगते थे ढलवानों पर

शेर तो उन पर लिक्खे लेकिन औरों से मंसूब किए
उन को क्या क्या ग़ुस्सा आया नज़्मों के उनवानों पर

यारों अपने इश्क़ के क़िस्से यूं भी कम मशहूर नहीं
कल तो शायद नॉवेल लिक्खे जाएं इन रूमानों पर

5)
तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है

तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है
तुझे अलग से जो सोचूं अजीब लगता है

जिसे ना हुस्न से मतलब ना इश्क़ से सरोकार
वो शख्स मुझ को बहुत बदनसीब लगता है

हदूद-ए-जात से बाहर निकल के देख ज़रा
ना कोई गैर, ना कोई रक़ीब लगता है

ये दोस्ती, ये मरासिम, ये चाहते ये खुलूस
कभी कभी ये सब कुछ अजीब लगता है

उफक़ पे दूर चमकता हुआ कोई तारा
मुझे चिराग-ए-दयार-ए-हबीब लगता है

ना जाने कब कोई तूफान आयेगा यारों
बलंद मौज से साहिल क़रीब लगता है

6)
रुख़ों के चांद लबों के गुलाब मांगे है

रुखों के चांद, लबों के गुलाब मांगे है
बदन की प्यास, बदन की शराब मांगे है

मैं कितने लम्हे न जाने कहां गंवा आया
तेरी निगाह तो सारा हिसाब मांगे है

मैं किस से पूछने जाऊं कि आज हर कोई
मेरे सवाल का मुझसे जवाब मांगे है

दिल-ए-तबाह का यह हौसला भी क्या कम है
हर एक दर्द से जीने की ताब मांगे है

बजा कि वज़ा-ए-हया भी है एक चीज़ मगर
निशात-ए-दिल तुझे बे-हिजाब मांगे है

7)
जब लगे ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाए

जब लगे ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाए
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए

तिश्नगी कुछ तो बुझे तिश्नालब-ए-ग़म की
इक नदी दर्द के शहरों में बहा दी जाए

दिल का वो हाल हुआ ऐ ग़म-ए-दौरां के तले
जैसे इक लाश चट्टानों में दबा दी जाए

हम ने इंसानों के दुख दर्द का हल ढूंढ लिया
क्या बुरा है जो ये अफ़वाह उड़ा दी जाए

हम को गुज़री हुई सदियां तो न पहचानेंगी
आने वाले किसी लम्हे को सदा दी जाए

फूल बन जाती हैं दहके हुए शोलों की लवें
शर्त ये है के उन्हें ख़ूब हवा दी जाए

कम नहीं नशे में जाड़े की गुलाबी रातें
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाए

हम से पूछो ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या है
चंद लफ़्ज़ों में कोई आह छुपा दी जाए

8)
फुर्सत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारों

फुर्सत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारों
ये न सोचो कि अभी उम्र पड़ी है यारों

अपने तारीक मकानों से तो बाहर झांको
ज़िन्दगी शम्अ लिए दर पे खड़ी है यारों

हमने सदियों इन्हीं ज़र्रो से मोहब्बत की है
चांद-तारों से तो कल आंख लड़ी है यारों

फ़ासला चंद क़दम का है, मना लें चलकर
सुबह आयी है मगर दूर खड़ी है यारों

किसकी दहलीज़ पे ले जाके सजायें इसको
बीच रस्ते में कोई लाश पड़ी है यारों

जब भी चाहेंगे ज़माने को बदल डालेंगे
सिर्फ़ कहने के लिए बात बड़ी है यारों

उनके बिन जी के दिखा देंगे उन्हें, यूं ही सही
बात अपनी है कि ज़िद आन पड़ी है यारों

Tags: Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Javed akhtar, Literature

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