सकौड़े का झन्नाटेदार जायका टेस्ट किया है कभी, नहींं तो पढ़ लीजिए

हाइलाइट्स

बनारस, मिर्जापुर, प्रयागराज और कानपुर में खास जगहों पर मिलता है सकौड़ा
जोरदार टेस्ट और मिट्टी के कुल्हड़ या कसोरो में पेश किए जाने पर मन-मिजाज खिल उठता है

कौड़ा चाट का ही हिस्सा है. वैसे ही जैसे गोल-गप्पे या पकौड़े. ये दीगर बात है कि गोल गप्पे, चाट और पकौड़े राष्ट्रव्यापी हैं. इनके जायके को लेकर ‘उन्नीस-बीस और इक्कीस’ तक होने की बहस भी राष्ट्रीय है. जिक्र भर छेड़िए, यूपी, एमपी और राजस्थान के अलग अलग इलाके अपनी दलीलों के साथ पिल पड़ेंगे. फरियाना मुश्किल हो सकता है कि कहां की चाट बेहतर है, कहां के गोल गप्पे लाजवाब. बंगाल के लोगों से बात हो तो वे फैसला ही दे देंगे, उनके फुचका जैसा तो कहीं मिलता ही नहीं. इन सबसे अलग चाट का एक हिस्सा है सकौड़ा. सकौड़े पर दावेदारी बहुत छोटे से इलाके की है. गंगा के साथ साथ बनारस से कानपुर के बीच मिट्टी के कसोरे या छिछले कुल्हड़ में मिलने वाला ये चाट बेहद अलहदा और झन्नाटेदार है. हालांकि इसकी भी रिश्तेदारी, सीधी न सही, घूम फिर कर बंगाल से निकल ही जाती है. हालांकि फिलहाल ये बंगाल में चलन में नहीं है.

झन्नाटेदार जायका
सकौड़े का जायका झन्नाटेदार होता है. झन्नाटेदार से समझ में आ जाता है कि इसे खाने पर स्वादेंद्रीय समेत आंख और नाक भी सक्रिय हो जाती हैं. और आसान तकीसे से समझा हो तो कहा जा सकता है कि सागों का एक छोटा सा पकौड़ा तेल या भाप में पकाया जाता है. दूसरे पकौड़ों की ही तरह इसे भी बेसन के सहारे मिर्च मसाले और खटाई बगैरह लपेट कर तैयार किया जाता है. आकार में तकरीबन उतना ही बड़ा जितना कुछ इलाकों में रामलड्डू के नाम से मशहूर मूंग दाल के पकौड़े. इस जोरदार और चटपटा और झन्नाटेदार कहे जा सकने वाली तरी में डुबो कर परोसा जाता है. वो भी मिट्टी के कसोरो या फिर छिछले कुल्हड़ में. सुविधा के लिए लकड़ी के चम्मच. जब ये चम्मच न उतने चलन में नहीं थे, तब लोग कटहल के पत्तों से चम्मच का काम लिया करते थे.

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शुरुआत और रिश्तेदारी
दरअसल, इस सकौड़े की रिश्तेदारी बंगाल के एक खास पकवान से है. सीधी न सही, थोड़ा घुमा फिरा कर. वहां शाकाहार करने वालों ने माछेरझोल के जवाब में अरबी के पत्तों की रसेदार सब्जी बनानी शुरु की. अरबी के पत्तों की तरकारी बड़े ही कम समय में भोजपुरी इलाकों की रसोई में दाखिला पा लिया. हो सकता है इसके बंगाली वर्जन को भोजपुरी में इंप्रोवाइज किया गया हो. इस इलाके में अरबी के पत्तों पर बेसन और मसालों का लेप लगा कर उसे रोल कर लिया जाता है. इस रोल को किसी तरह भाप में पका कर गोल-गोल चक्कों में काट लिया जाता है. इन गोल चक्कों को सरसों की तरी या प्याज टमाटर की करी में डुबो कर इसकी बेहद जायकेदार तरकारी बनती है. अगर पाक विशेषज्ञों की किताबों को देखेंगे तो इस तरह के प्रयोग पूर्वी बंगाल में शुरु हुए. क्योंकि वहां जिन महिलाओं के पति मर जाते थे, उन्हें वैधव्य जीवन में बहुत कुछ खाने की मनाही होती थी. निषेधों में मांस-मछली और बहुत सारे मसाले भी थे. लिहाजा इन महिलाओं ने अपने भोजन को सुरुचिपूर्ण बनाने के लिए सरसो और हींग के प्रयोग से बहुत सारे नए स्वाद तैयार किए. अरबी की सरसो वाली तरकारी भी इन्ही प्रयोगों की उपज थी. लेकिन इसने बहुत जल्द ही परदेशियों के जरिए गंगा किनारे वाले हिस्सों की यात्रा कर ली. और वाराणसी, मिर्जापुर, इलाहाबाद कानपुर में चाट वालों के ठेलों तक पहुंच गई. एक बात ये भी देखने को मिलता है कि ये वाली चाट उन्ही इलाकों में ये सरवाइव कर पाई जहां मुगलई जायकों का दबदबा नहीं था.

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शौकीनों के लिए जुबान को जायका देने के साथ ये आंख और नाक को भी ‘आनंद’ दिला देता है.

बंगाल से भोजपुरी इलाकों की यात्रा
जायके की इस नई खेप को भोजपुरी अवधी बोलने वालों ने खूब पसंद किया. सकौड़ा उसी तरह का जायका देने वाला एक मिनिएचर है. अरबी के पत्ते तल्खी ज्यादा ले आते हैं. लिहाजा उसकी जगह पालक के पत्तों ने ले ली. साग के छोटे पकौड़ों और तरी के मेल का चाट बन कर गंगा किनारे बसे बनारस से लेकर कानपुर तक में रस घोलने लगा. हालांकि इसे जो मुकाम मिर्जापुर में हासिल हुआ वो दूसरे शहरों में नहीं मिल सका.

मिर्जापुर सकौड़े का हब
एक वक्त तक मिर्जापुर के रोजाना के चाट के तौर पर ये गोल-गप्पे और आलू टिक्की को चुनौती देता रहा. लोग इसे खा कर अपनी नाक और आंख समेत जुबान को तृप्त करते रहे. सुड़प-सुड़प कर इसे खाने का मजा किसी और मयार तक ले जाता है. दूसरे किसी चाट में इस तरह का जायका नहीं था, क्योंकि तरी की तल्खी को साग के पत्ते एक हद तक बैलेंस करते हैं. सकौडे के शौकीन इलाहाबाद के सिविल लाइंस में हीरा हलवाई के पास लगने वाले ठेले के गाहक उसके जायके को याद करते रहते हैं. बनारस और कानपुर में एक दो ठिए हैं, जिनके रास्ते सकौड़े के दीवानों को पकड़ ही लेते हैं. लेकिन मिर्जापुर में अब भी सकौड़े के कुछ खास ठेले तो हैं ही, ज्यादातर गोल गप्पे वाले और चाट वालों के ठेलों पर ये होता ही है. मिर्जापुर ने चाट के इस लाजवाब रेसीपी का इज्जत के साथ बरकरार रखा है.

घर में भी बन सकता है लेकिन ठेले वाले की बात अलग है
आप चाहें तो इसे घर पर भी बना सकते हैं. पालक के पत्तों को पकौड़े की तरह बना ले. कहने की जरुरत नहीं है कि उसमें आप मसाले के तौर पर बेसन, नमक मिर्च, थोड़ा अजवाइन, हींग, खटाई वगैरह तो डालेंगे हीं. पीली मिर्च से टेस्ट और शानदार हो जाएगा. अगर तेल से परहेज करते हों तो इसे मोमो बनाने वाले में या किसी और युक्ति से भाप पर पका लें. अब अपने जायके के मुताबिक करी बना कर उसमें डुबो लें. अपनी रुचि के मुताबिक करी को कम या ज्यादा तीखा और चटपटा कर सकते हैं. जायकेदार, मजेदार सकौड़ा आपके किचन में भी बन सकता है, लेकिन अगर असली झन्नाटेदार जायका चाहते हैं तो मिर्जापुर-बनारस या फिर कानपुर की अगली यात्रा में सकौड़े का ठेला खोज लें.

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