सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि मंदिरों पर 10 प्रतिशत का टैक्स लगाना एक तरह से जजिया वसूलने जैसा है। उन्होंने सवाल उठाया है कि मठों-मंदिरों की एक लाख करोड़ रुपए की संपत्ति सरकारें क्यों नहीं छोड़ना चाहतीं?
कई राजनीतिक पार्टियां हिंदुत्व को मुद्दा बनाकर राजनीति करती हैं लेकिन उन्होंने कभी भी देश के हिंदू मठों और मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने की पहल नहीं की। सवाल उठता है कि केवल मठ मंदिर सरकार के कंट्रोल में क्यों हैं? मस्जिद और चर्च सरकार के कंट्रोल में क्यों नहीं हैं? मजार और दरगाह सरकार के कंट्रोल में क्यों नहीं हैं? सवाल उठता है कि आखिर एक देश एक धर्मस्थल संहिता कब बनेगी? देखा जाये तो मठों और मंदिरों पर नियंत्रण के लिए तमाम राज्य सरकारों ने 35 कानून बनाये हुए हैं लेकिन चर्चों, मस्जिदों और दरगाहों पर नियंत्रण के लिए एक भी कानून नहीं है। हमारा संविधान धर्मनिरपेक्षता की बात कहता है लेकिन सिर्फ एक धर्म के उपासना स्थलों पर सरकारी नियंत्रण कौन-सी धर्मनिरपेक्षता है?
भारत के पीआईएल मैन के रूप में विख्यात सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि मंदिरों पर 10 प्रतिशत का टैक्स लगाना एक तरह से जजिया वसूलने जैसा है। उन्होंने सवाल उठाया है कि मठों-मंदिरों की एक लाख करोड़ रुपए की संपत्ति सरकारें क्यों नहीं छोड़ना चाहतीं? इस मुद्दे पर अश्विनी उपाध्याय ने उदाहरण देते हुए कहा कि जब मुंबई में सिद्धि विनायक मंदिर सरकार के नियंत्रण में है तो हाजी अली की दरगाह पर सरकारी नियंत्रण क्यों नहीं है? उन्होंने कहा कि जब मंदिरों का चढ़ावा सरकारी खजाने में जाता है तो मस्जिदों, दरगाहों और चर्चों में आने वाला दान सरकारी खजाने में क्यों नहीं जाता?
वहीं दूसरी ओर, हिंदू संतों का कहना है कि सरकारें केवल मंदिरों की संपत्ति का अधिग्रहण करती हैं, मस्जिद या चर्च का नहीं। संतों का यह भी कहना है कि यदि सरकार मंदिर को जनता की संपत्ति समझती है तो पुजारियों को वेतन क्यों नहीं देती? संतों का यह भी कहना है कि यदि मस्जिदें मुस्लिमों की निजी संपत्ति हैं, तो मौलवियों को सरकारी खजाने से वेतन क्यों दिया जाता है?
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