श्रीराम की जीवनधारा किसी को किनारे छोड़कर आगे नहीं बढ़ती

भारत के राम भारत राष्ट्र के हृदय की धड़कन हैं। राम राष्ट्र हैं। वे भारत राष्ट्र की पहचान हैं। राम का नाम लेकर यहां का वासी अपनी जिंदगी की घड़ियां गुजारता है। राम उसके भगवान हैं मर्यादा पुरुष भी। राम स्वयं काल हैं, वे काल सत्य हैं। वे खण्डित नहीं, अखण्ड हैं। उन्हें काल खण्डों में नहीं बांटा जा सकता। श्रीराम भारत राष्ट्र की शक्ति हैं। वे राष्ट्रीय ऊर्जा से स्रोत हैं। वे राष्ट्र के शरीर भी हैं और मन भी। ईश्वरीय सत्ता श्रीराम का शरीर धारण करके भारत भूमि पर उतरी थी। वे संपूर्ण मानवीय चेतना और संवेदना का पुंज थे। श्रीराम ने मनुष्य को मनुष्य का आचरण बताया था। मनुष्य को उत्कर्ष और उत्सर्ग की कला सिखायी थी। राम का जीवन आदि, मध्य और अन्त की कथा नहीं है। वह सनातन हैं, निरन्तर हैं, नित्य हैं, नूतन हैं। सार्वकालिक और सार्वभौमिक हैं।

श्रीराम के चरित्र के साथ ही मानव समाज के लिए उदात्त मानवीय आदर्शों का प्रणेता उपस्थित होता है। श्रीराम, जो राजतंत्र को लोकतंत्र का स्वरूप प्रदान करते हैं, विवष और संकटग्रस्त होकर भी कभी नहीं टूटते हैं, स्वयं शोषित रहकर जन-जन को परिपोषित करते हैं, विपरीत परिस्थितियों में भी निष्ठा, उदारता, सरलता, सहिष्णुता से विचलित नहीं होते हैं, वे ही भारतीय चिन्तन में मानवीय अवधारणा के प्रतिरूप हैं।

इस देश को प्रेरणा के लिए चाहिए प्रकाश पुंज साक्षात उदाहरण, कोई ऐसा ज्वलंत जीवन जो देशवासियों का केंद्रबिंदु हो। भारत के पास यह ज्वलंत जीवन है। उसके पास उसका राम है। यहां की जनता अपने राम से जुड़ रही है। वह अपने देश की राजनीति को राम केंद्रित बना रही है कि कोई व्यक्ति या दल देश के शासन तंत्र का उपयोग और संचालन अपने लिए नहीं, सबके सुख, सबकी समृद्धि और सबकी निरामयता के लिए करे।

श्रीराम भारत के प्रकाश हैं और भारत विश्व का प्राणाधार। राम, भारत और विश्व को अन्योन्याश्रित संबंध है। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और सृष्टि का प्रत्येक अंश राम का अंश है। रामांश होने का अर्थ है जीवन की अनगढ़ता का अंत और अनगढ़ कृत्यों के अपराध से मुक्ति। अनगढ़ अर्थात् असंस्कृत कृत्यों के अपराध से मुक्ति अर्थात् मंगलमय जीवन का प्रारंभ। यह मंगलमयता व्यक्ति को समाज, राष्ट्र अैर विश्व के साथ एकात्म करती है। मंगलमयता ही परिवर्तन का बीज है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि विभेदकारी राजनीति द्वारा क्षतिग्रस्त भारतीय समाज की संरचना दिन-प्रतिदिन बिखरती गई। श्रीराम से जुड़कर उसे एक बार फिर एकात्मबोध को संदेश मिला है। श्रीराम भारतीय सामाजिक संरचना के संवेदनशील तंतु और तत्व ही नहीं हैं, वे राष्ट्रीय अखण्डता की आधारभूमि भी हैं।

श्रीराम परिवर्तन का नाम है। संबंधों और संबोधनों तक में परिवर्तन परिलक्षित हो रहा है। भाषा और भावनाएं परिवर्तित हो रही हैं। परिवार, व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की धारणा और अवधारणा भी बदल रही है। जो लोग देश—दशा का दर्शन केवल समाचार पत्रों या न्यूज चैनल के समाचारों और शीर्षकों से करते हैं वे निराश हैं, किंतु जो देश की धरती पर लिखे जा रहे इतिहास के संदेश और सामचार से जुड़े हैं वे आशान्वित हैं। वे उज्ज्वल भविष्य का दर्शन कर रहे हैं।

समाचार पत्रों, न्यूज चैनलों, गोष्ठियों और डिबेट में जिस तरह की चर्चा होती है वह असली भारत नहीं है। वह भारत का यर्थाथ भी नहीं है। वे सभी वास्तविकता से कटे हुए है। संदर्भहीन हैं। असली भारत देशवासियों के मन में, खेत खलिहानों में, कर्मरत किसानों में, युवकों के अंतःकरण में स्फुरित हो रही आस्था में अपना नवीन रूपाकार ग्रहण कर रहा है। विकृत बुद्धि वाले लोग परेशान ही इस कारण से हैं कि उनके थोथे चने का बजना बंद हो रहा है। ये जितना अधिक जोर से चीखेंगे, उनकी आवाज जितनी अधिक ऊंची होती जाएगी, श्रीराम के भारत के उदय की संभावना उतनी ही सबल और उतनी ही समीप आती जाएंगी।

श्रीराम मंदिर निर्माण के कारण हो रहे मंगलमय परिवर्तन का सर्वत्र अनुभव किया जाने लगा है। श्रीराम की चेतना के कारण मानवता के विकास की दिशा स्पष्ट हो रही हैं। भारत की चिरगरिमा प्रतिष्ठा पा रही है। भारत अपनी विसंगतियों को दूर करने की दिशा में प्रवृत्त हो रहा है। भारत की राष्ट्रीय अस्मिता वास्तविक रूप में अभिव्यक्त होने को है। जो लोग श्रीराम को स्वीकार नहीं करते वे सीधे और स्पष्ट शब्दों में उन्हें नकार भी नहीं पा रहे हैं। समस्त विश्व को प्रभावित करने में श्रीराम मंदिर की महान् भूमिका का महत्व मौनभाव से ही सही, स्वीकार किया जाने लगा है। श्रीराम के भाव और कर्मतंतु से जुड़े इस देश में अब सब कुछ बदलने की स्थिति में है। परिवर्तन शिशु के जन्म के पूर्व की सुखद पीड़ा आरंभ हो चुकी है। 22 जनवरी को भरी दुपहरी में यह परिवर्तन श्रीराम की तरह संपूर्ण भारत भूमि और देशवासियों के मन में जन्म लेगा और सब कुछ बदला-बदला सा नहीं, बदला हुआ होगा। यह आश्वासन मेरा नहीं, अपने देश के तपस्वी और त्रिकालदर्शी सिद्ध पुरुषों का है।

हम, हमारा समाज और राष्ट्र परेशान क्यों हैं? केवल इसलिए कि व्यक्ति समाज और राष्ट्र जीवन का उलझा हुआ संबंध अभी तक सुलझ नहीं पाया, उसे व्यवस्थित नहीं किया गया, उसे व्यवस्थित नहीं किया जा सका। विकास की दिशा निश्चित नहीं की जा सकी। श्रीराम आज व्यक्ति समाज और राष्ट्र के जीवन चरित्र के रूप में एक बार सबके सामने खड़े हैं। विकास की अपराधी अवधारणा की कलई खुलने लगी है और उलझा संबंध अब सुलझने सुधरने लगा है। गत 76 वर्षों में यह प्रथम बार हुआ है कि सत्तातंत्र और राजनीति अर्थतंत्र की जमीन से आस्था की भूमि की ओर मुड़ रही है। अर्थतंत्र में उलझी राजनीति श्रीराम की जनआस्था पर आरुढ़ होकर चिरगुलामी और गुलामी के प्रतीकों से मुक्त हो रही है। अर्थतंत्र ने ही इस देश को मुगलों और अंग्रेजों की गुलामी में जकड़कर उनकी सत्ता की स्थापना की थी। मुगलों की विलासिता और अंग्रेजों की लूट ने देश को कंगाल और कमजोर किया। भारत की राजनीतिक दासता का दोषी अर्थतंत्र है। जो लोग पैसे को ही परमेश्वर मानते हैं, उनके ही आश्रम में कांग्रेस कल्चर का विकास हुआ है।

देश की राजनीति का अर्थ से आस्था की ओर मुड़ना एक शुभ संकेत है। अर्थ दासता, लोभजनित कुण्ठा और क्रूरता को जन्म देता है, उसका आयाम बहुत सीमित है। आस्था का आयाम बहुत बड़ा और बहुत व्यापक है। आस्था का तप-त्याग, सेवा-समर्पण, मैत्री और बंधुता को बोध है। उसमें अपनत्व है, सबको आत्मवत समझने की सहज प्रवृत्ति है। दुःख-दारिद्रय के प्रति दया भाव ही नहीं, उसको समाप्त करने के लिए कर्म चेतना जागृत करने की क्षमता भी है। अर्थतंत्र मुक्त राजनीति श्रीराम से जुड़ेगी तो भूख का शमन स्वतः और सहज भाव से होगा।

वास्तव में, भारत का अपने राम की आस्था और आदर्शों पर लौटना किसी बाहरी दबाव के कारण नहीं हुआ। जिन लोगों को इसके कारण केवल राजनीतिक दिखते हैं, वे या तो भयंकर भूल कर रहे हैं, अथवा उन्हें संस्कृति की महाशक्ति का ठीक तरह से ज्ञान नहीं है। राम देश का स्वभाव हैं। देश उनके बिना नहीं रह सकता और यही कारण है कि जब-जब भारत अपने स्व-भाव राम की ओर बढ़ा है, तब-तब उसकी तेजस्विता बढ़ी है, धर्म जागृत हुआ है और मनोरथसिद्ध मुस्कान उसने प्राप्त की है। ये जान लीजिए श्रीराम की जीवनधारा किसी को किनारे छोड़कर आगे नहीं बढ़ती, वह सबको लेकर, सबके साथ-साथ सबके सम्मान को अक्षुण्ण रखते हुए ही आगे बढ़ती है।

-आशीष वशिष्ठ

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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