शिवानी जैसी लोकप्रिय लेखिका किसी भाषा में कम ही होती हैं

हिंदी में लोकप्रियता और श्रेष्ठता को लेकर विवाद लंबे समय से चला आता रहा है. कुछ लोग लोकप्रिय साहित्य में श्रेष्ठता का तत्व नहीं देखते हैं जबकि, कुछ लोगों का मानना है कि श्रेष्ठता का कोई एक मानक और मानदंड नहीं है. इसलिये हर रचना या कलाकृति को इस कसौटी पर नहीं कसा जा सकता है. इसलिए श्रेष्ठता के नाम पर लोकप्रिय को हाशिये पर नहीं धकेला जा सकता है. हिंदी साहित्य के इतिहास में देखा यह गया है कि लोकप्रिय साहित्य को दोयम दर्जे का माना गया है और उसे साहित्य की मुख्य धारा में शामिल नहीं किया गया है. दूसरी तरफ यह भी देखा गया है कि जिसे हम अक्सर श्रेष्ठ साहित्य कहते हैं वह समाज में उतना लोकप्रिय नहीं है और उसके पाठकों की संख्या बहुत कम है.

आखिर किसी रचनाकार के लिए साहित्य सृजन का उद्देश्य क्या है? क्या वह अधिक से अधिक पाठकों तक पहुंचने का पक्षधर नहीं है और क्या वह नहीं चाहता कि अधिक से अधिक पाठक उसकी रचना का रसास्वादन करें. लेकिन कई बार यह भी देखा जाता है कि जो लोकप्रिय रचनाकार है उसको आलोचकों ने श्रेष्ठ साहित्यकार नहीं माना है. जबकि आलोचकों ने जिनको श्रेष्ठ रचनाकार माना है उसे पाठकों ने कई बार खारिज भी कर दिया है. लोकप्रियता और विशेषता का संतुलन हिंदी के बहुत कम लेखकों में देखा गया है. प्रेमचंद इसके अप्रतिम उदाहरण है. उनका साहित्य लोकप्रियता और श्रेष्ठता, दोनों की कसौटियों पर खरा उतरा है और यही कारण है कि बीसवीं सदी के सबसे बड़े लेखकों में प्रेमचंद की गणना होती है और प्रेमचंद आज भारतीय साहित्य और भारतीय यथार्थ के विश्व स्तर पर प्रतीक बन गए हैं. भारत की पहचान जिन लोगों से बनी है उनमें रवींद्रनाथ टैगोर, मुंशी प्रेमचंद और मिर्जा गालिब हैं और तीनों लोकप्रिय हैं.

आखिर क्या कारण है कि इन लोगों ने साहित्य में अपना श्रेष्ठ मानक भी पेश किया और पाठकों में लोकप्रिय स्थान भी बनाया लेकिन हिंदी में कुछ ऐसे लेखक हैं जिन्हें आलोचकों ने मुख्य धारा से लगभग बहिष्कृत कर दिया.

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यह वर्ष हिंदी की लोकप्रिय लेखिका शिवानी का जन्मशती वर्ष है. इस वर्ष इस सवाल को उठाया जाना चाहिए कि आखिर हम लोकप्रिय साहित्य से क्यों नाक-भौं सिकुड़ते हैं? क्या यह हमारी अभिजनवादी, कलावादी दृष्टि है जो पाठकों की अभिरुचि और बोध को कमतर मानती हैं. हम मान के चलते हैं कि पाठकों का विवेक और आलोचकों के विवेक में बहुत फर्क होता है और यही कारण है कि हम लोकप्रिय साहित्य को संदेह की दृष्टि से देखते रहे. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लोक कला या लोक साहित्य में जो लोकप्रियता का तत्व है वह उसे श्रेष्ठ भी बनाता है. शेक्सपियर, टॉलस्टॉय, चेखव, दासतोवस्की, मोपासां, ओ हेनरी तथा हेमिंग्वे बहुत लोकप्रिय और श्रेष्ठ भी हैं. तुलसी, कबीर, रैदास लोकप्रिय और श्रेष्ठ भी हैं.

हिंदी साहित्य के इतिहास को देखें तो पता चलता है कि राष्ट्रीय आंदोलन में हिंदी के प्रचार-प्रसार में महावीर प्रसाद द्विवेदी, मुंशी प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, जयशंकर प्रसाद, रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन, महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. आजादी के बाद जैनेंद्र, अज्ञेय, मुक्तिबोध, नागार्जुन आदि ने इस भूमिका को आगे बढ़ाया. इसी तरह महिला कथाकारों में शिवरानी देवी, चन्द्रकिरण सोनेरेक्सा, शिवानी, कृष्णा सोबती तथा मन्नू भंडारी ने हिंदी साहित्य को जन-जन तक पहुंचाने में अपना महत्वपूर्ण अवदान दिया. लेकिन हिंदी की मर्दावादी आलोचना ने शिवानी को मान्यता नहीं दी और उनके लेखन को पॉपुलर लेखन कह कर खारिज किया. इस साहित्यिक हादसे के शिकार रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन और शैलेन्द्र भी हुए जो जनता में काफी लोकप्रिय थे. यह वर्ष शिवानी का ही नहीं बल्कि शची रानी गुर्टू और सावित्री सिन्हा का भी जन्म शताब्दी वर्ष है लेकिन हिंदी जगत की मुख्यधारा में इन महिला रचनाकारों की जन्मशती को लेकर कोई दिलचस्पी दिखाई नहीं पड़ती. खासकर अकादमियों, लेखक संगठनों और प्रतिष्ठानों की नजर में.

शिवानी हिंदी की एक ऐसी लोकप्रिय लेखिका थीं जो हर घर तक पहुंची थीं. यानी दादी, नानी से लेकर मौसी और बुआ तक सभी उनकी पाठक थीं. “धर्मयुग” में जब उनके उपन्यास छपते थे तो हिंदी प्रदेश के पाठक बेसब्री से उनका इंतजार करते थे.

17 अक्टूबर, 1923 को गुजरात के राजकोट में जन्मी शिवानी ने न केवल कहानी और उपन्यास लिखे बल्कि यात्रा संस्मरण, संस्मरण और अन्य विधाओं में भी अपनी लेखनी चलाई. उन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी. शिवानी के लेखन की शुरुआत महज 12 वर्ष की अवस्था में हुई थी, तब से लेकर उन्होंने अपने पूरे जीवन काल में विपुल साहित्य का सृजन किया. लेकिन यह दुर्भाग्य है कि हिंदी की पितृसत्तात्मक आलोचना ने उनका मूल्यांकन नहीं किया पर पाठकों ने उन्हें अभूतपूर्व प्यार और सम्मान दिया.

शिवानी की पहली रचना अल्मोड़ा से निकलनेवाली ‘नटखट’ नामक एक बाल-पत्रिका में छपी थी. तब वे मात्र बारह वर्ष की थीं. इसके बाद वे पंडित मदन मोहन मालवीय जी की सलाह पर पढ़ने के लिए अपनी बड़ी बहन जयंती और भाई त्रिभुवन के साथ शान्तिनिकेतन भेजी गईं. जहां स्कूल तथा कॉलेज की पत्रिकाओं में बांग्ला में उनकी रचनाएं नियमित रूप से छपती रहीं. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उन्हें ‘गोरा’ पुकारते थे. उनकी ही सलाह को, कि हर लेखक को मातृभाषा में ही लेखन करना चाहिए, शिरोधार्य कर उन्होंने हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया.

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और हजारी प्रसाद द्विवेदी के सानिध्य में साहित्य सृजन करने वाली इस लेखिका ने कुमाऊं की संस्कृति को अपनी रचना में ढाला और पहाड़ की स्त्री के श्रम और सौंदर्य को रूपायित किया. उन्होंने अपनी रचनाओं से हिंदी की कई पीढ़ियों को साहित्य सृजन की तरफ प्रेरित किया. नए लेखकों को एक रचनात्मक ताकत और ऊर्जा प्रदान की. ‘कृष्णकली’, ‘भैरवी’, ‘विषकन्या’, ‘कैंज़ा’, ‘श्मशान चंपा’, ‘रति विलाप’, ‘लाल हवेली’ जैसी चर्चित कृतियां को कौन भूल सकता है जिसने पाठकों के मन में न केवल घर बनाया बल्कि शिवानी को भी अमर कर दिया. उन्हें अपने जीवन काल में पद्मश्री समेत अनेक सम्मानों से नवाजा गया. 79 वर्ष की आयु में 21 मार्च, 2003 को इस लोकप्रिय लेखिका ने दुनिया को अलविदा कह दिया और अपनी थाती दो विदुषी पुत्रियों मृणाल पांडेय और इरा पांडेय को सौंप दी जो अपनी मां की गौरवशाली परंपरा को जारी रखे हुए हैं. शिवानी जैसी लोकप्रिय लेखिका किसी भाषा में कम ही होती हैं. शिवानी को याद करना स्त्रीशक्ति को याद करना है जो अपनी प्रतिभा लगन और मेहनत तथा संघर्ष से समाज में अपनी विशिष्ट पहचान बनाती है और स्त्री मुक्ति की एक बुलंद आवाज़ बनती है. इस तरह वह समाज के विकास में अपना महती अवदान देती है.

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