पश्चिम बंगाल के उत्तर 24-परगना जिले में कालिंदी नदी के किनारे बसा गांव संदेशखाली पिछले कई दिनों से चर्चाओं में है। तृणमूल कांग्रेस के नेता शाहजहां शेख और उसके दो सहयोगियों पर यहां की महिलाओं ने कथित अत्याचार और यौन उत्पीड़न के कई गंभीर आरोप लगाए हैं। संदेशखाली की पीड़िताओं ने जो बातें बताई हैं, वह 21वीं सदी में अकल्पनीय है। ऐसे में अहम सवाल है कि कोई शाहजहां शेख कैसे इतना निरंकुश हो जाता है? शाहजहां जैसे अत्याचारियों को ताकत कहां से मिलती है? इन सवालों का जवाब भाजपा प्रवक्ता एवं सांसद सुधांशु त्रिवेदी के बयान के छिपा है। सुधांशु के अनुसार, ‘‘जो कुछ संदेशखाली में हो रहा है वो मात्र एक घटना नहीं बल्कि एक राजनीति सोच है, जो 78 वर्ष पूर्व नोआखाली से लेकर आज के संदेशखाली तक बंगाल के लिए नासूर बनती जा रही है। शाहजहां शेख एक व्यक्ति नहीं एक प्रवृत्ति है जिसे मात्र बंगाल में नहीं बल्कि पूरे भारत में एक विशेष प्रकार का सेक्युलर संरक्षण प्राप्त है।’’
राजनीतिक इतिहास के पन्ने पलटें तो कांग्रेस पार्टी को मुस्लिम तुष्टिकरण की जननी कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। आजादी के बाद नेहरू से वर्तमान तक पार्टी तुष्टिकरण की राजनीति को समर्पित रही है। आजादी के बाद घरेलू ही नहीं, विदेशी नीति भी तुष्टिकरण से तय होती थी। सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि जिन मुसलमानों के नाम पर कांग्रेस ने देश में तुष्टिकरण की नीति का आगाज किया उन मुसलमानों की माली हालत सुधरने की बजाय बिगड़ती चली गई। दूसरी विडंबना यह हुई कि कांग्रेसी तुष्टिकरण का संक्रमण क्षेत्रीय पार्टियों, मीडिया और बुद्धिजीवियों तक होता गया।
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार मुस्लिम तुष्टिकरण के बलबूते ही सत्ता में आई थी। सत्ता पर काबिज होने के बाद से तृणमूल की सरकार ने मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए हिंदुओं व दूसरे समुदायों की पूरी तरह अनदेखी की। हिन्दुओं के धार्मिक उत्सवों और यात्राओं तक में सरकार ने अड़चनें लगाने का काम किया। पश्चिम बंगाल में हिन्दुओं की जो दुर्दशा हो रही है, वो किसी छिपी नहीं है। तृणमूल के नेता और कार्यकर्ता जिस तरह का अत्याचार कर रहे हैं, वो सुनकर हैरानी होती है कि हम किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहते हैं और पश्चिम बंगाल में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार है। पश्चिम बंगाल हो या फिर दिल्ली, मुस्लिम तुष्टिकरण को लेकर इनमें होड़ है। दिल्ली के दंगों में आम आदमी पार्टी के नेताओं की भूमिका सर्वविदित है। दिल्ली में शाहीन बाग प्रदर्शन के पीछे भी मुस्लिम तुष्टिकरण वाली राजनीतिक ताकतें अपना चेहरा चाहकर भी छुपा नहीं पाई थीं। तेलंगाना में जब बीआरएस और राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार थी, तब वहां मुस्लिम तुष्टिकरण ही राज्यनीति था। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल जब सरकार की हिस्सेदार थी, तब वहां भी मुस्लिम तुष्टिकरण चरम पर था।
आजादी के बाद देश में जिस मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति को जो बीज बोया गया, वह आगे चलकर वट वृक्ष बन गया। भारत दुनिया का इकलौता देश बना जहां बहुसंख्यकों के हितों की कीमत पर अल्पसंख्यकों को वरीयता दी गई। कांग्रेसी तुष्टिकरण का पहला नमूना आजादी के तुरंत बाद देखने को मिला जब देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने गुलामी के पहले कलंक को मिटाने के लिए भव्य सोमनाथ मंदिर बनाने की पहल की। लेकिन मुस्लिम परस्ती के चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने न सिर्फ सोमनाथ मंदिर के नवीनीकरण और पुनर्स्थापना के कार्य से खुद को अलग कर लिया बल्कि तत्कालीन सौराष्ट्र के मुख्यमंत्री को आदेश दिया कि मंदिर निर्माण में सरकार का एक भी पैसा नहीं लगना चाहिए। इतना ही नहीं, जब राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद पुनर्निमित सोमनाथ मंदिर का उद्घाटन करने जाने लगे तब नेहरू ने उन्हें रोकने की नाकाम कोशिश भी की।
वोट बैंक की राजनीति की विवशता को कतिपय राजनीतिक दल, दल विहीन राजनेता और बुद्धिवादी देश का स्थायी भाव बना देने की जी तोड़ कोशिशें कर रहे हैं। स्वभावतः पंथनिरपेक्ष भर को सुनियोजित ढंग से पंथ और मजहब के संदर्भ में सोचने, जीने और अपना मानस बनाने को कहा जा रहा है कि यदि ऐसा सोचा और किया न गया तो देश साम्प्रदायिकता की आग में जलकर राख बन जायेगा। यदि संक्षेप में और कुछ वाक्यों में कहें तो आज के भारत की धर्म (पंथ) निरपेक्षता मुस्लिम सापेक्षता का पर्याय है। दोनों एक दूसरे के दास हैं। दोनों की आधार भूमि है सत्ता राजनीति। यह मान लिया गया है कि मुस्लिम सापेक्ष न होना पंथनिरपेक्षता का विरोधी होना है। यह कि यदि हमारी सोच का केंद्र बिंदु मुसलमान नहीं है तो हम भारत राष्ट्र को तोड़ने की दिशा में बढ़ रहे हैं। यदि हम किसी अबोध शिशु की दुधमुंही मुस्कान से प्राप्त होने वाले आत्म और वात्सल्य का अनुभव नहीं करते, तो हम मुस्लिम ही नहीं, भारत विरोधी भी हैं। और यह कि यदि हम अपने आचार विचार से हिन्दू विरोधी नहीं हैं तो हम सेकुलर नहीं हैं। अतएव यदि हमें सेकुलर बने रहना है तो हमें चाहिए कि हम कश्मीर घाटी से भगा दिये गये हिन्दुओं की पीड़ा प्रताड़ना, उनके दुख और दैन्य की बात न करें। कन्हैया लाल की हत्या और संदेशखाली पर मुंह बंद रखें। यानी हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचारों जिसमें सरकारें और राजनीतिक दल शामिल हैं, को अनदेखा करें।
कांग्रेस की इस तुष्टिकरण की नीति का असर दूसरी राजनीतिक पार्टियों पर भी पड़ा और वे मुस्लिम वोट बैंक छिटकने के डर से हिंदुओं के हित में बोलने से कन्नी काटने लगीं। लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, ममता बनर्जी, एन चंद्रबाबू नायडू, अरविंद केजरीवाल, चंद्रशेखर राव जैसे नेताओं की मुस्लिमपरस्ती एक दिन में नहीं आई है। यह सब कांग्रेसी तुष्टिकरण रूपी वटवृक्ष के फल हैं। दरअसल कांग्रेस द्वारा क्षेत्रीय अस्मिताओं की उपेक्षा और तानाशाही से उपजी क्षेत्रीय पार्टियों ने मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए मुसलमानों के सशक्तिकरण की बजाय तुष्टिकरण का कांग्रेसी फार्मूला अपना लिया। इसका नतीजा यह हुआ कि एक ओर मुसलमानों का पिछड़ापन बढ़ा तो दूसरी ओर कट्टरपंथ को उर्वर जमीन मिली। ‘तुष्टीकरण’ की राजनीति ने मुख्यरूप से मुस्लिमों के बीच की ‘मलाईदार पर्त’ को ही फायदा पहुंचाया। इससे कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति का खोखलापन उजागर होता है।
कांग्रेस का इतिहास खुद इस बात का गवाह है कि उसने अपनी पूरी राजनीति तुष्टीकरण को आधार बनाकर ही की है और अल्पसंख्यकों में भी उसने सबसे अधिक मुस्लिम वोटों पर अपना ध्यान केंद्रित किया है, क्योंकि मुस्लिम वोट देश के कई हिस्सों में निर्णायक साबित होते हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का बनता है। साल 2018 में उर्दू अखबार इंकलाब की एक रिपोर्ट के अनुसार, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा मुस्लिम बुद्धिजीवियों के बीच कथित तौर पर अपनी पार्टी को मुस्लिमों की पार्टी बताया गया था। कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की जीत की बड़ी वजह मुसलमानों का थोक वोट मिलना था। पिछले साल मुस्लिम वोटों की बदौलत कांग्रेस तेलंगाना में सत्ता हासिल करने में सफल रही।
राजनीतिक दल वोट बैंक के लिए तुष्टिकरण का सहारा लेते आए हैं। राजनीतिक दलों ने अपने एजेंडे के हिसाब से धर्म व संप्रदाय बांट रखे हैं और उसके तुष्टिकरण में वो किसी भी हद तक चले जाते हैं। सच्चाई यह है कि तुष्टिकरण देश के विकास, सद्भाव, भाईचारे, सुरक्षा और शांति के लिए हानिकारक है। मौकापरस्त, स्वार्थी और गलत प्रवृत्ति के व्यक्ति तुष्टिकरण की आड़ में अन्याय, अनाचार, दुराचार और पाश्विकता करते हैं जो शाहजहां शेख और उसके गुर्गों ने संदेशखाली में किया। सही मायनों में संदेशखाली में जो कुछ हुआ वो राजनीतिक तुष्टिकरण का कुफल है। राजनीतिक दलों को तुष्टिकरण की राजनीति से बाज आना चाहिए, इसी में सबकी भलाई है।
– डॉ. आशीष वशिष्ठ
(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं)