नीतीश कुमार इन दिनों फिर से सुर्खियों में हैं. और हों भी क्यों ना. बिहार के नौवीं बार मुख्यमंत्री जो बने हैं. पिछले कुछ दिनों से हिचकोले खा रही बिहार की राजनीति एक बार फिर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन- एनडीए की करवट बैठ कर शांत हो गई है. नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव की लालटेन बुझा कर घर में कमल खिला लिया है. नीतीश कुमार के इस कदम से उनके व्यवहार और व्यक्तित्व को लेकर फिर से चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया है. ऐसे में नीतीश कुमार की जीवनी के पन्ने आंखों के सामने पलटने लगे हैं.
उदय कांत की लिखी पुस्तक ‘नीतीश कुमारः अंतरंग दोस्तों की नजर से’ जब से बाजार में आई है तभी से सुर्खियां बटोर रही है, क्योंकि इसके हर सफ्हे पर नीतीश से जुड़ा कोई ना कोई रोचक किस्सा उकेरा गया है. नीतीश कुमार के राजनीति जीवन और पुस्तक पर नजर डालने के बाद ये बात तो तय हो जाती है कि नीतीश कुमार जीवन किसी अचम्भे से तो कतई कम नहीं है. राजकमल प्रकाशन से छपकर आई इस पुस्तक में इंजीनियर से बिहार की गद्दी तक के सफर में नीतीश कुमार के बारे में ऐसी अनेक बातें हैं जो उनके व्यक्तित्व को प्रदर्शित करती हैं. यहां पर इस पुस्तक के माध्यम से नीतीश कुमार के जीवन के उन पहलुओं को सामने लाने का प्रयास किया जा रहा है, जिनके माध्यम से हम जानेंगे कि नीतीश केवल एक सुलझे हुए राजनेता ही नहीं हैं, बल्कि बहुत पढ़ाकू, झुझारू, कोमल ह्रदय और कृष्ण की तरह सुदामा की मदद करने वाले इंसान हैं. यहां हम उनके साहित्यिक जीवन से जुड़े कुछ अंश प्रस्तुत कर रहे हैं-
घर में ही पुस्तकालय
उन दिनों हिन्द पॉकेट बुक्स की घरेलू लाइब्रेरी योजना ने विश्व के श्रेष्ठतम साहित्य को हिन्दी में, वह भी अत्यन्त सस्ती दरों पर, घर-घर में सुलभ कराने का अत्यन्त महत् और सराहनीय कार्य प्रारम्भ किया था. इस योजना के तहत तब तक बड़ी-छोटी उम्र में ही मुन्ना जी के पास उत्तम साहित्य का अच्छा-खासा संकलन तैयार हो गया था. उन पुस्तकों के अतिरिक्त बाबूजी द्वारा इकट्ठी की गई किताबों को मिलाकर मुन्ना जी ने घर में ही बाल पुस्तकालय की स्थापना की थी जिसकी सदस्यता उनके इष्ट मित्रों की छोटी-सी टोली तक ही सीमित थी. मुन्ना जी ने बड़ी छोटी आयु में ही हिन्दी में अनूदित विश्व साहित्य की प्रायः हर बड़ी और महत्त्वपूर्ण रचना पढ़कर अन्य देशों के समाजों के बारे में भी समझना शुरू कर दिया था. खासतौर से रूसी और बांग्ला साहित्य वे विशेष रुचि लेकर पढ़ते और उनके बारे में अपनी इस टोली के अधिकांश सदस्यों को समझाते भी. यही नहीं, कई बार विशेष अभिरुचि लेकर मुन्ना जी उन्हें मनोयोग से गणित भी पढ़ाते.
मुख्यमंत्री तीन किस्म के होते हैं- चुने हुए मुख्यमंत्री, रोपे हुए मुख्यमंत्री और तीसरे वे…
साहित्य की छौंक
कॉफी बोर्ड उन दिनों फणीश्वरनाथ रेणु जी का स्थायी अड्डा था. दुर्भाग्य से उस दिन रेणुजी वहां नहीं थे, पर उन्हीं के बारे में चर्चा छिड़ गई. वैसे तो मीता ने नीतीश के साथ ढेर सारी रोमांटिक फिल्में जरूर देखी थीं, लेकिन गम्भीर फिल्मों में इन दोनों को राजकपूर की ‘तीसरी कसम’ बेहद पसन्द आई थी जो रेणु जी की लम्बी कहानी ‘तीसरी कसम, उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम’ पर बनी थी. राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित यह फिल्म अपने वक़्त से बहुत आगे थी, परन्तु बॉक्स ऑफिस के फॉर्मूलों से समझौता न कर पाने के कारण पिट गई थी. नीतीश तो पहले से ‘मैला आँचल’ पढ़कर ही, फणीश्वरनाथ रेणु जी का अन्यतम प्रशंसक हो गया था. रेणु जी की बातें बताते हुए नीतीश ने एक बार बेहद जज्बाती होकर कहा था-
‘पहली बार किशोरावस्था में पढ़ी गई फणीश्वरनाथ रेणु जी की अमर रचना ‘मैला आँचल’ का मुझ पर कुछ ऐसा अमिट प्रभाव पड़ा कि अब भी, जब कभी उसे उठाता हूं तो आद्योपान्त पढ़े बिना छोड़ नहीं पाता.’
नीतीश को इस पुस्तक में आजादी के ठीक पहले और उसके आसपास आए नैतिक मूल्यों के ह्रास का चित्रण असाधारण तौर पर रोमांचकारी लगता है. उस संक्रमण काल में कांग्रेसियों और समाजवादियों के चरित्र में देखते ही देखते जो परिवर्तन आए, उसका चित्रण भी अद्भुत रूप से वास्तविक लगता है. वैसा अवश्य हुआ होगा, ऐसा सारे रसमंजरिया मानते हैं. उस काल में कपड़े पर लगे कंट्रोल और राशन के बारे में नीतीश को उस उपन्यास से ही पता चला है. तब यह बात भी समझ में आई है कि महात्मा गांधी का चरखा, सूत कातना, हथकरघा, खादी आदि पर जोर देना कितना महत्त्वपूर्ण रहा होगा. आज की दुनिया के बाशिन्दे खादी और स्वावलम्बन का ठीक महत्त्व शायद ही समझ पाएं. नीतीश गांधी जी की इन बातों से इतना प्रभावित हुआ कि उसने मुख्यमंत्री बनने के बाद 1 अणे मार्ग में बाकायदा चरखा चलाने का प्रशिक्षण लिया. नीतीश जब पटना में पढ़ने आया तो उसकी रेणु जी से मिलने की बलवती इच्छा जगने लगी. यह पता होते हुए भी कि रेणु जी की महफिल रोज शाम को कॉफी बोर्ड में जमती है, नीतीश सिर्फ संकोच के कारण उनसे कभी ठीक से मिल नहीं पाया, बस दूर से देखकर खुश होता और कभी नजर मिल गई तो बेहद करीने से नमस्कार कर लेता था.
हिन्दी के दो धुरन्धरों, पन्त जी और रेणु जी के केश विन्यास का जवाब नहीं था. अपनी घुंघराली लटों को दोनों ही बहुत सलीके से संवारकर रखते थे. पंखे की हवा से चेहरे पर उतरकर बिखरती लटों को, बातचीत के क्रम में ही, रेणु जी अपने चेहरे से इस सहज अदा से हटाते कि देखनेवाला बातें भूल, मंत्रमुग्ध होकर उनको देखता ही रह जाता. इन लोगों में कौशल और नीतीश भी थे जो सुल्कें तो नहीं, पर लम्बे बाल जरूर रखते थे. तब रेणु जी को पता भी नहीं था कि खामोश जबां और बोलती निगाहों वाला उनका यह शैदाई कितने तूमान अपने सीने में छुपाए है! नीतीश की हिचकिचाहट की गांठ जयप्रकाश जी के आन्दोलन के दिनों थोड़ी ढीली पड़ी जब कई महत्त्वपूर्ण क्षणों के नीतीश और रेणु जी, दोनों ही साक्षी बने. नीतीश को सदा लगता रहा कि रेणु जी की प्रतिभा का सही मूल्यांकन कभी नहीं हो पाया, कम से कम उनके अपने राज्य बिहार में तो हरगिज ही नहीं. शायद ऐसे ही लोगों के लिए तुलसीदास जी ने कहा भी है-
तुलसी वहां न जाइए, जन्म भूमि को ठाँव। गुन अवगुन चीन्हत नहीं, लेत पुरानो नाँव।
शायद इसी भूल का परिमार्जन करने के लिए किसी यात्रा के क्रम में मुख्यमंत्री नीतीश रेणु जी के गांव औराही हिंगना जाकर उनकी दोनों पत्नियों (पद्मा जी और लतिका जी) से मिल आया. रेणु जी के बड़े बेटे, पद्मपराग जी ने अपनी खेती से उपजी जो भी शाक-भाजी नीतीश को परोसी, उसने सब कुछ बड़े प्रेम से खाया और उस गुमनाम-सी बस्ती को आशीर्वाद के अतिरिक्त भी बहुत कुछ दे गया!
फणीश्वरनाथ रेणु के बेटे को विधायक बनाया
2010 के विधानसभा के चुनावों में नीतीश की सहयोगी पार्टी बीजेपी ने पद्मपराग जी को औराही हिंगना (फ़ॉरबिसगंज) से टिकट दिया था जहां से वे आसानी से विजयी भी हुए. थोड़ा पीछे चलकर अगर हम इतिहास को देखें तो याद आएगा कि पद्मपराग के यशस्वी पिता ने भी बहुत पहले, 1972 में फ़ॉरबिसगंज से, नाव छाप पर निर्दलीय चुनाव लड़ा था. नीतीश की भांति वे भी आदर्शवाद की पताका हाथों में उठाए मुक्ति, नई आजादी और सच्चे समाजवाद के तराने गाते थे-जुल्म, अत्याचार और अनाचार के विरुद्ध. लेकिन तब राजनीति के खेल के नियम एकदम अलग थे. जंगल का कानून छोड़कर और कोई कानून वहां लागू नहीं होता था, औराही हिंगना जैसे दूर-दराज इलाकों में तो और भी नहीं. रेणु जी ने ज़बरदस्त शिकस्त पाई थी. उन्हें साढ़े छह हजार से भी कम वोट मिले थे. उन्होंने शायद अपने हीरामन की तरह तीसरी के बाद चौथी कसम भी खाई होगी-
‘अब हो बाबू, ई छिनमत्तू राजनीति के रस्ता पर कभियो गोड़ नहीं धरेंगे.’ आज उन्हीं फणीश्वरनाथ रेणु का बेटा नया इतिहास रच सका है. नीतीश की लोकप्रियता की आंधी में उसकी एक पीढ़ी पहले कट चुकी पतंग फिर से आकाश में लहराई.
वोट एक तीर है जो एक बार छूटने के बाद पांच साल से पहले लौटकर नहीं आता- शरद जोशी
नीतीश जब रेलमंत्री हुआ तब उसने पटना रेलवे स्टेशन पर पहली मंजिल पर फणीश्वरनाथ रेणु हिन्दी पुस्तकालय की स्थापना करवाई. उसने सिर्फ रेणु जी को ही याद नहीं रखा था, साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया में ऐसे बहुत सारे जाने-अनजाने चेहरे हैं जिनकी मदद नीतीश ने निःस्वार्थ भाव से की थी, वह भी सिर्फ इनसानियत के नाम पर.
कैफ़ी आज़मी साहब के लिए कैफ़ियत एक्सप्रेस
आइए, एक मुरझा रही पुरानी याद को फिर से ताजा करते हैं.भारत में युद्ध को लेकर पहली बार चेतन आनन्द की एक गम्भीर फिल्म ‘हक़ीक़त’ नीतीश की किशोरावस्था में आई थी जिसके कई गीत उसे आज तक बहुत पसन्द हैं.नीतीश को पता नहीं था कि इसके गीतकार मशहूर शायर कैफ़ी आजमी साहब हैं. बाद में, कैफ़ी आज़मी साहब ने एक और फिल्म ‘नौनिहाल’ के गाने भी लिखे. उसमें एक गीत में जवाहरलाल के उद्गार बताए गए थे। इस गीत की कुछ पंक्तियाँ आज के नेता नीतीश पर कितनी मौजूँ हैं-
मेरी दुनिया में न पूरब है न पश्चिम कोई,
सारे इनसान सिमट आए खुली बाँहों में।
कल भटकता था जिन राहों में तनहा तनहा,
काफिले कितने मिले आज उन्हीं राहों में।
रेल के डिब्बे में बख्तियारपुर और पटना के बीच की दूरी वर्षों तनहा काटते नीतीश का काफिला देखते ही देखते इतना बड़ा हो गया कि सारे इनसान उसकी खुली बाँहों में सिमट आए और हुआ यूं कि नीतीश रेलमंत्री बन गया! यह गाना तब भी उसे छूता था.
इस सबसे बेखबर, इस गीत के रचयिता कैफ़ी आज़मी साहब फूलपुर के पास स्थित अपने छोटे से गांव मिजवां के लिए कुछ न कुछ नया करते ही रहते थे. जवाहरलाल नेहरू का संसदीय चुनाव क्षेत्र यही फूलपुर था. शायद उन्हीं दिनों कैफ़ी साहब की बेटी शबाना आज़मी राज्यसभा की सदस्य नामजद हुई थीं. शबाना कला फ़िल्मों की नामी अदाकारा भी रही हैं. कैफ़ी साहब की मेहनत से फूलपुर तक रेल की बड़ी लाइन तो आ गई थी पर वहां कोई एक्सप्रेस ट्रेन रुकती नहीं थी. अपनी किताब ‘यादों की राहगुजर’ में कैफ़ी साहब की जीवनसंगिनी शौक़त कैफ़ी ने इसका ज़िक्र कुछ यूं किया है-
‘नितीश (नीतीश नहीं) कुमार जब रेलवे मिनिस्टर होकर आए, कैफ़ी ने उनसे दरख्वास्त की कि जो ट्रेन फूलपुर से गुजरे, वह वहां जरूर ठहरे. चुनांचे नई सुपरफास्ट ट्रेन, गोदान एक्सप्रेस है, फूलपुर भी रुकती है. गांव वालों के लिए इस ट्रेन का फूलपुर रुकना किसी चमत्कार से कम नहीं था. कैफ़ी साहेब के बाद, आजमगढ़ से दिल्ली जानेवाली एक फास्ट ट्रेन का नाम कैफ़ी के शेरी मजमूए क्रैफ़ियात’ की मुनासिबत कैफ़ियात रखा गया है और यह ट्रेन भी रोजाना चलती है.
पुस्तकः नीतीश कुमार अंतरंग दोस्तों की नजर से
लेखकः उदय कांत
प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन
मूल्यः 699 रुपये
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Tags: Books, CM Nitish Kumar, Hindi Literature, Literature, PATNA NEWS
FIRST PUBLISHED : January 29, 2024, 14:23 IST