वोट एक तीर है जो एक बार छूटने के बाद पांच साल से पहले लौटकर नहीं आता- शरद जोशी

भारतीय राजनीति, चुनाव, नेता और वोट यानी मत को लेकर जितना शरद जोशी ने लिखा है, शायद ही किसी और ने लिखा हो. अपने समय में शरद जोशी नियमित रूप से नेता और चुनावों पर तीखे व्यंग्य लिखते थे. इन लेखों को एकत्र करके व्ंयग्यों पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. ‘जीप पर सवार इल्लियां’ शरद जोशी का एक ऐसा ही व्ंयग्य संग्रह है. इसमें एक व्यंग्य है ‘वोट ले, दरिया में डाल’. यह पुस्तक राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. इस एक आम आदमी के वोट के महत्व और उसके आयामों में बारे जिस प्रकार लिखा गया है, उसे पढ़ते हुए आपको लगेगा कि व्यंग्य की हर पंक्ति आपके लिए ही लिखी गई है. पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए हैं. इस चुनावी मौसम में आप भी आनंद लें शरद जोशी के व्यंग्य ‘वोट ले, दरिया में डाल‘ का-

आखिरकार वोट से क्या माने हैं? इसमें ‘वो’ किसके लिए स्टैंड करता है और ‘ट’ किसके लिए स्टैंड करता है? दरअसल दोनों अपने-अपने लिए ही स्टैंड करते हैं. यह एक बुनियादी बात है, इसे समझ लिया जाना चाहिए. हमारे लिए कोई स्टैंड नहीं करता. हमारे लिए हम खुद स्टैंड करते हैं, बशर्ते हममें स्टैंड करने की कूवत हो. अंग्रेजी का यही मजा है. बजाय अंग्रेजी में ‘स्टैंड’ करने के हमें हिंदी में खड़ा होना चाहिए. मत करना चाहिए. मत में ‘म’ किसके लिए खड़ा है और ‘त’ किसके लिए खड़ा है? साफ-साफ कहूं कि ‘म’ मेरे लिए है, ‘त’ तेरे लिए है. मत का सारा मामला मेरा-तेरा किस्सा है. और कुछ नहीं. अब सवाल यह है कि कमबख़्त क्यों चुनाव लड़ने के लिए खड़ा हो गया है तो इसका जवाब बच्चन जी ने काफी पहले लिख दिया है कि ‘इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो. पुकारकर दुलार लो, दुलारकर संवार लो…’

इसमें जरा ‘लो’ पर गौर कीजिए श्रीमान्. जरूरत से कुछ ज्यादा आया है. कितना कीजिएगा. वह तो उम्मीदवार बनकर खड़ा हो गया है. अबे बैठ क्यों नहीं जाता? क्या तुझे शक है कि बैठ जाएगा तो तुझे कोई पुकारेगा नहीं? और पुकारेगा तो दुलारेगा-संवारेगा नहीं? सच यह है कि वह चुनाव में खड़ा है और इसीलिए खड़ा है कि उसकी थोड़ी पूछ-परख होगी. दुलरने-संवरने का मौका मिलेगा. जब बड़ों को आवाज लगेगी तब उसे भी पुकारा जाएगा. वह इसी चक्कर में खड़ा है. यों वह आम कवियों या प्रेमियों की तरह (बच्चन जी दोनों मामलों में अपवाद हैं) फड़तुस नहीं है. उसकी जेब में नोट भरे हैं. नोट की तुक इस मुल्के में वोट से मिलती है. यद्यपि दोनों अंग्रेजी के शब्द हैं मगर उनकी तुकें इसी मुल्के में मिलती हैं. यह कुछ ऐसा ही है, जैसे डॉलर से स्कॉलर की दुम मिलती है. खैर, उसे छोड़िए, फिलहाल मतलब की बात कीजिए. हालांकि वह भी मतलब की बात है. वह अपना-अपना मत है जो लब पर आ जाता है. लब में ‘ल’ क्या है और ‘ब’ क्या है? ऊपर वाला ‘ल’ है, नीचे वाला ‘ब’ है. ये दोनों ‘मतलब’ में दो बार मिलते हैं. ‘मत’ में एक बार, ‘लब’ में एक बार. इस तरह बार-बार. बिना उसके कोई मतलब नहीं निकलता. बार-बार मिलना होता है मत के लिए, वोट के लिए जिसकी तुक नोट से मिलती है. वह इसीलिए खड़ा है. उसे बुलाओ, उसे वोट दो. वह उसे ले जाएगा. जिसका जो है, वह ले जाता है. दाने-दाने पर जिस तरह खाने वाले का नाम लिखा रहता है, उसी तरह हर वोट पर लिखा है ले जाने वाले का नाम. आ और ले जा.

वोट क्या है? वोट एक इंजेक्शन है जो पांच साल में एक बार लगता है. बीमारी ज़्यादा बढ़ जाने से इस बार चार साल में ही लग रहा है. मगर यह वह इंजेक्शन है जो मरीज अपने डॉक्टरों को लगाते हैं. हम जिसके भरोसे बिस्तर पर पड़े हैं, जिसके भरोसे जी रहे हैं, दम अटका हुआ है, उस डॉक्टर का भी स्वस्थ रहना जरूरी है.

केवल सत्ता के लिए जो पार्टियां चलती हैं, उनमें राजनीतिक कालगर्ल होती हैं- हरिशंकर परसाई

और वोट का तुलना अगर दिल से कर दी जाए तो कितने नए आयाम प्रकट हो जाएंगे. वास्तव में चुनाव दिल वालों की नहीं, दिल-जलों की कहानी होती है. लोग इसीलिए खड़े रहते हैं कि कोई उन्हें पुकार ले, पुकारकर दुलार ले वगैरा. मगर जब कोई पुकारता नहीं तब उनका दिल जल जाता है. वोट एक माचिस है जिससे आप किसी की सिगरेट सुलगा सकते हैं, किसी की पूस की गंजी जला सकते हैं, उसका दिल जला सकते हैं. जलाते रहे हैं, आगे भी जलाएंगे. वोट की इस माचिस ने मुल्के में बड़ा उजाला किया है. वोट एक लालटेन है जो सुलगता-भभकता रहता है. इसका मज़ा यह है कि केरोसीन किसी और का जलता है, रास्ता किसी और को नजर आता है. जिसका कैरोसीन जलता है, वह बेचारा अंधेरे में ही रहता है. दूसरा ही कोई लालटेन हिलाता आगे बढ़ जाता. हमें कुछ नहीं मिलता. इसी को कहते हैं दीया तले अँधेरा.

लोकसभा-भवन में जो प्रतिनिधित्व की गैसबत्तियां लटक रही हैं, उसी के तले इस देश में अंधेरा है. हमें कुछ नहीं मिलता. बदले में हमें एक वोट भी नहीं मिलता. वोट एक ऐसा उधार है जो सिर्फ दिया जाता है और जिसे हम देकर भूल जाते हैं, उसे धरम का काम समझते हैं, दान-खाते में डाल देते हैं. वोट एक भिक्षा है जो हम भिखारी के घर जाकर देते हैं. भिखारी खड़ा रहता है. इसीलिए कि कोई उसे पुकार ले. कोई उसे दुलार ले, संवार ले. ये सब फिजूल की बातें हैं. हम जाते हैं और उसे वोट दे आते हैं.

हम और क्या कर सकते हैं? हमारे पास दो ही बातें हैं दें या न दें? हम दे देते हैं. अच्छा रहता है. इस देश के राजनीतिक रेगिस्तान में भटकते हुए वोट हैं. एक नखलिस्तान है जो पानी का मीठा भ्रम उत्पन्न करता है. परिवर्तनों की आकांक्षा लिए हम हिरन भटकते हैं. वोट हमें भटकाता है, हर बार नई उम्मीदें पैदा करता है और पुरानी निराशाओं को दुहराता है. वोट देना अक्सर ओखली में सिर देने के बराबर साबित होता है. एक मूसल-सा सतत हम पर पड़ता है. गलती हमारी है. ओखली में सिर हमने दिया था. अब मूसल उसके हाथ में है. यह मूसल हमने दिया था. वोट एक शस्त्र है जो हम दूसरों को इसलिए देते हैं कि वह हम पर प्रहार कर सके. वह वास्तव में इसीलिए खड़ा रहा था कि कोई उसे पुकार ले. पुकारकर उसे शस्त्र दे दे. फिर दुलारने-संवारने का काम तो वह स्वयं कर लेगा. वोट एक चाकू है, एक उस्तरा है जो हम गलती से या जान-बूझकर एक बन्दर के हाथ में देते हैं. पता नहीं, वह इसका क्या करेगा! वह खुद का गला भी काट सकता है, वह हमारा भी काट सकता है. या वह न भी काटे.

हातिमताई जब मुनीरशामी के लिए सवालों के जवाब तलाशने निकला था तब यह एक ऐसे बूढ़े शख्स से मिला था जो ‘नेकी कर और दरिया में डाल’ का साक्षात् प्रतीक था. जब वह बूढ़ा अमीर था तब वह रोज दो रोटियां बनवाकर दरिया में डलवाता था. ऐसा वह बरसों करता रहा. जब उसके बुरे दिन आए और वह भूखों मरने लगा तब दो शख्स उसके दरवाजे पर आए और हाथ जोड़कर खड़े हो गए. कहने लगे कि हम आपको खिलाएंगे-पिलाएंगे. बूढ़े ने उनसे पूछा कि तुम लोग कौन हो तो वे बोले कि हम ही वे दो रोटियां हैं जिन्हें आप दरिया में डालते थे. इस तरह दरिया में डाली नेकी काम आती है. वोट भी ऐसी ही नेकी है जिसे आप दरिया में डालते हैं. मगर हातिमताई की कहानी में और आज की में इतना फर्क है कि वह नेकी मुसीबत में काम नहीं आती. दोनों नौकर दल बदल लेते हैं और किसी दूसरे के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं जो आपकी मुसीबतों का कारण हैं. वोट एक नेकी है जो चुनाव के दरिया में बेकार जाती है.

उम्मीद पर दुनिया कायम है और वोटों पर प्रजातन्त्र. खड़ा रहने वाला इसीलिए खड़ा रहता है कि लोग उसे पुकारेंगे और अगर न भी पुकारेंगे तो वोट जरूर देंगे. मौसम आता है, देशभर में वोट खिलते हैं, झरते हैं और धन्धा करने वाले अपनी टोकरियां भर लेते हैं. नेता, नेता, वोट कितने? बेटा, सब सामने आते हैं. शोर होता रहता है. मतगणना तक बंधी मुट्ठी लाख की होती है तथा एक और एक ग्यारह का भ्रम देती है. गणना के बाद मुट्ठी खुल जाती है और पता लगता है कि एक और एक दो ही होते हैं. जो इसीलिए खड़ा था, वह इसीलिए चल देता है या स्थायी रूप से बैठ जाता है. जब एक और एक ग्यारह नहीं हो पाते तब बेहतर है कि नौ-दो ही ग्यारह हो जाएं.

Tags: 5 State Assembly Elections in 2023, Books, Hindi Literature, Literature

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