कांग्रेस ने वर्ष 2003 के विधानसभा चुनावों में कुल 230 सीटों में से महज 38 सीटें जीतने के बेहद खराब प्रदर्शन को पीछे छोड़ते हुए 2018 के चुनावों में 114 सीटें जीती थीं और भाजपा को परास्त करते हुए अपनी सरकार बनाई थी। लेकिन मार्च 2020 में तत्कालीन कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया(जो अब भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार में मंत्री हैं) और उनके समर्थकों के पाला बदल कर भाजपा में जाने से कमलनाथ क नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार का पतन हो गया और राज्य में भाजपा दोबारा सत्ता में लौट आई।
कांग्रेस राज्य में 17 नवंबर को होने वाले विधानसभा चुनावों में कथित भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के साथ ही आदिवासियों, किसानों और महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर भाजपा को घेरने की तैयारी कर रही है।
कर्नाटक में जोरदार जीत से कांग्रेस का मनोबल मजबूत हुआ है और वह अगले साल लोकसभा चुनावों के समर में उतरने से पहले मध्यप्रदेश में आक्रामक चुनावी अभियान शुरू कर सकती है।
मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनावों का शंखनाद होने के बीच, हिंदी पट्टी के इस प्रमुख राज्य में कांग्रेस की ताकतों और कमजोरियों के साथ ही उसके सामने मौजूद अवसरों और खतरों का विश्लेषण प्रस्तुत है।
ताकत:
*राज्य में कांग्रेस की वोट भागीदारी दो दशक पहले के 30 प्रतिशत से बढ़कर 2018 में 40 प्रतिशत से अधिक हो गई थी।
* प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने अपने गृह क्षेत्र छिंदवाड़ा में धार्मिक प्रवचनों का आयोजन करकेभाजपा के हिंदुत्व के मुद्दे की धार कुंद करने की पुरजोर कोशिश की है। द्रमुक नेताओं की सनातन धर्म पर विवादास्पद टिप्पणियों के बाद कमलनाथ ने विपक्षी दलों के ‘‘इंडिया’’ गठबंधन की भोपाल में प्रस्तावित बैठक भी रद्द करा दी।
*हाल के महीनों में भाजपा के कई नेता कांग्रेस में शामिल हुए हैं।
*अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 47 सीटों पर कांग्रेस को मतदाताओं का समर्थन मिलने की उम्मीद है। कांग्रेस ने 2018 में इनमें से 30 सीटें जीती थीं।
कमजोरियाँ:
*भाजपा के मजबूत संगठन के उलट कांग्रेस में मजबूत संगठनात्मक ढांचे का अभाव है।
*कांग्रेस को ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में सिंधिया की अनुपस्थिति खल सकती है जहां पिछली बार इस पार्टी ने 34 में से 26 सीटें जीती थीं। सिंधिया के वफादार विधायकों के दल-बदल के बाद हुए उपचुनावों में इस अंचल में कांग्रेस के विधायकों की संख्या घटकर 16 रह गई।
*राज्य में 66 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां कांग्रेस पिछले दो या इससे अधिक चुनावों में जीत हासिल नहीं कर सकी है।
*चुनाव की तारीखों के ऐलान से पहले ही उम्मीदवारों की घोषणा करने के भाजपा के कदम और कांग्रेस की ‘‘रुको और देखो’’ की स्थिति ने इस धारणा को मजबूत किया कि कांग्रेस गुटबाजी से सावधान है।
*पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के कार्यकाल (1993-2003) को निशाने पर लेते हुए भाजपा एक बार फिर दावा कर रही है कि इस अवधि में सूबा सड़क, बिजली और पानी की समस्याओं से बुरी तरह जूझ रहा था।
अवसर:
*2003 के बाद राज्य की सत्ता में 18 साल पूरे कर चुकी भाजपा के लिए कथित सत्ता विरोधी लहर चिंता का विषय है।
*भाजपा की राज्य इकाई में टूट-फूट भी कांग्रेस के लिए फायदे का सौदा साबित हो सकती है। दो दशकों में पहली बार, सिंधिया के कुछ वफादारों सहित कई भाजपा नेता पाला बदल कर विपक्षी दलों में शामिल हो गए हैं।
*कांग्रेस बेरोजगारी, व्यापमं भर्ती घोटाले और पटवारी भर्ती परीक्षा में कथित अनियमितताओं को जोर-शोर से उठाने में कामयाब रही है।
*दिल्ली में आबकारी नीति के कथित घोटाले से घिरी आम आदमी पार्टी इस बार मध्यप्रदेश में वैसा आक्रामक चुनाव अभियान नहीं चला रही है, जैसा उसने गुजरात में पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों में चलाया था।
खतरे :
* 2008 में मामूली गिरावट को छोड़ दिया जाए, तो भाजपा ने 2003 के बाद से सूबे में 40 से अधिक प्रतिशत वोट भागीदारी बनाए रखी है।
*राज्य में पिछले दो महीनों के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के मुख्य रणनीतिकार व केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की सिलसिलेवार यात्राएं सत्तारूढ़ दल के चुनाव अभियान को खासा बल दे सकती हैं।
*इस बार भाजपा ने नरेन्द्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय और प्रह्लाद पटेल जैसे दिग्गज नेताओं को बतौर उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारा है। ये नेता इस अटकल को बल देकर भाजपा के खिलाफ सत्ताविरोधी रुझान का मुकाबला कर सकते हैं कि वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान आसन्न विधानसभा चुनावों में इस पद के लिए भाजपा का चेहरा नहीं हैं।*आम आदमी पार्टी और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद उल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) जैसे नये राजनीतिक दल कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक में सेंध लगा सकते हैं।
डिस्क्लेमर: प्रभासाक्षी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।