कांग्रेस पार्टी आज अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही है. केवल 10 साल पहले तक केंद्र की सरकार में रही यह पार्टी आज करीब-करीब पूरे उत्तर भारत से सिमट गई है. उत्तर भारत में यह अपने दम पर केवल हिमाचल प्रदेश की सत्ता में है. इसके अलावा दक्षिण भारत के कर्नाटक और तेलंगाना में उसकी सरकार है. कांग्रेस पार्टी की यह दुर्गति केवल एक दशक में नहीं हुई है. यह वही पार्टी है जिसने 1984 में भारतीय संसदीय इतिहास में सबसे बड़ी जीत हासिल की थी. आज स्थिति यह है कि लोकसभा में यह पार्टी बीते दो चुनावों से विपक्ष के नेता की कुर्सी भी हासिल नहीं कर पा रही है. 2019 के लोकसभा चुनाव में इसे कुल 48 सीटें मिलीं वहीं 2014 में उसे 44 सीटों पर जीत मिली थी.
दरअसल, देश की सबसे पुरानी पार्टी के पतन की शुरुआत करीब चार दशक पहले शुरू हुई थी. हालांकि उस वक्त यह कांग्रेस प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में थी. हम बात कर रहे हैं इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में हुए लोकसभा चुनाव की. उस वक्त स्वर्गीय राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी चुनाव मैदान में उतरी थी और उसने सहानुभूति वोट के दम पर जबर्दस्त जीत हासिल की थी. उस वक्त 516 सदस्यी लोकसभा में कांग्रेस को कुल 404 सीटों पर जीत मिली थी. यह अब तक के भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी जीत है. इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को केवल दो सीटें मिली थीं.
प्रचंड बहुमत और ‘वोट बैंक’
1984 में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आए राजीव गांधी ने ‘वोट बैंक’ की राजनीति के लिए बेहद अपरिपक्व फैसला लिया. यह था- शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के अहम फैसले को पलटना. आम चुनाव के कुछ ही महीने बाद 23 अप्रैल 1985 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था. उस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने एक मुस्लिम व्यक्ति मोहम्मद अहमद खान को आदेश दिया था कि वह अपनी परित्यक्ता पत्नी शाह बानो को 179.20 रुपये मासिक का गुजारा भत्ता दे.
खान ने अपनी पत्नी को 43 साल की उम्र में परित्याग कर एक युवा लड़की से दोबारा शादी कर ली थी. शाह बानो अपने मायके में रह रही थीं. शाह बानो ने जब मजिस्ट्रेट कोर्ट में गुजारा भत्ते के लिए गुहार लगाई तो मोहम्मद खान ने उन्हें तलाक दे दिया और कहा कि वह अब उन्हें कुछ नहीं देंगे.
मोहम्मद खान ने कहा कि एक मुस्लिम पुरुष द्वारा पत्नी को तलाक देने के बाद शरिया कानून में गुजारा भत्ता देने का प्रावधान नहीं है. इस मामले में उन पर भारत का आपाराधिक कानून लागू नहीं होगा. इसके बाद यह मामला हाईकोर्ट होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा. जहां सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया. शरिया कानून को देखते हुए किसी को ऐसी उम्मीद नहीं थी कि एक मुस्लिम महिला पति द्वारा तलाक दिए जाने के बाद अपराध प्रक्रिया संहिता (CPC) के तहत अपने अधिकारों के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाएगी.
प्रचंड बहुमत का दुरुपयोग!
शाह बानो की ओर से मामले को सुप्रीम कोर्ट तक ले जाया गया. सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने एक ऐसी नजीर पेश कर दी जिससे भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता पर नई बहस शुरू हो गई. सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया और उसने मोहम्मद खान को गुजारा भत्ता देने को कहा.
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मुस्लिम कट्टरपंथियों को पसंद नहीं आया और वे इसका खुलेआम मुखालफत करने लगे. मुस्लिम कट्टरपंथियों के दवाब में राजीव गांधी की सरकार भी आ गई और उनसे इस फैसले को पटलने के लिए संसद में अपने बहुमत का ‘दुरुपयोग’ किया. उसके बाद से राजीव गांधी की सरकार की इस गलती का खामियाजा आज तक कांग्रेस भुगत रही है.
2 सांसदों वाली पार्टी केंद्र की सत्ता में आई
कथित धर्मनिरपेक्षता के नाम पर राजीव गांधी की सरकार की इस गलती का सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को हुआ. वर्ष 1984 के आम चुनाव में केवल दो लोकसभा सदस्यों की पार्टी केवल 12 साल के भीतर केंद्र की सत्ता में काबिज हो गई. भाजपा 1996 के आम चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और वह पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनाने में सफल हुई. हालांकि वह सरकार केवल 13 दिनों के लिए थी.
उसके बाद भाजपा के उत्थान की कहानी किसी से छिपी नहीं है. शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटे जाने के बाद से देश में छद्म धर्मनिरपेक्षता को लेकर बहस छिड़ गई. इस बहस ने पूरे जनमानस की सोच बदल दी. वोट बैंक के तात्कालिक फायदे के लिए कांग्रेस पार्टी ने जो ‘गलती’ की, उसे सुधारने के लिए वह आज तक संघर्ष कर रही है.
फैसले को पलटे जाने के तुरंत बाद ही राजीव गांधी को यह अहसास हो गया था कि उनसे बड़ी राजनीतिक गलती हुई है. उन्होंने इसकी भरपाई के लिए अयोध्या में राम मंदिर का ताला खुलवाया. इसके बाद से पार्टी लगातार खुद यह साबित करने में लगी रही कि वह वोट बैंक की राजनीति नहीं करती है.
फिर कभी भी बहुमत हासिल नहीं कर पाई कांग्रेस
शाह बानो फैसले का ही असर था कि 1984 में भारतीय इतिहास की प्रचंड जीत हासिल करने वाली कांग्रेस आज तक फिर कभी पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में वापसी नहीं कर पाई. जहां 1984 में कांग्रेस को लोकसभा में 404 सीटें मिली थीं वहीं अगले चुनाव यानी 1989 के आम चुनाव में वह 197 सीटों पर सिमट गई. उस चुनाव में भाजपा 2 से 85 सीटों पर पहुंच गई.
इसके बाद 1991 के चुनाव प्रचार के दौरान ही राजीव गांधी की हत्या हो गई. हालांकि पार्टी को चुनाव में 244 सीटें मिली और पीवी नरसिम्हा राव ने नेतृत्व में वह अल्पमत की सरकार बनाने में सफल रही. फिर 1996 से देश में गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हो गया. इसमें करीब छह साल तक अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार रही.
2004 में कांग्रेस पार्टी केवल 145 सांसदों के साथ गठबंधन की सरकार बनाई. 2009 के चुनाव में उसे 206 सीटें मिलीं और गठबधंन की सरकार बनाए रखने में कामयाब हुई. लेकिन 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के सामने कांग्रेस पूरी तरह पस्त हो गई.
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Tags: BJP, Congress, Loksabha Elections
FIRST PUBLISHED : February 27, 2024, 12:23 IST