हिमांशु जोशी/पिथौरागढ़. उत्तराखंड के पारंपरिक लोकगीतों और वाद्य यंत्रों में ढोल का काफी महत्व है. ढोल उत्तराखंड के समस्त पहाड़ी जिलों में बजाया जाता है चाहे वो लोक संगीत हो या देवी देवताओं की अराधना बिना ढोल के पूरी नहीं होती. आज हम आपको उत्तराखंड के सबसे बड़े ढोल के बारे में बताने जा रहे है जिसका वजन 100 किलो के आसपास है. यह पिथौरागढ़ के बंगापानी तहसील के गांव जाराजीबली के ग्रामीणों के पास है.
इसे देवताओं को प्रसन्न करने के लिए विशेष आयोजन में बजाया जाता है. 100 किलों के इस ढोल को उठाकर बजाना हर किसी के बस की बात नहीं है. ग्रामीणों की मान्यता के अनुसार सच्ची श्रद्धा वाले ही इस ढोल को बजा पाते है और जो ढोल को उठाकर बजाता है उस पर छिपला केदार देवता की कृपा बनी रहती हैं.
उत्तराखंड के विशेष आयोजन में आजकल यह ढोल विशेष आकर्षण का केंद्र बना हुआ है. जिसकी धुन बजते ही शरीर के रोम-रोम कांप उठते है. इसे बनाने वाले जाराजीबली गांव के सांस्कृतिक समिति के अध्यक्ष महेंद्र सिंह का कहना है कि यह ढोल भगवान छिपला केदार को समर्पित है. इसी ढोल की धुन पर देवता अवतरित होकर जनता को आशीर्वाद देते है.
इस ढोल को उठाकर बजाने वालो पर देवताओं का आशीर्वाद रहता है जिससे उन्हें इसे उठाकर बजाने में कोई परेशानी नहीं होती और भगवान छिपला केदार की कृपा उस पर बनी रहती है सच्ची श्रद्धा वाले लोग ही इसे उठाकर बजा पाते है.
उत्तराखंड के सभी पहाड़ी क्षेत्रों में अलग-अलग वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है. जिनका प्रचलन प्राचीन काल से होता आ रहा है. उनका महत्व उस क्षेत्र के परिवेश, संस्कृति एवं विरासत पर आधारित होता है और सदियों से चली आ रही यह क्षेत्रीय हुनरबाजी, कला के क्षेत्र में एक विशेष महत्व रखती है.उत्तराखंड में विशेष रूप से ढोल-दमाऊं का प्रचलन है. जो यहां सदियों से चला आ रहा है.
इसकी महत्वता पिथौरागढ़ के रहने वाले सूबेदार दिगर सिंह ने बताई है जिनका कहना है कि देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए इन वाद्य यंत्रों को बजाया जाता है.
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FIRST PUBLISHED : September 07, 2023, 12:29 IST