यह कवच भी 56 छुरी… दुश्मनों के छुड़ा देता था छक्के, बिना हथियार के भी योद्धा जीतते थे युद्ध  

आशुतोष तिवारी/रीवा: आज के दौर में दुनिया के लगभग सभी ताकतवर देशों के पास घातक परमाणु हथियार के अलावा मिसाइल और बंदूकें हैं. सैकड़ों वर्ष पहले से ही बंदूकों का इस्तेमाल युद्ध में किया जाने लगा था. इन बंदूक की गोलियों से बचने के लिए बुलेट प्रूफ जैकेट भी बनाए गए थे. लेकिन, इससे भी पहले युद्ध लड़ने के लिए धनुष, बाण, तलवार, भाला, बरछी, कटारी जैसे हथियारों का इस्तेमाल किया जाता था.

ये हथियार भी काफी हद तक खतरनाक थे. पल भर में दुश्मन को मार गिराने में सक्षम थे. इनसे बचने के लिए योद्धाओं और राजा के द्वारा सुरक्षा कवच का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता था. यह सुरक्षा कवच काफी भारी भरकम हुआ करते थे. एक ऐसा ही नायाब सुरक्षा कवच बघेलखंड की राजधानी रही रीवा के बघेला म्यूजियम में रखा हुआ है. इस सुरक्षा कवच का नाम 56 छुरी कवच है. इस कवच में 56 छुरियां लगी हुई हैं.

युद्धों में किया जाता था इस्तेमाल
इतिहासकार असद खान ने बताया कि बघेला म्यूजियम में 56 छुरियों का यह कवच सुरक्षित है, जिसका इस्तेमाल कई बड़े युद्धों में भी किया जा चुका है. इस कवच को जिरह बख्तर भी कहा जाता था. कवच का इस्तेमाल शरीर को ढकने के लिए किया जाता था. इस कवच में लगभग 6 इंच की 56 छुरियां लगी हुई हैं. कवच में लगी छुरी काफी तेज और नुकीली हैं. ये कवच जंग के समय योद्धाओं की आत्मरक्षा में सहायक हुआ करता था. जब युद्ध के समय योद्धाओं के पास से हथियार खत्म हो जाते थे, तब भी योद्धा दुश्मन से भिड़ जाते थे. कवच में लगी छुरियां दुश्मन को लग जाती थीं और दुश्मन का सीना फाड़ देती थीं. इस सुरक्षा कवच से योद्धा अपनी जान बचाने के साथ-साथ दुश्मनों को भी खतरे में डाल देते थे.

कई युद्धों में हुआ इस कवच का इस्तेमाल
इतिहासकार असद खान ने बताया कि छप्पन छुरी कवच का इस्तेमाल कई युद्ध में किया जाता था. यह योद्धा के सीने और पीठ दोनों तरफ से रक्षा करता था. साथ ही हाथों में भी यह कवच लगा रहता था. इस कवच के साथ युद्ध के दौरान सिर में हेलमेट भी लगाया जाता था. रीवा के राजा वेंकटरमन सिंह ने ऐसा सुरक्षा कवच अपने सैनिकों के लिए बनवाया था. राज्य से बाहर भी युद्धों के दौरान इस तरह के सुरक्षा कवच का इस्तेमाल किया जाता था. आज ये नायब सुरक्षा कवच बघेल म्यूजियम में है, जो रियासत के इतिहास को बयां करते हैं.

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