यहां नई दुल्‍हन हाथ से नहीं, पैर से देती है थाली, फिर पति कुछ ऐसा करता है कि…

भारत के बारे में कहा जाता है, ‘कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी’ यानी देश में हर एक कोस पर पानी और हर चार कोस पर वाणी बदल जाती है. इसी तरह देश के अलग-अलग राज्‍यों में ही नहीं, बल्कि हर राज्‍य के अंदर भी शादी-ब्‍याह में अलग-अलग परंपराएं नजर आती हैं. कई बार तो एक ही क्षेत्र में लोगों के संस्‍कार और रीति-रिवाज बिलकुल अलग होते हैं. इनमें कुछ रस्‍में काफी अजीब दिखाई देती हैं. इन अलग-अलग रीति-रिवाजों से समुदायों की अपनी अलग पहचान बनती है. ऐसा ही एक जनजातीय समुदाय ‘थारू’ है. इस जनजाति के लोग हिंदू धर्म को मानते हैं. वे हिंदुओं के सभी त्‍योहारों को भी मनाते हैं. इनकी शादियों में भी ज्‍यादा हिंदू परंपराओं को निभाया जाता है.

थारू जनजाति की शादियों में एक रस्‍म ऐसी है, जो इनको बाकी समुदायों से अलग करती है. उत्‍तराखंड के स्‍वतंत्र पत्रकार और मीडिया ट्रेनर राजेश जोशी बताते हैं कि थारू जनजाति मातृसत्‍तात्‍मक समुदाय है. यहां महिलाओं को पुरुषों से ऊंचा दर्जा दिया जाता है. वह बताते हैं कि थारू जनजाति में नई दुल्‍हन जब पहली बार रसोई में खाना बनाती है तो पति को हाथ के बजाय पैर से खिसकाकर थाली देती है. इसके बाद दुल्‍हा थाली को सिर माथे लगाकर खाना खाता है. माना जाता है कि थारू जनजाति राजपूत मूल की थी. लेकिन, कुछ कारणों से वे थार रेगिस्तान को पार करके नेपाल चले गए. आजकल थारू समुदाय के लोग भारत के उत्‍तराखंड, उत्‍तर प्रदेश, बिहार और पड़ोसी देश नेपाल में रहते हैं.

थारू सबसे ज्‍यादा किन इलाकों में रहते हैं?
भारत में बिहार के चंपारन, उत्तराखंड के नैनीताल व ऊधम सिंह नगर और उत्‍तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में थारू समुदाय के लोग खूब पाए जाते हैं. थारू जनजाति उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में उधम सिंह नगर के खटीमा, किच्छा, नानकमत्ता, सितारगंज के 141 गांव में रहने वाली जनजाति है. वहीं, नेपाल की कुल आबादी में 6.6 फीसदी लोग थारू समुदाय के हैं. थारू समुदाय के लोग बिहार और नेपाल की सीमा पर पहाड़ों-नदियों व जंगलों से घिरे इलाकों में रहते हैं. पहाड़ों और जंगलो में बसने वाले थारुओं में वो संस्कृति और संस्कार आज भी देखने को मिलते हैं, जिनके लिए ये जनजाति जानी जाती है.

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थारू जनजाति में सगाई की रस्म को ‘अपना पराया’ या ‘दिखनौरी’ कहा जाता है.

शादी-ब्‍याह की कई रस्‍में हैं अजीबोगरीब
थारू जनजाति की शादियों में तिलक के बाद लड़का कटार और पगड़ी धारण करता है. लड़का जंगल में जाकर दही, अक्षत, सिंदूर से साखू के पेड़ की पूजा करते हैं. फिर साखू की लकड़ी और डाल लेकर आते हैं. उसी साखू की लकड़ी से शादी के दिन लावा भूना जाता है. इनमें सगाई की रस्म को ‘अपना पराया’ कहा जाता है. समुदाय के कुछ लोग सगाई की रस्‍म को दिखनौरी भी कहते हैं. वहीं, विवाह के करीब 10-15 दिन पहले वर पक्ष के लोग लड़की के घर जाकर शादी की तारीख तय करते हैं. इसे ‘बात कट्टी’ कहा जाता है. वहीं, शादी के बाद गौने की रस्‍म को थारू जनजाति में ‘चाला’ कहा जाता है. ससुराल में पहली बार खाना बनाने पर दुल्‍हन पति को पैर से खिसकाकर थाली देती है. फिर दुल्‍हा खाना खाता है.

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पुरुषों को रसोई में जाने की अनुमति नहीं
उत्‍तराखंड, उत्‍तर प्रदेश और बिहार में पाई जाने वाली थारू जनजाति में महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले ऊंचा दर्जा हासिल होता है. इसी कारण कई परिवारों में पुरुषों को रसोई घर में जाने की अनुमति भी नहीं होती है. इस जनजाति में कन्‍या पक्ष को वर पक्ष की ओर से पैसे देकर और दुल्‍हन का अपहरण कर शादी करने की परंपरा भी है. हालांकि, अब वधूमूल्‍य और कन्‍याहरण विवाह कम ही होते हैं. विधवा-देवर विवाह को जनजाति में बाकायदा मान्यता मिली हुई है. थारू समाज के लोग परंपरा के अनुसार, भगवान शिव की वेदी बनाकर पूजा करते हैं. इसके अलावा माता काली की भी खूब पूजा करते हैं.

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थारू महिला-पुरुषों का खास है पहनावा
थारू महिलाओं का परंपरागत पहनावा लहंगा और चुनरी है. इसके साथ वे कड़ा-करधन और पाजेब जैसे आभूषण भी पहनती हैं. हालांकि, अब यह पहनावा केवल पुरानी पीढ़ी की महिलाओं में ही देखने को मिलता है. पुरुष आमतौर पर आज भी धोती-कुर्ता और गमछा पहनते हैं. पैर में खड़ाऊं पहनने की परंपरा है, लेकिन अब यह कम ही लोगों के पैरों में देखने को मिलती हैं. बता दें कि थारू जनजाति जनसंख्या के नजरिये से उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र का सबसे बड़ा जनजातीय समुदाय है.

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इतिहासकार कहते हैं कि थारू जनजाति के लोग राजस्थान के सिसोदिया राजवंश से जुड़े लोग थे.

इतिहासकारों की नजर में थारू समुदाय
इतिहासकार कहते हैं कि थारू जनजाति के लोग राजस्थान के सिसोदिया राजवंश से जुड़े लोग थे. वहीं, कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इस जनजाति के लोग महात्मा बुद्ध के वंशज हैं. कुछ थारू समुदाय को मंगोलों से भी जोड़ते हैं. कुछ इतिहासकारों का दावा है कि थारू जनजाति की जड़ें हिमालय में हैं. उनका कहना है कि 13वीं शताब्दी में मंगोलों के आक्रमण के कारण थारू लोगों को मैदानों की तरफ पलायन करना पड़ा. बता दें कि थारुओं को किरात वंश का भी माना जाता है. किरात वंश कई जातियों और उप-जातियों में बंटा हुआ है. माना जाता है कि थारू शब्द की उत्पत्ति राजस्थान के थार मरुस्थल में बसने वाले लोगों के कारण पड़ा है.

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