चाँदबी अर्थात फूफी भूरी के इस स्याह अतीत को सुन मोहन इस तरह सदमे में आ गया कि उसकी कई दिनों तक यह पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि जब भूरी फूफी अपनी मां के घर आ गयी, अब उसके बाद क्या हुआ? हां, इस बीच यह जरूर होता रहा कि अलवर से दिल्ली या दिल्ली से अलवर जाते समय मेवात बस जैसे ही बोड़ी कोठी के नजदीक आती, मोहन बेचैन हो उठता. भले ही यहां की कोई सवारी नहीं होती, फिर भी उसकी सीटी बज जाती. एकाध बार तो रहमान ने झल्लाते हुए अपने कंडेक्टर से कह भी दिया, “यार मोहन, जब कोई बोड़ी कोठी की सवारी ना होए न, तो अपणा या पपइया ए मत बजाय कर!”
“बात सवारी की ना है रहमान, या बहाने भूरी फूफी के हाथ से पिये पानी से थोड़ी तसल्ली-सी हो जावे है.”
प्यास के बहाने मोहन असली बात छिपा जाता. असल बात यह होती कि पानी पीने के बहाने दूसरे राहगीरों की तरह उसकी भूरी फूफी को छोटी-सी इम्दाद करने की कोशिश रहती. अब यह इम्दाद अठन्नी के रूप में होती अथवा चवन्नी के रूप में होती, यह दीगर बात है.
उस दिन मोहन को पूछने की जरूरत नहीं पड़ी. रहमान खाँ अपने आप बताने लगा.
“जब तलक हसनबी और रसूलन जिन्दी रही, दौर-जिठाणीन्ने चाँदबी अपनी हथेलीन पे राखी. बेटी का कलेश में पहले एक दिन रसूलन अल्लाह कू प्यारी होगी और साल-भर के भीतर हसनबी भी चल बसी. जैसे ही चाँदबी का सिर सू एक-एक करके पहले मां और पीछे ताई को साया हटो, वापे मुसीबतन का पहाड़ टूट पड़ा. दादा खैराती का छोटा भाई का छोरा उमर खाँ जैसे याही ताक में बैठो हो, कि कब वाकी ये दोनूँ भावज रसूलन और हसनबी रस्ता सू हटें, और कब ऊ अपणो पासा फैंके.”
“तो अभी और बुरे दिन देखने बाकी रह गये थे क्या फूफी भूरी को?” मोहन ने अचकचाते हुए पूछा.
पहले किन्नर फिर गुलाम बने सल्तनतकालीन सिपहसालार मलिक काफूर की कहानी है ‘अग्निकाल’
“बुरा दिन! बुरा दिन तो वाका अब चालू होंगा. अन्यायी, तू सुणेगो तो तेरी छाती फट-फट जाएगी. हुओ ई कि जैसे ही चाँदबी की माँ रसूलन और ताई हसनबी दुनिया सू बिदा हुई, वाको काका उमर खाँ और वाका छोरान्ने आँख दिखानी शुरू कर दी. शुरू में तो उन्ने कुछ ना कही, पर एक दिन जैसे ही फूफी भूरी अपणा खेतन में सावणी ओरन गयी, सारा बाप-बेटा पहोंचगा लट्ठ लेके.”
“यार रहमान, यह क्या बात हुई. जब खेत फूफी भूरी के थे तो उसके काका का क्या मतलब था उसके पास लट्ठ लेकर जाने का? जो जायदाद मक्खन खाँ के मरने के बाद रिवाजे-आम के मुताबिक उसके भाई नवाज खाँ के नाम चढ़ गयी थी, वह अब दादा खैराती की एकमात्र वारिस होने के चलते कानूनन हसनबी और रसूलन के मरे पीछे फूफी भूरी के नाम चढ़ गयी होगी?” मोहन तमतमाते हुए बोला.
“अन्यायी पहले सुण तो ले! जब ये सब पहोंचा तो जाते ही उमर खाँ को सबसू छोटा छोरा कासिम, हाली के पै गयो और वाने बुवाई रुकवा दी. फिर उमर खाँ अपनी भतीजी चाँदबी सू बोलो कि लाली, तू ई कहा कररी है? तो या बात ए सुण फूफी बोली, काका अपणा खेतन् की बुआई करवारी हूं. भूरी फूफी के इतनी कहतेई पहले तो उमर खाँ जोर-सू हँसो और फिर बोलो कि तेरा खेत? लाली, ये तेरा खेत कद सू होगा? तो भई मोहन, इतनी सुणके फूफी को ऊपर को दम ऊपर और नीचे को नीचे रह्गो. बीच खेत गश खाके गिरती-गिरती बची ऊ. फूफी भूरी अकबकाई-सी खड़ी रहगी.”
“ऐसा क्यों?” मोहन रहमान की आँखों में देखते हुए बोला.
“मोहन, तोहे याद है एक दिन मैंने तोसू पूछी ही कि तिहारे हिन्दुओं में बाप-दादा की विरासत पे किसको हक होवे है?”
“पूछी ही और मैंने कहा था कि उनकी औलाद का. फिर चाहे वे लड़का होएँ या लड़की होएँ.”
“बिलकुल ठीक कही ही, पर याके आगे मैंने एक बात और बतायी ही कि हमारे मेवन में ऐसा ना है. पुराणे गुड़गाँव जिले के मेवों की बेटियों को उनके पति और बाप की विरासत में उनका कोई हक ना होवे है.”
“यो भी याद है.” मोहन ने हामी भरते हुए कहा.
“पर मैंने एक बात ना बताई पट्ठे कि इसके लिए एक शर्त है.”
रहमान के इतना कहते ही मोहन चौंकते हुए बोला, “कौन-सी शर्त?”
“यही कि उनके कोई भाई ना होणो चहिए.”
“मैं कुछ समझा ना?”
“मेरे कहने का मतलब ई है कि रिवाजे-आम यानी जमींदारा कानून के मुताबिक ऐसी बेटी-बेटियां जिनके कोई भाई ना है, माँ-बाप के मरते ही उनकी जायदाद उनके चाचा-ताउओं में बराबर बँट जाएगी.”
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सुनते ही इस बार मोहन की आंखों के आगे जैसे छोटे-छोटे जुगनू तिरमिराने लगे. आंखों की पुतलियों पर झीने जाले चढ़ गये. एक पल के लिए भूरी की प्याऊ यानी बोड़ी कोठी के चौराहे पर भायँ-भायँ करते लू के थपेड़ों से जूझती और पतली जिल्द में लिपटा भूरी फूफी का चेहरा उसकी आंखों के सामने तैर गया. उसके दिलो-दिमाीग में रहमान के कहे शब्द जोर-जोर से बजने लगे. धीरे-धीरे रहमान के इस वाक्य की गिरह अब खुलने लगी है कि जिस आदमी के पास अच्छी-खासी जंगल की जमीन हो, उसकी बेटी दर-दर की भीख मांगती फिरे है. उसकी आंखों के सामने अपने खेतों की मेड़ों पर हिरणी की तरह कुलांचें भरती मासूम चाँदबी का चेहरा घूम गया. अपने खेतों में ठुके आदमकद ज्वार-बाजरा और गेहूं के रूप में दूर तक हरहराते पीले सोने के समन्दर की लहरों पर जैसे हिचकोले खा रही है. लेकिन अगले ही पल उसे लगा जैसे अपने ही खेतों की मिट्टी में सनी चाँदबी का जनाज़ा पड़ा हुआ है.
देर तक सोचने के बाद मोहन बोला, “रहमान, क्या तुम्हारा यह जमींदारा कानून पाकिस्तान के उन मेवों में भी लागू होता है, जो बँटवारे में वहां चले गये हैं?” मोहन ने जिज्ञासा प्रकट करते हुए पूछा.
“या बारा में एक दिन मैंने रोशन खाँ को छोरा, जो एक बर अपणा कुणबा सू इमामनगर में मिलण आयो हो, वासू पूछी ही. वाने बताई कि बँटवारा के पीछे जो मेव पाकिस्तान के लाहौर और कसूर जिलों में जाकर बस गये, तो जमीन अलोटमेंट के बखत पाकिस्तान की सरकार ने उनसू पूछी ही कि ई बताओ तुम अपने जमींदारा कानून मेरो मतलब है रिवाजे-आम पे चलोगा या इस्लामी कानून पे?”
“यार रहमान, इसका फैसला करना तो उनके लिये बड़ा मुश्किल रहा होगा?” मोहन ने एक तरह से अपनी दुविधा व्यक्त करते हुए पूछा.
“बिलकुल, रोशन खाँ का वा छोरा ने बड़ी जोरदार बात बतायी कि या बात पे पाकिस्तान गया मेव दो धड़ा में बँटगा. कुछ ने अलोटमेंट लैटर में रिवाजे-आम लिख दियो, तो कुछ ने शरीयत लिख दियो. अब उन्ने ये दोनूँ बात लिख तो दी, पर असली दिक्कत तब खड़ी हुई, जब इनकी लड़कियों के शादी-ब्याह होण लगे.”
“दिक्कत, कैसी दिक्कत होने लगी?”
“यही कि जिन मेवन्ने अलोटमेंट लैटर में यह लिख दिया कि वे शरा के मुताबिक चलेंगे, तो उनकी बेटियों को मरने वाले की जायदाद में हिस्सा मिलने लगा, और जिन्ने रिवाजे-आम लिखवाया उनकी बेटियां और बीवियां दादालाई विरासत से बेदखल हो गई.”
मोहन ने इस बार अपना सिर पकड़ लिया. वह जैसे किसी अंधी सुरंग में फँस कर रह गया.
“अब तो मोहन जैसे पाकिस्तान की पूरी मेव बिरादरी में भूचाल मचगो कि अन्यायी ई कहा हुओ. आखिर पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट ने ही ई फैसला दियो कि जो मेव बँटवारे के बखत हिन्दुस्तान के पुराने गुड़गांव जिले से आये हैं, उन्ने ताउम्र रिवाजे-आम मानने की छूट तो है, पर उनकी मौत के बाद यह कानून अपने आप खतम हो जाएगो…और मरने वाले की सारी जायदाद का बँटवारा शरीयत के मुताबिक होगा. लेकिन कुछ मेव इससे भी राजी नहीं थे. उनका कहना था कि भले ही हमें पुश्तैनी जायदाद का बँटवारा शरा के मुताबिक करना चाहिए, पर जो सहूलियत रिवाजे-आम में है, वह शरा के मुताबिक बँटवारे में नहीं है.”
“यानी जिनके भाई ना हैं वे हमारी फूफी भूरी की तरह दर-दर की ठोकर खाती फिरें…चौक-चौराहा और मस्जिदों के बाहर भीख मांगती डोलें. बाप की जिस जमीन-जायदाद पर उसकी बहन-बेटियों का हक होणा चहिए, उसे उनके उमर खाँ जैसे चाचा-ताऊ हड़प लें. वा, बस दौलत चहिए…नाता-रिश्ता गया चूल्हा-भाड़ में!” इस बार मारे गुस्से के मोहन की मुट्ठियां बँधती चली गईं.
“एक बात कहूं मोहन, हमारे मेवात में कुछ पढ़े-लिखे मेव तलक इस रिवाजे-आम ए अच्छा ही नहीं, बहुत अच्छा बतावे हैं. इसकी पैरवी करते हुए वे कहवे हैं कि इनके भाई, चाहे वे चाचा-ताऊ के क्यों ना हों, जिन्दगी-भर अपणी बहन का खयाल रखते हैं.”
“रहमान, ये सब कहण की बातें हैं…कोई ख्याल-व्याल नहीं रखता है. मेरे भाई, भाइयों से अपनी सगी बहन-बेटियों के भात-छूछक जैसे रीति-रिवाज तो निभाये जाते नहीं हैं, ये जिन्दगी-भर ख्याल जरूर रखेंगे, वे भी चाचा-ताऊ की बहन-बेटियों का.”
रहमान खाँ मोहन को देखता रह गया. वह जान-बूझकर आगे नहीं बोला. बस, मोहन की प्रतिक्रिया का इंतज़ार करने लगा.
“मजे की बात तो ई है मोहन कि जो आदमी तस्बीह पे चौबीस घंटा अल्लाई-अल्लाह पुकारे हैं, सबसू ज्यादा रोजा-निवाज पढ़णा को ढोंग करे हैं…आये दिन बदना-गूदड़ी उठाके जमातन में चल देवे हैं और कुरान मजीद की तिलावत करता फिरे हैं, जैसे ही जमीन-जायदाद में छोरी-छापरीन का हिस्सा की बात आवे है, या डोकरी की रिवाज ए लेके बैठ जाए हैं. भूल जावे हैं कि कुरान में भी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कुछ कही है. सबसू ज्यादा इनको ही दीन डूबो पड़ो है. ऐसान की वजह सू ही आज मेवात बदनाम हुओ पड़ो है.”
“यार, अगर कुरान में ऐसा कुछ लिक्खा है तो बिचारी भूरी फूफी जैसी बेसहारा और यतीम का जायज हिस्सा उसके काका उमर खाँ को नहीं मारना चाहिए. वैसे भी कानून के हिसाब से उसका हक बनता है.”
“लालच के आगे मोहन सारा कायदा-कानून, सारा वेद-कुरान और सबसू बड़ी बात, आदमी को ईमान धरो-क-धरो रह जावे हैं. मेरे भाई, सवाब और गुनाह सब कहण की बात हैं. आज ना कोई शरा की माने है, ना काई शास्त्रन की परवाह करे है. सबकी नीत बेईमानी में डूबी पड़ी है. कोई ना डरे भगवान और खुदा सू.”
मोहन इससे पहले अपने बगल में लेटे रहमान खाँ को निरा एक ड्राइवर मानने का भ्रम पाले हुए था. मगर उसकी सामाजिक समझ और साफगोई का वह कायल होकर गया. अलवर बस अड्डे और उसके आसपास के अधिकतर बल्बों के बुझने के बावजूद, कुछ जलने वाले बल्बों की मद्धिम रोशनी में भीगा रहमान का चेहरा ऐसे लग रहा है, जैसे किसी अलौकिक उजाले ने उसका सारा रक्त निचोड़ लिया. बस, आखिरी रास्ता रहा गया था. मोहन ने उस बारे में भी पूछ लिया.
“तो क्या फूफी भूरी इस मामले को पंचायत में लेके नहीं गयी?”
मोहन की इस बात को सुन रहमान ने उसकी तरफ करवट लेते हुए जवाब दिया,”तू कहा समझ रहो है फूफी भूरी ने ई काम ना करो होएगो? सब करो हो. पहले तो गांव का जो मोजज आदमी हा, एक-एक करके उनके पै गयी और जब उनसू बात ना बणी, तो आखिर में फूफी अजमत सरपंच के पै गयी. अजमत सरपंच ए ई बात पहले सू पतो ही, या मारे ऊ कुछ ना बोलो और गांव की बेटी होण के नाते पंचायत बुलाणा पे राजी होगो.”
“तूने अभी कहा कि फूफी एक-एक करके गांव के मोजज आदमियों के पास गई. जब यह गांव के इन मोजज आदमियों के पास गयी थी, तब क्यों नहीं बणी बात?”
“बात इसलिए ना बणी मोहन कि सबने चाँदबी को दो टूक जवाब दे दिया कि रिवाजे-आम के मुताबिक उसका अपने बाप की जायदाद पे कोई हक ना है. कायदा सू अब ई विरासत उमर खाँ के हक में चलीगी है. पर पतो ना हमारी या फूफी भूरी, मेरो मतलब है चाँदबी ए पंचात पे बहोत भरोसा हो कि ऊ वाहे न्याव दिवाके मानेगी.”
“रहमान, फूफी भूरी को ई भरोसा ऐसे ही ना हो. इसकी एक वजह है और वो यह कि हमारे समाज में पंचों को परमेश्वर माना जाता हैं. पंच कभी किसी के हक में गलत फैसला दे ही ना सकें. वे किसी के साथ अन्याय कर ही ना सकें.”
“तू सही कहरो है मोहन. याही भरोसा पे वाने पंचायत बुलवा ली.”
इसके बाद आसपास जलने वाले बल्बों की मद्धिम रोशनी में भीगा रहमान छोटे-छोटे ठिठके हुए कदमों के साथ थड़ी पर लगने वाली पंचायत में जाकर बैठ गया, और बताने लगा पंचायत का आंखों देखा हाल.
(‘काँस’ उपन्यास मेवात की जमीन से जुड़े मुद्दे पर केंद्रित है. इसमें बताया गया है कि मेवात में महिलाओं के जमीनी हक़ की क्या स्थिति है. कुछ पुराने कानून-नियमों के चलते यहां महिलाओं के जमीन के हक़ से दूर रखा जा रहा है. उपन्यास बताता है कि ‘रिवाज़-ए-आम’ किस तरह मेवात की बेटियों को अपने पिता की मृत्यु के बाद उसकी ज़ायदाद से मोहताज बना देता है. ‘काँस’ वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है.)
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FIRST PUBLISHED : January 23, 2024, 16:01 IST