ब्रिटिश हुकूमत में था ‘भारत का यूरोप’, आज पलायन की मार झेलने को मजबूर पिथौरागढ़ का ये गांव

हिमांशु जोशी/ पिथौरागढ़. उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में चीन और नेपाल बॉर्डर से सटा गर्ब्यांग गांव किसी दौर में ‘भारत का यूरोप’ और ‘मिनी यूरोप’ कहा जाता था. इसकी वजह यहां की खूबसूरत वादियां थीं. 1962 वॉर से पहले यह इलाका इंडो-चाइना ट्रेड का केंद्र भी हुआ करता था, लेकिन आज यह पूरी तरह सुनसान है. आलम यह है कि आधे से ज्यादा परिवार इस गांव के पलायन कर चुके हैं. वहीं, जो मजबूरी में यहां हैं, उनको गांव का धंसाव हर वक्त डराता है.

10,500 फीट की ऊंचाई पर बसा गर्ब्यांग गांव

साढ़े दस हजार फीट ऊंचाई पर बसे गर्ब्यांग गांव को काली नदी 1960 से काट रही है. लगातार हो रहे भू-धंसाव के कारण 1976 में यहां के आधे से ज्यादा परिवारों को उधम सिंह नगर जिले के सितारगंज में शिफ्ट किया चुका है. आजादी के 7 दशक बाद भी इस गांव में न तो संचार के साधन है और न ही बिजली, पानी और स्वास्थ्य सेवाओं का कोई ठिकाना है. लिपुलेख तक सड़क कटने के बाद यह इलाका पहली बार सड़क से जुड़ा है, लेकिन संचार के लिए यहां के लोग आज भी नेपाल पर निर्भर है. हालात तो यह है कि फोन पर एक अदद कॉल के लिए भी इन्हें 6 किलोमीटर का सफर तक कर छियालेख पहुंचना पड़ता है.

फोन पर बात के लिए नेपाल सहारा

स्थानीय निवासियों ने अपनी समस्याएं लोकल 18 से साझा की हैं. शैलेन्द्र बताते हैं कि उनके गांव में स्वास्थ्य, शिक्षा और संचार की व्यवस्था नहीं है और वे लोग नेपाली सिम के भरोसे हैं. वहीं, भूपेंद्र बताते हैं कि अब सड़क पहुंच गई है, तो सरकार को यहां पलायन कम करने की दिशा में काम करना चाहिए. पिथौरागढ़ की जिलाधिकारी रीना जोशी को सीमांत के ग्रामीणों की समस्या से रूबरू कराया गया, जिस पर उनका कहना है कि बॉर्डर के अंतिम गांव को भी विकास की मुख्यधारा से जोड़ने के हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं.

‘मिनी यूरोप’ हुआ बदहाल

गौरतलब है कि गर्ब्यांग गांव के हालात 1962 से पहले ऐसे नहीं थे. भारत-चीन जंग से पहले यह इलाका आर्थिक तौर काफी सम्पन्न था. तिब्बत के साथ होने वाले व्यापार का गर्ब्यांग गांव केंद्र बिंदु हुआ करता था. भारत-तिब्बत व्यापार ने इस इलाके को पूरी दुनिया में अलग पहचान दिलाई. आलम तो यह था कि ब्रिटिश हुकूमत में इसे ‘मिनी यूरोप’ का दर्जा हासिल था. 1991 में इंडो-चाइना ट्रेड तो फिर से बहाल हो गया, बावजूद इसके 1962 से पहले की खुशहाली यहां वापस नहीं आ पाई.

हालांकि लिपुलेख सड़क कटने के बाद यह उम्मीद जरूर जगी है कि यहां से पलायन कर चुके घर परिवार वापसी करेंगे. फिलहाल गर्ब्यांग गांव के 400 परिवार देश-दुनिया में फैले हैं, लेकिन गांव में सिर्फ 146 ही स्थाई तौर पर रहते हैं. ऐसे में बॉर्डर की पहली सुरक्षा पंक्ति न चाहते हुए भी पलायन को मजबूर हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार बॉर्डर की रौनक वापस लाने के लिए गंभीर कोशिश करेगी.

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