बेहद खास होता है उत्तराखंड का लोक पर्व फूलदेई, बच्चे मनाते हैं जश्न, जानिए परंपरा

सोनिया मिश्रा/ चमोली: पहाड़ों से पिघलती बर्फ, बुरांश के सुर्ख फ़ूलों से सजा जंगल, फ्यूली के पीले फूलों से अटी पगडंडियां और बच्चों की खिलखिलाहट ‘फूलदेई’ के लोकपर्व के इस नजारे के साथ उत्तराखंड में बसंत का स्वागत होता है. नई ऋतु, नए साल का का यह पर्व उत्तराखंड के पहाड़ों की रूह में बसता है. गांव- कस्बों में आज भी छोटे बच्चे और किशोर- किशोरी घर- घर की दहलीज पर फ्यूली, बुरांश और अन्य फूल एवं चावल का शगुन रखकर बसंत ऋतु के आगमन का त्योहार मनाते हैं.

ये है फूलदेई की परंपरा!
चैत के महीने की संक्रांति को, जब ऊंची पहाड़ियों से बर्फ पिघल जाती है, सर्दियों के मुश्किल दिन बीत जाते हैं, तब फूलदेई का त्योहार मनाने को गांवों में बच्चों की टोली एकत्रित हो जाती है.  बच्चे सुबह-सुबह उठकर फ्यूंली, बुरांश, बासिंग और कचनार जैसे जंगली फूल इकट्ठा करते हैं. इन फूलों को रिंगाल की टोकरी में सजाया जाता है. टोकरी में फूलों-पत्तों के साथ गुड़ और चावल रखकर बच्चे अपने गांव और मुहल्ले की ओर निकल जाते हैं. इन फूलों और चावलों को गांव के घर की देहरी, यानी मुख्यद्वार पर डालकर लड़कियां उस घर की खुशहाली की दुआ मांगती हैं. इस दौरान एक गाना भी गाया जाता है जिसके बोल ‘फूलदेई, छम्मा देई…जतुकै देला, उतुकै सही…दैणी द्वार, भर भकार’… हैं.

अंतिम दिन बच्चे मानते हैं जश्न!
फूलदेई का त्योहार शुरू होने के साथ ही बच्चों की टोलियां वन देवी ‘घोगा’ माता की एक डोली भी तैयार करते हैं. गांवों में दहलीज पर फूल और लोगों को दुआएं देने के एवज में बच्चों को घर- घर से चावल, गुड़ और पैसे मिलते हैं. करीब दो हफ्ते तक फूलदेई का त्योहार मनाने के बाद अंतिम दिन बच्चे जंगल में जाकर वन देवी एवं प्रकृति को इस जीवन एवं संसाधनों के लिए धन्यवाद करते हैं. जिसके बाद आशीर्वाद के तौर पर इकट्ठा चावल, गुड़ एवं अन्य चीजों को पका कर पहले वन देवी को भोग लगता है एवं बाद में बच्चे खुद प्रसाद खाकर जश्न मानते हैं.

फ्यूंली से जुड़ी हैं फूलदेई पर्व की कहानियां!
उत्तराखंड की पुरानी लोककथाओं के अनुसारएक वनकन्या थी, जिसका नाम फ्यूंली था. फ्यूली जंगल में रहती और जंगल के पेड़ एवं जानवर ही उसका परिवार और दोस्त थे. फ्यूंली की वजह से जंगल और पहाड़ों में हरियाली थी, खुशहाली. एक दिन दूर देश का एक राजकुमार जंगल में आया. फ्यूंली और राजकुमार को प्रेम हो गया. राजकुमार के कहने पर फ्यूली ने उससे शादी कर ली और पहाड़ों को छोड़कर उसके साथ महल चली गई. फ्यूंली के जाते ही पेड़-पौधे मुरझाने लगे, नदियां सूखने लगीं और पहाड़ बरबाद होने लगे. उधर महल में फ्यूंली ख़ुद बहुत बीमार रहने लगी. उसने राजकुमार से उसे वापस पहाड़ छोड़ देने की विनती की, लेकिन राजकुमार उसे छोड़ने को तैयार नहीं था. एक दिन फ्यूंली मर गई लेकिन मरते-मरते उसने राजकुमार से गुज़ारिश की कि उसका शव वहीं पहाड़ में ही कहीं दफना दे.

फ्यूली का शरीर राजकुमार ने पहाड़ की उसी चोटी पर जाकर दफनाया जहां से वो उसे लेकर आया था. जिस जगह पर फ्यूंली को दफनाया गया, कुछ महीनों बाद वहां एक फूल खिला, जिसे फ्यूंली नाम दिया गया. इस फूल के खिलते ही पहाड़ फिर हरे होने लगे, नदियों में पानी फिर लबालब भर गया, पहाड़ की खुशहाली फ्यूंली के फूल के रूप में लौट आई. इसी फ्यूंली के फूल से द्वारपूजा करके लड़कियां फूलदेई में अपने घर और पूरे गांव की खुशहाली की दुआ करती हैं.

Tags: Hindi news, Local18, Religion 18

Source link

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *