बिहार में जातिगत गणना से क्या INDIA अलायंस में छिड़ेगा जातीय संग्राम? क्या बदलेगी 2024 की राजनीति?

नीतीश कुमार ने जातिगत गणना कराने के साथ आंकडे जारी भी कर दिये. बिहार के जातिगत गणना के आंकडे मोटे तौर पर इशारा करते हैं कि देश में OBC (अन्य पिछड़ा वर्ग) की आबादी लगभग 55 से 60 फीसदी के बीच हो सकती है. ऐसे में जातिगत गणना कराकर अपनी सियासत देश में चमकाने वाले नीतीश कुनार को अब राष्ट्रीय नेता बनने का बेहतरीन मौका मिल गया है. 

विपक्षी गठबंधन INDIA की कई पार्टियां 2024 चुनावों के मद्देनजर जातिगत गणना की मांग कर रही है. मुंबई में हुई विपक्षी गठबंधन की तीसरी मीटिंग के बाद खबरें तो ये भी आईं कि ममता बनर्जी ने इसे मुद्दा बनाए जाने का विरोध किया. ममता को छोड़ दें तो गठबंधन के अन्य नेताओं ने जातिगत गणना की वकालत की है. 

यूपी विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने 85 बनाम 15 का मुद्दा दिया था. उनका मकसद आबादी के हिसाब से आरक्षण देने का था. कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने कहा है कि अगर कांग्रेस मध्य प्रदेश में सत्ता में आएगी, तो वो भी जाति गणना कराएगी. यानी 2024 के चुनाव में विपक्षी दलों ने इसे मु्द्दा बनाने का संकेत दे दिया है. साफ है कि बिहार से निकला जातिगत गणना का मुद्दा निश्चित तौर पर दूर तलक जाएगी.

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सर्वे के मुताबिक राज्य में 36.01 प्रतिशत के साथ अत्यंत पिछड़ा वर्ग सबसे बड़ा वोट बैंक है. इसके बाद ओबीसी 27.12 प्रतिशत हैं, जिसमें सबसे बड़ा हिस्सा 14.26 प्रतिशत के साथ यादवों के पास हैं. सर्वे के नतीजों से नीतीश कुमार को अत्यंत पिछड़ा वर्ग(EBC), गैर-यादव अन्य पिछड़ा वर्ग(OBC) और महादलितों के बीच खुद को मजबूती से स्थापित करने में मदद मिलने की संभावना है. जाहिर तौर पर चुनाव के मद्देनजर इन वर्गों को कोई भी दल नजरअंदाज नहीं करना चाहेगा.

बिहार की जातीय गणना के नतीजे आने के बाद मामले की जानकारी रखने वाले कई लोग इसे मंडल राजनीति बता रहे हैं. उनका कहना है कि बीजेपी की ‘कमंडल राजनीति’ का जवाब विपक्षी गठबंधन ‘मंडल राजनीति’ से देने जा रहा है. बीजेपी के लिए इससे मुसीबत खड़ी हो जाएगी. जानकारों का कहना है कि बीजेपी ने 2014 और 2019 के चुनावों में तमाम हिंदू वोट बैंक को एकजुट कर लिया था. तभी उसे बंपर बहुमत मिला. 1999 से 20019 यानी 20 सालों में हुए 5 चुनावों में ओबीसी ने कैसे वोट किया… वो इससे पता चलता है. बीजोपी को मिलने वाला 23 फीसदी वोट बढ़कर 44 फीसदी हो गया और कांग्रेस का 24 से घटकर 15 ही रह गया. 

क्या कहते हैं आंकड़े?

लोकसभा चुनाव-1999 (OBC वोट %)

-बीजेपी- 23     

-कांग्रेस- 24

लोकसभा चुनाव-2004 (OBC वोट %)

-बीजेपी- 23     

-कांग्रेस- 24

लोकसभा चुनाव-2009 (OBC वोट %)

-बीजेपी- 22     

– कांग्रेस- 24

लोकसभा चुनाव-2014 (OBC वोट %)

-बीजेपी- 34    

-कांग्रेस- 15

लोकसभा चुनाव-2019 (OBC वोट %)

-बीजेपी- 44   

-कांग्रेस- 15

बिहार के जातीय गणना के नतीजे को लेकर NDTV ने axis my india के फाउंडर प्रदीप गुप्ता, C वोटर के फाउंडर यशवंत देशमुख और वरिष्ठ पत्राकर जयंतो घोषाल से बात की. ये तीनों चुनावी सर्वे कराते हैं और जमीन पर जाकर लोगों का मिजाज जानने वाले लोग हैं.

क्या मंडल बनाम कमंडल की राजनीति देश में लौट रही है?  इस सवाल के जवाब में axis my india के प्रदीप गुप्ता ने कहा, “भारत में आज तक इतिहास गवाह है कि जिसने भी आरक्षण जैसे सेंसेटिव सब्जेक्ट को छुआ है, वो चुनाव हारा है. किसी पार्टी ने चुनाव में जिस मंशा के साथ जातिगत आरक्षण की बात की थी. उसकी हार हुई है. मिसाल के तौर पर 1990 में वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू किया. उसके बाद आप देखिए पहले तो वीपी सिंह की सरकार गिर गई. फिर 1991 में चुनाव हुए और कांग्रेस ने जीत हासिल की. वीपी सिंह फिर कभी राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में नहीं आए.”

axis my india के सीएमडी प्रदीप गुप्ता ने कहा, “हाल के दिनों में आप पश्चिम बंगाल को उदाहरण के तौर पर देख सकते हैं. यहां मतुआ समाज है, जो बांग्लादेश से पश्चिम बंगाल में विस्थापित हुए हैं. बीजेपी ने उन्हें कुछ स्टेटस देने की कोशिश की, लेकिन आपने देखा कि बीजेपी चुनाव हार गई. अब आप हिमाचल प्रदेश में आइए. पिछले साल ही वहां चुनाव हुए. वहां हैती समाज को आदिवासी का दर्जा दिए जाने का ऐलान हुआ. लेकिन यहां बीजेपी हार गई.”

प्रदीप गुप्ता बताते हैं, “इसी साल हुए कर्नाटक के चुनाव को भी देख लीजिए. बीजेपी राज्य सरकार ने वोक्कालिगा और लिंगायत समाज को 2-2 फीसदी आरक्षण देने की बात की. यहां पर भी बीजेपी हार गई. ये इतिहास बताता है कि जब-जब किसी भी पार्टी या किसी भी पार्टी के नेता ने आरक्षण जैसे सेंसेटिव सब्जेक्ट को टच किया है, उसकी हार हुई है.”

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हमेशा से ओबीसी जनगणना की विरोधी रही कांग्रेस भी अब इसकी मांग कर रही है और बीजेपी को घेरने की कोशिश कर रही है. नीतीश कुमार ने तो काम करके दिखा दिया. तो क्या नीतीश कुमार अब INDIA अलायंस के सबसे बडे और सबसे स्वीकार्य नेता बन जाएंगे? इसके जवाब में प्रदीप गुप्ता कहते हैं, “कद का जहां तक सवाल है तो इसमें दो पॉइंट हैं. पहला- INDIA गठबंधन के अंदर या विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के अंदर… इस पॉइंट पर हां नीतीश कुमार का कद तो बढ़ेगा जरूर, लेकिन कांग्रेस से बड़ा तो उनका कद कभी नहीं हो सकता. जब भी आप INDIA गठबंधन की बात करेंगे, तो आप पाएंगे कि सिरमौर की भूमिका में तो हमेशा कांग्रेस ही रहेगी.”

दूसरे पॉइंट के बारे में प्रदीप गुप्ता कहते हैं, “हां… अगर कांग्रेस ये कह दे कि नीतीश कुमार जो भी कह रहे हैं, हमें वो सबकुछ मंजूर है… तो बात अलग है. उस केस की उम्मीद बहुत कम लगती है. क्योंकि यही कोशिश इलेक्शन स्ट्रैटजिस्ट प्रशांत किशोर (पीके) ने की थी. कांग्रेस के लिए उन्होंने रणनीति बनाने की कोशिश की थी. पीके ने कई पॉइंट भी आलाकमान के सामने रखे थे कि कांग्रेस को अब कैसे चलाना चाहिए. लेकिन वो ज्यादा दिन नहीं चल पाया. कांग्रेस पार्टी का ये रिकॉर्ड है कि वो किसी भी बाहरी व्यक्ति को इतनी आसानी से स्वीकार नहीं करती. इस केस में मुझे लगता है कि कांग्रेस से बड़ा नीतीश कुमार का कद गठबंधन में तो नहीं हो सकता. ये सीटों के भी लिहाज से है और पूरे देश में उपस्थिति के हिसाब से भी.”

अब सवाल ये कि जाति गणना के नाम पर बीजेपी ने अबतक चुप्पी क्यों साधी हुई है. क्या बीजेपी के लिए ओबीसी के आंकडे बड़ी परेशानी बनकर आये हैं? क्या बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व अपने पत्ते खोलेगा? क्योंकि एनडीए में शामिल कई पार्टियां भी जातिगत गणना की मांग कर रही हैं.

इसके जवाब में प्रदीप गुप्ता कहते हैं, “पिछले लोकसभा में 67 फीसदी वोट पड़े थे. इस 67 फीसदी का 80 फीसदी ग्रामीण और गरीब तबके से जुड़ा है. 70 फीसदी तो ग्रामीण आबादी है भारत में. यानी 80 फीसदी लोगों का रोजमर्रा का जीवन सरकार के ऊपर निर्भर है. ऐसे लोग जब सरकार को चुनते हैं, तो बहुत सोच विचार कर और समझदारी के साथ चुनते हैं. उसमें जाति-धर्म का कोई लेना-देना नहीं होता. धर्म का तो बिल्कुल ही लेना-देना नहीं है. बेशक हम मीडिया या कहीं पर भी कुछ भी बात कर लें. हां जाति का इतना जरूर फर्क पड़ता है कि अगर कोई हमारी जाति के बीच का आदमी चुनाव में खड़ा हुआ है या सामने है… हम उसकी तरफ मुड़ जाते हैं. क्योंकि हमें लगता है कि हमारी जाति का व्यक्ति या उम्मीदवार हमारी जरूरतों, आचार-विचार, संस्कृति को ज्यादा बेहतर तरीके से समझ पाता है.”

उन्होंने कहा, “जनता जब किसी उम्मीदवार को चुनती है, तो ये बड़े उम्मीद के साथ चुनती है और उसे ये पता होता है कि ये हमे इस सरकार से क्या-क्या मिलने वाला है. ये सब जब नहीं मिलता है तो जनता उसे बदल देती है.”

विपक्षी गठबंधन के ओबीसी कार्ड का तोड़ क्या बीजेपी के पास है? इसका जवाब देते हुए चुनाव विश्लेषक यशवंत देशमुख कहते हैं, ” इस मुद्दे पर बीजेपी क्यों स्टैंड नहीं ले रही है? ये तो बीजेपी के रणनीतिकार ही जानते हैं. हो सकता है कि उनकी नैरेटिव है, जिसे अंब्रेला हिंदुइज्म की पॉलिटिक्स कहते हैं… इसके तहत वो चाहते हैं कि हिंदू एक वोटिंग ब्लॉक की तरह वोट करें. वो अपनी जाति को देखकर वोट करें. जबकि हर बार ऐसा नहीं होता. विपक्षी इसे कम्युनल वोटिंग की तरह प्रोजेक्ट करती है. ये अपनी-अपनी आइडियोलॉजी है. जो बात समझमें आने लायक है, वो ये कि 2014 और 2019 में बीजेपी को प्रचंड जीत के बाद से बड़ा बदलाव आया है. देश में बहुसंख्यक, दलित और ओबीसी मतदाताओं ने बीजेपी को वोट दिया. इस कारण उन्हें एक बड़ा जनादेश लगातार दो बार मिला. ये आइडेंटिटी पॉलिटिक्स क्या बीजेपी को अब नुकसान पहुंचाएगा… ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा.” 

वहीं, ओबीसी वोट पर वरिष्ठ पत्रकार जयंतो घोषाल ने कहा, “चुनाव में अभी कुछ वक्त बचा है. इसलिए इस समय INDIA गठबंधन की ये प्राथमिकता नहीं होनी चाहिए. क्योंकि जो को-ऑर्डिनेशन कमेटी बनी है, उसमें ममता बनर्जी का कहना है कि सीट शेयरिंग कमेटी भी होनी चाहिए. वास्तव में अभी प्राथमिकता इस बात को लेकर होनी चाहिए कि कितने राज्यों में 1:1 का रेशियो बन पा रहा है. आप इसे अगर ध्यान नहीं देंगे, तो गठबंधन बनाने से कोई मतलब नहीं है.”

कुल मिलाकर देखा जाए तो ओबीसी को लेकर INDIA अलायंस में भी सबकुछ ठीक ही रहेगा, ये जरूरी नहीं है.

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