जयंती रंगनाथन हिंदी साहित्य जगत की बेहद चर्चित हस्ताक्षर हैं. वे साहित्यिक प्रेम और साहसिक लेखन की वजह से लेखन जगत में अलग ही मुकाम बनाए हुए हैं. जयंती रंगनाथन एक कथाकार ही नहीं बल्कि कवयित्री, पत्रकार और पटकथा लेखक भी हैं. वे बोल्ड लेखन के लिए भी जानी जाती हैं. ‘रोजा पू’ भी उनकी एक ऐसी ही बोल्ड कहानी है. यह कहानी एक जवान होते बंटू की है जो अपने पड़ोस में रहने वाली आंटी पद्मा को लेकर तरह-तरह के सपने देखता है. कहानी कई दिलचस्प में मोड़ हैं जो पाठकों को जकड़ कर रखते हैं. आप भी पढ़ें जयंती रंगनाथन की कहानी ‘रोजा पू’-
नल खोलने की आवाज आई, सर्ररर बाल्टी भरने लगी. दरवाजा आहिस्ते से खुला. कपड़े उतारने की हलकी-सी सरसराहट भरी आवाज. दो आंखें रोशनदान के पास बनी झिर्री में टिक गईं. रोज की तरह. स्कूल जाने से पहले के सुनहरे पांच मिनट. उदास था बंटू. स्कूल का समय बदल गया है. अब उसे सुबह जल्दी जाना होगा. साढ़े छह बजे. सत्रह साल का बंटू पूरे रास्ते एक खाली टिन को पैरों से बजाते हांफते हुए घर आया. सड़क के कोने में उसे पद्मा आंटी दिख गईं. हँस कर पूछा, ‘क्यों रे, कल तेरे को इडली-सांबार भेजा था खाने को? पसंद नहीं आया क्या?’
बंटू की सांस रुक गई. पद्मा के सांवले चौकोर चेहरे पर पसीने की बूंदें चमक रही थीं. नीले रंग की चैक की साड़ी के आंचल से माथे को पोंछ कर लापरवाही से आंचल उछाल पीछे फेंक दिया. पारदर्शी रुबिया ब्लाउज से लगभग बाहर को झलकते सफेद अंतर्वस्त्र. नाक में झिलमिल करता हीरा, कानों में सोने के बड़े वाले कुंडल, सीने पर झूमता हुआ भारी-सा मंगलसूत्र, गीले बालों में मोगरे का गजरा और पान से लाल हो आए होंठ, पद्मा को न जाने कितनी बार पास से, बहुत पास से, ध्यान से देख चुका था.
पद्मा कह रही थी, ‘बंटू, तेरा स्कूल टाइमिंग बदल गया क्या रे? तू कब्बी आता है, कब्बी जाता है, मालूमइच नहीं पड़ता…’
बंटू ने आंख उठा कर पद्मा की तरफ देखा, फिर थोड़ा सजग हो कर बोला, ‘विकास… बंटू नहीं…’ कहते हुए वह शर्मा कर वहां से भाग गया.
रायपुर के उस गर्द से भरी कालोनी के पुराने से मकान में कम से कम तीस किराएदार रहते थे, सबके घर आपस में सटे हुए, ऐसा लगता था एक ही घर के अलग-अलग हिस्से हों. बाकि घरों से कोई मतलब नहीं था बंटू का. पद्मा आंटी और श्रीनि अंकल सबसे अलग थे, अंकल से ज्यादा आंटी, जो उसके सिर पर टपली मारती हुई कहती थीं, ‘आंटी नहीं बोलने का, मामी बोलने का मेरे को…’
मा…मी.. पद्…मा… उसने अपने इतिहास की कापी का पिछला पन्ना भर रखा था इस नाम से. बॉल पेन से स्केच भी बनाया था. खुले लंबे केश, केशों में लगा गजरा, चेहरे पर बड़ी-सी बिंदी. गोल-गुदाज उघड़ा सीना, इसे बनाने में उसने ढेर सारा समय लगाया. शायद पूरी एक क्लास.
स्केच पूरी नहीं हो पाई. डर-सा लगा. उसने पेन और स्याही से स्केच को तहस-नहस कर डाला. पर कागज के उस टुकड़े को फेंकने की हिम्मत नहीं हुई. जबसे स्कूल का समय बदला है, वह स्केच करके मन को मना लेता है. मन मानता नहीं, यह और बात है…
बंटू स्कूल से आने के बाद खाना खा कर कुछ देर टीवी देखता है, फिर ट्यूशन. लौटते-लौटते रात हो जाती है. पद्मा के घर के सामने दिया जल जाता है, अगरबत्ती की तीखी खुशबू तले मोगरे-सी आंखें झिलमिलाती हुई उसे कोंचने लगती हैं, ‘क्यों रे बंटू, आज क्या सीख कर आया रे?’
बंटू का मन होता है, सच कह दे. कम से कम एक बार. वह कुछ नहीं कहता, बस तिरछी नजरों से देखता है और आंखें नीची कर अंदर चला जाता है.
मेज पर रखी स्टील की कटोरी उसे मुंह-सा चिढ़ाती है. वह खोल कर देखता है, चने की दाल के वड़े, काबुली चने से बना चुंडल, पनिहारम, जिनके ऊपर चटनी पाउडर और तिल का तेल होता है. वह कटोरी सरका कर अंदर चला जाता है. मां कहती रहती है, पद्मा खास तेरे लिए छोड़ कर गई है. खा ले.
बंटू नहीं खाता. घूमते-घामते मां ही खा लेती हैं और बड़बड़ाते हुए कह भी देती हैं, ‘कितनी बार कहती हूं पद्मा से, सरसों तेल का इस्तेमाल कर. ना, उसे बदबू आती है हमारे तेल से. उसका तेल जैसे बहुत खुशबूदार है… तिल्ली का तेल…’
बंटू को पसंद नहीं, मां का पद्मा के बारे में कुछ भी कहना. जिस तेल को खाने से पद्मा के बाल इतने काले और सुंदर हो सकते हैं, त्वचा इतनी कोमल और चिकनी हो सकती है, बदन इतना सेक्सी हो सकता है, उस तेल पर हजारों दूसरे तेल कुरबान…
रोज वाली कटोरी में आज कुछ नया था. सफेद-सा. बंटू ने कटोरी हाथ में ले कर सूंघा. दूध और सेंवई की अनोखी-सी खुशबू थी. गाढ़ी-सी हलकी गुलाबी खीर, ऊपर पतले कतरे सूखे मेवे. बंटू ने दाएं हाथ की छोटी उंगली को कटोरी में डुबो कर चाट लिया. किशमिशी मीठा-सा स्वाद.
मां ने देख लिया, झिड़कती हुई बोली, ‘चटोरेपन से बाज ना आएगा. सही से चम्मच ले कर खा. दूसरे भी तो खाएंगे. तेरा जूठा?’
बंटू ने सिर उठाया, ‘आज किस खुशी में खीर आ गई?’
‘पद्मा का जन्मदिन है…’
बंटू को झुरझुरी सी हो आई… जन्मदिन. वह जल्दी से घर से बाहर निकला. समझ नहीं आया क्या करें. खुद ही खुश हो कर हिलकता रहा. जेब टटोल कर देखा, कुछ चिल्लर और पंद्रह रुपए होंगे. क्या ले सकता है?
सड़क पार फूलों की दुकान थी. वह लपक कर गया. उसने एक गुलदस्ते की तरफ इशारा करके पूछा?
तीन सौ रुपए…
बंटू मायूस हो गया. पास में पड़े गुलाब के गुच्छों की तरफ उसकी नजर गई. दुकानवाले ने बिना देखे कहा, ‘दस रुपए का एक गुलाब…’
बंटू ने एक खिला गुलाब हाथों में लिया. जेब में खनकता हुआ एक दस का सिक्का उठा कर मेज पर रखा और तेजी से वहां से निकल गया.
रास्ते में रुक कर उसने गुलाब की पंखुड़ियों को हलके हाथों से छुआ. अजीब-सी सिहरन हुई. अधखुले से पत्तों को सूंघने लगा. आंखों में चमक-सी आ गई. उसने गुलाब की पत्तियों पर अपने होंठ लगाए. चेहरे पर मुस्कराहट-सी आ गई.
पद्मा के घर के आगे चावल की बड़ी-सी रंगोली बनी थी. उसके ऊपर और आजू-बाजू जूते और चप्पलों का ढेर. बंटू ने हवाई चप्पल हड़बड़ी में उतारी, एक इधर-एक उधर. पद्मा उसे देख कर लपक कर सामने आई, ‘वा वा. गुड यू केम…’
कई अनदेखे चेहरे. असहज हो गया बंटू. उसने हाथ आगे कर गुलाब का फूल सामने कर दिया. पद्मा हँसने लगी, ‘ओहो, रोजा पू…’
आनन्द लेना सिर्फ लड़कों का ही नहीं, लड़कियों का भी बराबर हक है- जयंती रंगनाथन
बंटू पीछे की तरफ पलटा और एकदम से बाहर निकल गया. रात की रानी के झाड़ के पास खड़ा हो गया. रोजा… पू… रो…जा…पू…
अच्छा नहीं लगा कुछ. पैर पटकते हुए वह घर आ गया. मां घर का ताला लगा रही थी, ‘आज खाना पद्मा के घर पर है. जो देगी चुपचाप खा लेना.’
बंटू ने तुनक कर कहा, ‘नहीं, मुझे नहीं जाना…’
मां ने ताला खोल दिया, ‘अच्छा, कटोरदान में एकाध पराठा रखा होगा. खा लेना. मैं थोड़ी देर में आऊंगी. पापा आएं, तो उनको भेज देना वहां. डोसा-पोसा कुछ खा लेंगे वहां…’
बंटू आ कर बिस्तर पर गिर गया. रोजा… पू… मोबाइल में गूगल में देखा, रोजा पू, यानी गुलाब का फूल. ओह… उठ कर बैठ गया. खिड़की खुली थी. सामने दिख रहा था. हल्ला-गुल्ला. पद्मा की भारी आवाज में ठहाका. उषा उथुप का गाना- डारर्लिंग आंखों से आंखें चार करने- दो गा रही थी. तालियां, शोर.
बंटू ने आंखें बंद कर लीं. अब उसके सामने थी नीले रंग की धर्मावरम साड़ी में पद्मा. धीरे से पल्लू को कंधे से सरकाती हुई. पसीने से तरबतर ब्लाउज के हुक खोलती हुई. सांवली, नंगी पीठ पर पानी की चमकती बूंदें. उन बूंदों को पीते अधीर अनगढ़ से होंठ. आहिस्ता से साड़ी जमीन पर गिर रही है. सलोनी सी कमर, कमर के ठीक नीचे नाभि. होंठ अब वहां पहुंच गए हैं. होंठों के चूमने की गति बढ़ रही है. नीचे, नीचे और नीचे.
हांफते-हांफते बंटू ने आंखें खोल दीं. अजीब-सा अहसास. पसीने से तर बतर. उसने तकिए को अपने दोनों पांव पर रखा और पैर सिकोड़ कर लेट गया. रोजा … पू…
अगले दिन स्कूल से आते ही पद्मा ने उसे घेर लिया, ‘कल तू भाग क्यों गया था पार्टी से? नॉट गुड यू नो…’
बंटू ने धीरे से कहा, ‘सिर में दर्द था…’
‘मेरे को बोलता ना. मैं मालिश कर देती. रेड आइल है मेरे पास, वेरी स्ट्रॉन्ग…’
बंटू बड़बड़ाया, ‘सॉरी,’
‘परवाह नहीं. तुमने बताया नहीं, पायसम कैसा लगा? नारियल के दूध का स्पेशल खीर. डिड यू लाइक इट?’
बंटू ने सिर हिलाया.
‘गुड, गुड. बचा कर रखा है थोड़ा, खाएगा?’
पद्मा ने उसके बालों को हलका-सा सहला कर पूछा.
बंटू ने पीछे हटने की कोशिश की. पद्मा हँस कर बोली, ‘तू कितना शर्माता है रे. तेरा ऐज का लड़का लोग क्या-क्या करता है, मालूम है तेरे को? बोल?’
पद्मा मिनट भर में स्टील की कटोरी में खीर ले कर आ गई. बंटू ने हलकी सी मुस्कराहट दी और घर आ गया. मां झुंझला गई, ‘ये क्या ले आया कटोरी में? सब बचा-खुचा इधर सरका देती है पद्मा. पता है ना कटोरी खाली तो वापस नहीं जाएगी.’
बंटू ने मां की बात जैसे सुनी ही नहीं. मेज पर पड़ा चम्मच उठा कर उसने पूरी खीर खा डाली. खीर का एक-एक कतरा उसे भिगोता चला गया. पता नहीं था, खीर इतना स्वादिष्ट भी होता है!
दो-तीन दिन गुजर गए. ट्यूशन से लौट कर आता, मेज पर कटोरी नहीं दिख रही थी. तीन दिन बाद मां से पूछ ही लिया, ‘पद्मा आंटी नहीं दिख रहीं.’
मां ने कहा, ‘तबीयत ठीक नहीं है बेचारी की.’
बंटू का मन बहुत कुछ पूछने का हो आया. मां ने उसकी दिक्कत दूर करते हुए अपने आप कह दिया, ‘मैंने टमाटर का सूप बनाया है, तू पद्मा को दे आएगा? श्रीनि ऑफिस के काम से कहीं गया है. अकेली है, पूछ लेना कुछ और चाहिए तो?’
बंटू अजीब-सी सनसनी से भर गया. हाथ में सूप का बरतन पकड़े वह पद्मा के घर का दरवाजा खटखटाने लगा. देर बाद पद्मा ने दरवाजा खोला.
राजकमल स्थापना दिवस में गूंजे भविष्य के स्वर, कहा- आदिवासी समाज के गीतों में प्रेम है तो विद्रोह भी
पद्मा नाइटी में थी. उतरी हुई शक्ल, भुस से बन गए बाल. बंटू ने भगौना आगे कर दिया. पद्मा ने खोल कर देखा और कहा, ‘सूप आ…? मां ने भेजा है. गुड…’
बंटू दरवाजे पर खड़ा रहा. पद्मा कमरे के अंदर जाते हुए बोली, ‘उधर कायको खड़ा है? अंदर आ…’
घर बेतरतीब-सा था. जगह-जगह कपड़े, अखबार. सोफे के एक कोने पर जगह बना कर बैठ गया बंटू. पद्मा एक कप में सूप डाल कर ले आई और सुड़क कर पीने लगी. दो घूंट पीने के बाद पूछा, ‘तू पिएगा?’
बंटू ने नहीं में सिर हिलाया. पद्मा आ कर उसके सामने बैठ गई. सूप पीने के बाद कप किनारे पर रखती हुई बोली, ‘दो दिन से फीवर उतरता इच नहीं है. देख तो अभी है कि नई?’ पद्मा ने अपना हाथ बंटू के हाथ में पकड़ा दिया. बंटू अनाड़ी की तरह हाथ अपने हाथ में ले कर बैठा रहा. पद्मा के शरीर से आंच-सी उठ रही थी. बंटू का शरीर गर्म होने लगा. अचानक उसने पद्मा का हाथ चूम लिया और तुरंत उठ खड़ा हुआ और भागते हुए बाहर निकल गया.
घर जाते ही मां ने सवाल किया, ‘कैसी है तबीयत उसकी? तू भगौना ले कर नहीं आया? अब कल वह फिर कुछ अल्लम-शल्लम बना कर पकड़ा देगी…’
बंटू रुक गया, ‘ले आऊं?’
‘रहने दे. कल खुद दे जाएगी. बुखार उतर गया ना उसका?’
बंटू ने हां में सिर हिलाया. इस समय उसका दिल जोरों से धड़क रहा था. उसके होंठ लरज रहे थे, लग रहा था, हजारों हजार सितारे होंठ पर आ कर जम गए हों. कितना मुलायम था पद्मा का हाथ. कितना गुदगुदा.
रात को नींद नहीं आई बंटू को. सपने में वह आती रही, कभी अपना हाथ आगे करती तो कभी खुले बालों की छतरी-सी बना कर उसे ढक लेती. उफ… रोजा… पू… गुलाब की खुशबू पहले तो ऐसी ना थी!
सप्ताह भर बाद मेज पर कटोरी नजर आई. इस बीच बंटू को मौका ही नहीं मिला था पद्मा से मिलने का. फिर कुछ हिचकिचाहट-सी भी थी, पता नहीं क्या सोच रही होगी पद्मा उसके बारे में.
कटोरी में बूंदी के छोटे-छोटे लड्डू थे. बंटू ने एक उठा कर गप से मुंह में रख लिया. मिश्री भरे लड्डू. मां ने किचन से झांक कर कहा, ‘कह रही थी पद्मा बंटू को जरूर खिला देना…’
बंटू की सांस थम-सी गई. कुछ कह गई क्या मां से?
मां ने मूली के पराठे बनाए थे. बंटू को आवाज दे कर कहा, ‘पद्मा का प्लेट रखा है टेबल के ऊपर. ये दो परांठे उसे दे आ. गर्म-गर्म खा लेगी वो भी.’
बंटू ने प्लेट उठा लिया. जाने से पहले आईने के सामने खड़ा हो गया. हलकी-सी मसें भीगने लगी थीं. उसने बालों को हलका सा पीछे की तरफ धकेला. टीशर्ट का कॉलर सही से किया. हथेली में थूक लगा कर चेहरे पर मल लिया.
पद्मा के घर घंटी बजाते समय अजीब-सा एक्साइटमेंट होने लगा. दरवाजा खुला. पद्मा सजधज कर खड़ी थी. भारी-सी नीले रंग की जगमग साड़ी. चेहरे पर बड़ी-सी सिंदूर वाली बिंदी, बालों में गजरा.
बंटू ने प्लेट आगे किया.
पद्मा मुस्कुराई, ‘लड्डू खाया तू? तेरी सद्बुद्धि के वास्ते पूजा करके लाई मैं अयप्पा टेंपल से.’
बंटू समझा नहीं, ‘एक्जाम के लिए?’
‘अय्यो, तेरा बुद्धि सही हो इसके लिए…’ गंभीर आवाज में बोली पद्मा.
बंटू अचकचाया, ‘ऐसे क्यों बोल रही हैं?’
‘उस दिन तू क्या किया मेरे को? किस किया हाथ पे? मिसटेक ना? तू मेरा बेटा जैसा… मैंने किसी को नहीं बोला, तू ऐसा किया करके…’
बंटू का चेहरा लाल हो गया. वो फौरन पलट कर अपने घर चला गया. ये पद्मा कौन-सी है? ये वो तो नहीं जो दिन-रात उसके अंदर-बाहर रहती है. जो उसे ना पढ़ने देती है ना कुछ करने. पूरी की पूरी औरत, वो कह रही है उसने गलत किया. रोजा पू गलत कैसे हो सकता है?
वो अपने कमरे में जा कर थोड़ा रोया भी. खिड़की के पास खड़ा हो कर देर तक पद्मा के घर की तरफ देखता रहा.
आने वाले कई दिनों तक वह उखड़ा-उखड़ा रहा. स्टेशन के पास भटकते हुए उसे दस पन्नों वाली किताबें दिख गईं. चार-पांच बार फेरी लगाने के बाद हिम्मत कर उसने जमीन पर दुकान फैला कर बैठे आदमी से पूछ लिया, ‘कितने की है?’
आदमी की नजरें कुटिल थीं. उसने ध्यान से हांफते-कांपते बंटू की तरफ देखा और बोला, ‘पचास…’
बंटू ने जेब से मुड़ा-तुड़ा नोट निकाल कर दे दिया.
‘जो किताब चाहिए, चुन ले…’
बंटू जमीन पर बैठ गया. सेक्सी पड़ोसिन, बिन्नी का घाघरा, स्वीट जीजू, जालिम किराएदारनी… उसने सेक्सी पड़ोसिन उठा लिया. खड़ा हुआ. आदमी ने खींसे निपोरते हुए कहा, ‘चल एक और उठा ले…’
‘बिन्नी का घाघरा’ हाथ में आ गया. दोनों किताबें शर्ट के अंदर रख कर वह तेजी से घर की तरफ बढ़ गया.
कोई कैसे उसके दिल की बात इतनी अच्छी तरह से समझ सकता है? वही कहानी. संतोष के पड़ोस में रहने वाली सविता भाभी. जब भैया नहीं होते, उसे घर बुलाती है. खाना खिलाती है, फिर …
बंटू की सांस रुक गई. संतोष को सब मिल रहा है, भाभी मेहरबान है उस पर. संतोष चूम रहा है, खेल रहा है उसके जिस्म से, वह हँस रही है, गुदगुदा रही है और …
बंटू ने किताब बंद कर दी. ‘बिन्नी का घाघरा’ तो और भी नशीला था. बंटू ने लंबी सांस ली…
स्कूल से आने के बाद और रात को सोने से पहले वह जरूर पढ़ता दोनों किताबें. बहुत बाद में पता चला कि एक किताब की कीमत दस रुपए है. यहां भी वह लुट गया…
पद्मा पहले की तरह आती थी घर पर, उसके सिर पर हाथ भी फेर देती थी. वह झटक देता उसका हाथ…
ज्यादा दिनों तक नहीं चला ये… ग्यारहवीं में फेल हो गया बंटू. मां दुखी, पापा नाराज. ट्यूशन में इतने पैसे लग गए. तय हुआ, अगले साल वो नए स्कूल में जाएगा, विषय बदल लेगा, गणित दिमाग में नहीं चढ़ता, न सही. कुछ और कर लेगा.
बंटू दुखी था, अपने आप से. सबसे मुंह छिपा कर घूमता. स्टेशन के आसपास. वहीं मिला था उसे केसू. होगा उसकी उम्र का, एकदम घाघ. दो दिन में उसने पता कर लिया, बंटू का चाहिए क्या. बंटू ने कहा कुछ नहीं, पर केसू जैसे सब समझ गया.
तीसरे दिन वो उसे अपने स्कूटर पर बिठा कर साथ ले गया, धूल-मिट्टी, शोर, गंदगी, पॉलिथिन और बदबू से पटे नाले. पतली गली के दोनों तरफ बनी कच्ची कालोनी. दरवाजे पर परदा पड़े एक घर के सामने स्कूटर रोक केसू ने उसे अंदर चलने का इशारा किया.
संकरा, काला, तीन दीवारों वाला कमरा. अंदर जाते ही पतली-सी हवा की बदबूदार लहर ने बंटू का दिमाग भन्ना दिया. केसू ने हाथ पकड़ कर उसे बिठाया और फुसफुसाते हुए पूछा, ‘अंटी में माल है?’
बंटू सकपकाया. एक सौ से कुछ ज्यादा रुपए थे. केसू ने झपट कर सौ का पत्ता उठाते हुए उसकी तरफ देख कर आंख मारा और कमरे से बाहर निकल गया. झिर्री से आती रोशनी में बंटू ने आंख मिचमिचा कर देखा. कोने में एक स्टूल पर एक लड़की-सी बैठी थी. स्कर्ट और ब्लाउज में. साफ दिखने लगा. पके शक्ल की लड़की. उसकी तरफ देख कर लड़की ने आंख मारी, होंठ दबाया और अपना ब्लाउज खोलने लगी.
बंटू डर गया.
लड़की हँसने लगी. उसने जोर की अंगड़ाई ली और इशारे से अपने पास बुलाया. बंटू डरते-डरते गया. लपक कर लड़की ने बंटू का एक हाथ अपने नग्न सीने पर रखा. बंटू को करेंट मार गया. वह हाथ छुड़ाने लगा. लड़की उसे अपनी तरफ खींचने लगी.
लड़की के दिल की धड़कन उसे सुनाई पड़ रही थी. लड़की ने उसका हाथ अपने शरीर पर फिराना शुरू किया. स्कर्ट के ऊपर और बटन खोल कर नीचे.
बंटू पसीना-पसीना हो गया. अब लड़की का एक हाथ बंटू के कमर के नीचे सरकने लगा. पैरों के बीच जीन्स को वह ऊपर से टटोलने लगी. बंटू कसमसाया.
लड़की की हरकतें बढ़ने लगीं. बंटू ने आंख बंद कर ‘सेक्सी पड़ोसिन’ को जहन में लाने की कोशिश की, उसकी नसें तनने लगीं. जुबां शुष्क होने लगी. ये वो नहीं है…
एक झटके में वो उठा, लड़की के हाथों से जबरदस्ती अपने को छुड़ाया और दरवाजा खोल कर बाहर निकल गया. इस समय पेट में जबरदस्त उबाल था. दिमाग, मुंह कसैला सा हो रहा था. दरवाजे के सामने स्कूटी पर केसू बैठा था. उसने बंटू को आवाज दी. बंटू ने नहीं सुना, वह दौड़ता हुआ गली पार कर बाहर निकल गया.
—
उस दिन रात को बंटू ने पापा से कहा, ‘मुझे ग्यारहवीं रायपुर से नहीं करना. मुझे कहीं ओर भेज दो.’
सोच-समझ कर पापा ने जबलपुर का नाम लिया. बुआ के घर. बंटू सुबह-सुबह बिना किसी से मिले जबलपुर चला गया.
—
विकास दिल्ली यूनिवर्सिटी से पढ़ाई पूरी करके घर लौट रहा था. पापा का कहना था, उनके बिजनेस में हाथ बंटाए. मां का रोना, घर लौट आ, पांच साल हो गए तुझे घर से दूर गए. दिल्ली स्टेशन पर गर्ल फ्रेंड निम्मी के बालों में हाथ फेर उसके गाल पर चुम्मा लेते हुए विकास ने कहा, ‘बेबी, डोंट वरी, मैं आ जाऊंगा, जल्दी.’
निम्मी रुआंसी हो कर बोली, ‘तुम्हारे डैड तुम्हें ना जाने दें तो?’
‘तुम नया बॉय फ्रेंड ढूंढ लेना…’
निम्मी उसकी पीठ पर मुक्का मारने लगी. विकास हँसने लगा.
पापा ने पिछले साल रायपुर की नई बनी समता कालोनी में अपना दोमंजिला घर बना लिया था. पापा का बिजनेस अच्छा चल रहा था. घर में गाड़ी आ गई, एसी आ गया. दो दिन आराम करने के बाद विकास पापा की नई गाड़ी में तफरी करने निकला. चलते समय मां ने कहा, ‘तू अगर शहर की तरफ जा रहा है तो एक काम करेगा? पुराने घर में सिलबट्टा रखा है, लेता आएगा?’
घूमते-घूमते रात हो गई. अपना पुराना इलाका पहचान में ही नहीं आया. मकान कुछ और पुराना हो गया था. जर्जर-सी दीवारें, सड़क के नाम पर उखड़े हुए पत्थर. किसी तरह गाड़ी वो मकान के सामने ले कर आया. धूल में लिपटा ताला खोल वह अंदर गया. यकीं ना हुआ कि यह घर इतना छोटा था. उसने घूमघाम कर देखा। पीछे का दरवाजा खोला. बाहर निकलते ही पड़ोस के घर के बाथरूम की खिड़की दिख गई. उसके होंठों पर मुस्कुराहट आ गई. उसने खिड़की के बंद पड़े पट को हलका-सा खोला, आंखों को यकीं ना हुआ. कभी यहां उसे स्वर्ग नजर आता था. अब दीवारें बासी-सी, सीलन से भरी, नल से चूता पानी, दोरंगा हुआ बकेट. जमीन पर पड़े ढेर सारे अनधुले, भीगे कपड़े.
उसने निगाह फेर ली. सिलबट्टा उठा कर वह बाहर निकला. ताला लगाते-लगाते निगाह पड़ोस पर पड़ी. दरवाजा खुला था. सिलबट्टा गाड़ी में रख कर वह पड़ोस के दरवाजे के सामने रुक गया और हलके हाथों से दस्तक देने लगा. अंदर से आवाज आई, भारी-सी, पहचानी-सी, ‘कौन है?’
एक सेकेंड के लिए विकास के दिल की धड़कन रुक गई. क्या वो उसे पहचानेगी?
दरवाजे पर पद्मा आई. विकास दो कदम पीछे हट गया. वही थी… वैसी ही थी… बालों में हलकी सी सफेदी झलक रही थी, जूड़े में मोगरे का गजरा.
आंखों के नीचे जरा-सा कालापन था, गहरे काजल भरी वही दपदपाती आंखें. वैसा ही मुलायम चेहरा.
नीले रंग की साउथ कॉटन साड़ी से वही भीनी-भीनी खुशबू आ रही थी.
विकास के दिल की धड़कन तेज हो गई. क्या वह पहचान पाएगी? जिम से बना गठीला बदन, चेहरे पर खुरदरी सी दाढ़ी, आंखों में चश्मा…
पद्मा की आंखें उस पर टिक गईं. रुक कर उसने पूछा,‘यस? कौन मांगता है?’
विकास ने बुदबुदाते हुए कहा, ‘यहां एक लड़का रहता था, बंटू …’
पद्मा की आंखें चमकने लगीं. कुछ भर-सा आया उन आंखों में. आंखों के साथ-साथ होंठ मुस्कराने लगे. पद्मा कुछ कह रही थी. विकास को सुनाई नहीं पड़ा. विकास पीछे मुड़ कर गाड़ी की तरफ चलते हुए धीरे से बोला, ‘रोजा…पू…’
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FIRST PUBLISHED : March 4, 2024, 11:10 IST