बिना बोले-बिना सुने बच्चों को बनाया जाता है धुरंधर, कभी आए थे पढ़ने, अब बन गए हैं शिक्षक

आशीष कुमार/पश्चिम चम्पारण. जब बच्चे का जन्म होता है, तब वह रोता है. रोना वैसे तो तकलीफ का कारण माना जाता है, लेकिन यहां यह माना जाता है कि बच्चा स्वस्थ्य है, बोल सकता है. जब कोई बोल सकने की स्थिति में होता है, तो इसका अर्थ होता है कि वह सुन भी सकता है. ऐसा नहीं होने पर अक्सर उस बच्चे के माता-पिता में उदासी छा जाती है. लेकिन कुछ ऐसे भी लोग होते हैं, जो अपनी इसी कमजोरी को अपना सबसे मजबूत पक्ष बनाते हैं और दुनिया के साथ कदम से कदम मिला कर चलते हैं. खास बात यह है कि समाज के कुछ खास लोगों द्वारा इन्हें विशेष रूप से शिक्षा दी जाती है, ताकि वे अपनी कमजोरी को दूर कर अपने अंदर छुपी कलाओं को निखार सकें और मुकाम पा सकें.

पश्चिम चम्पारण जिला मुख्यालय बेतिया के बानू छापर इलाके में मूक बधिर बच्चों के लिए होली क्रॉस श्रवण दिव्यांग स्कूल है. इस स्कूल में कुल 6 शिक्षक हैं. खास बात यह है कि इन शिक्षकों में नीरज और सोनी ने बालपन में इसी स्कूल से शिक्षा पाई थी. अब वे अपने जैसे बच्चों को तराश कर काबिल बना रहे हैं. नीरज उन 5 बच्चों में शामिल रहे हैं, जिनसे इस स्कूल की शुरुआत हुई थी. जबकि सोनी ने 1992 में यहां से अपनी पढ़ाई पूरी की है. आज उनकी योग्यता ने उन्हें इस काबिल बना दिया है कि जहां कभी खुद को तराशने जाते थे. वहीं, आज दूसरों को तराशने का काम करते हैं.

सफलता पाने के लिए सक्षम बनते हैं बच्चे
स्कूल की प्रिंसिपल सिस्टर मैगी बताती हैं कि होली क्रॉस श्रवण दिव्यांग स्कूल की स्थापना 6 अगस्त 1990 को हुई थी. पश्चिम चम्पारण के सभी शहरों के साथ यहां पटना और पूर्वी चंपारण के रक्सौल के भी बच्चों का नामांकन है. अबतक यहां से लगभग हजार डेफ बच्चों ने पढ़ाई की है. अरुण उनमें से एक हैं, जो पूरी तरह से डेफ होने के बावजूद आज नेपाल में कपड़ों के बड़े व्यवसायी हैं. पहली कक्षा में उन्हें स्पोर्ट्स में इंडोनेशिया जाने का मौका मिला था. इसी स्कूल की छात्रा रहीं श्वेता कुमारी बेतिया डीएम ऑफिस में कार्यरत हैं.

साइन लैंग्वेज के साथ लिप रीडिंग की खास पद्धति
बता दें कि इस स्कूल में अभी भी 35 डेफ बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं. इन्हें अलग-अलग पद्धतियों से पढ़ाया जाता है. इन खास पद्धतियों में साइन लैंग्वेज, लिप रीडिंग, सिंबॉल का इस्तेमाल और शारीरिक हाव भाव महत्वपूर्ण है. प्रिंसिपल सिस्टर मैगी बताती हैं कि डेफ बच्चों को समाज में अलग नजरिए से देखा जाता है. खासकर लड़कियों को खुद उनके अभिभावक भी किसी लायक नहीं समझते हैं. ऐसा नहीं करना चाहिए. वे बताती हैं कि हमलोग बच्चों को आधुनिक तकनीक से पढ़ाते हैं. यहां बच्चे कंप्यूटर भी चलाते हैं.

Tags: Bihar News, Local18, Social Welfare

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