बातें वेलेंटाइन की (व्यंग्य)

उनका नाम चिंतामणि है। हमेशा चिंता करते रहते हैं। उनकी चिंता के चलते उनका गंजा सिर मणि समान चमकता रहता है। यही कारण है कि उनका नाम चिंतामणि हो गया। वे आजकल देर शाम बैठकें आयोजित कर रहे हैं। या यूँ कहें कि बैठकों के नाम पर अपने पर्सनल अजेंडे को पूरा करने का काम कर रहे हैं। एक दिन बैठक समाप्त करने के बाद वे मेरे पास आए और बोले, देखते नहीं वेलेंटाइन आ रहा है और तुम हो कि बैठक से गायब रहते हो। विरोध करने के लिए आज मैंने चिंतन शिविर का आयोजन किया था। उसी का यह तीसरा दिन है। 

मैंने कहा, इसमें विरोध करने जैसी क्या बात है? लड़का-लड़की प्यार नहीं करेंगे तो आप और हम करेंगे। वैसे भी आप तो सदा लोगों के साथ रहने वाले मिलनसार व्यक्तित्व के धनी हैं। वेलेंटाइन के विरोध से आपका क्या लेना-देना? वे बोले, तुम तो रहने ही दो। तुम्हारी कोई लड़की तो है नहीं। इसीलिए निश्चिंत हैं। ये नादानी वाली बातें करना छोड़ दें। आज चिंतन शिविर में यह प्रस्ताव पारित हुआ कि देश की संस्कृति इस वेलेंटाइन की वजह से भ्रष्ट हो रही है। युवा गलत दिशा में जा रहा है। कुल मिला कर विरोध नहीं किया तो परिणाम गलत होना है। 

मैंने कहा, चिंतामणि जी, वैसे आपकी भी तो कोई बेटी है नहीं। फिर  काहे का मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन की तर्ज पर मुझे लपेटे जा रहे हैं। वेलेंटाइन में लड़का-लड़की को देखकर इतना भड़क क्यों जाते हैं आप? साल के बाकी दिन भी तो लड़के-लड़कियाँ मिलते हैं। तब तो कोई दिक्कत नहीं होती आपको? चिंतामणि जी का माथा ठनका बोले, मुझे लगा था आप नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहते हैं, समझ भी अच्छी खासी होगी। लेकिन आप तो निरा मूरख निकले। अरे भई युवाओं के पास तो मजे मारने और मिलने-जुलने के 365 दिन हैं लेकिन हमें अपने स्वार्थ साधने के लिए जो चंद दिन मिलते हैं वेलेंटाइन उनमें से एक महत्वपूर्ण अवसर है। विरोध जितना तीखा होगा, उसके लाभ उतने ही ज्यादा होंगे। 

आज के चिंतन शिविर में मैंने कुछ स्थानों का चिह्नांकन करवाया है। उदाहरण के लिए लैला-मजनूँ उद्यान, खाओ-पिओ मौज उड़ाओ रेस्त्रां, लूटो मॉल, कामायनी सिनेमागृह, बियाबान, टेढ़े-मेढ़े रास्ते, दिलशाद गार्डन और मधुशाला बीयरबार सभी जगह अपने लोगों की तैनाती करवाना है। सोचा था आप कुछ काम आयेंगे। लेकिन आप तो फिसड्डी निकले। आपसे उम्मीद करना बेकार है। दो साल पहले वेलेंटाइन के विरोध में अपने पड़ोसी छोटूलाल किस तरह राष्ट्रीय चैनलों में छा गए थे। उन्हें टिकट मिला और जीत भी गए। हम तब से अब तक हाथ ही मल रहे हैं। ऐसे चुपचाप बैठने से कुछ नहीं होगा। कुछ न कुछ करना होगा। इस बार मेरा लक्ष्य चुनावी टिकट है और ये वेलेंटाइन मेरे लिए सबसे अच्छा तरीका लगता है। उनकी बातें सुन मैंने मन ही मन उनकी विजय कामना की। काश एक बार वे जीत जाते तो मेरे घर में रुक-रुककर आने वाले पानी की समस्या सुलझा पाता।

– डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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