पुस्तक समीक्षा – संत विनोबा की इंदौर यात्रा को सजीव करती प्रभाष जोशी की रिपोर्टों का संकलन

हाइलाइट्स

माहौल का उम्दा चित्रण पढ़ने वालों को बांधे रखने में सफल
विनोबा के भाषणों के जरिए उनके दर्शन की शानदार प्रस्तुति
पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए भी उपयोगी है पुस्तक

पत्रकारिता और रिपोर्टिंग की बहुत-सी शैलियों की चर्चा की जाती है. लेकिन एक बात सबमें कॉमन रहती है. वो है- तथ्यों को यथावत रखना. तथ्यों के साथ अगर माहौल का शब्दों से चित्रण कर दिया जाए तो उस रिपोर्ट के कालजयी बन जाने की संभावना रहती है. प्रभाष जोशी ने संत विनोबा भावे की इंदौर यात्रा की कुछ ऐसी ही रिपोर्टिंग की है. उनकी लाइनों को पढ़ कर तिरालिस साल बाद भी कोई उस समय की यात्रा में शामिल हो सकता है. विनोबा की यात्रा जुलाई- अगस्त 1960 में  हुई थी. यात्रा की रिपोर्टिंग में एक और खास बात ये भी है कि काम शुरु करने से पहले प्रभाष जोशी ने विनोबा भावे के बारे में पर्याप्त अध्ययन किया था. ध्यान रखने वाली बात है कि प्रभाष जोशी इससे पहले अपनी नवजवानी में ही गांधी के प्रयोग में लग गए थे.

वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय ने किताब के पुरोकथन में लिखा है– “इस किताब की एक कहानी है. अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर प्रभाष जोशी सुनवानी महाकाल गांव रहने लगे. पांच साल हो गए थे. वहां गांधीजी के प्रयोग में पूरे मन से रमे हुए थे. उन्हीं दिनों विनोबा जी की पदयात्रा इंदौर पहुंचने वाली थी. नई दुनिया अखबार के नेतृत्वद्वय नरेंद्र तिवारी और राहुल बारपुते के सामने बड़ा प्रश्न था कि कौन हो सकता है जो विनोबा जी की पदयात्रा को ढंग से रिपोर्ट करे. उनकी नजर प्रभाष जोशी पर टिक गई. क्योंकि उनको पता था कि यह युवा गांधीजी प्रयोग में लगा है….. प्रभाष जी को ये काम अपने अनुकूल लगा.”

पहली ही रिपोर्ट में दिल जीत लिया
अखबार ने विनोबा भावे की यात्रा पर निशुल्क एक विशेष परिशिष्ट निकाला. इसमें पहली रिपोर्ट 25 जुलाई, 1960 को आई. पहली ही रिपोर्ट में प्रभाष जी ने ‘अजीब कारवां’ उप शीर्षक से लिखा– “विनोबा के काफिले में करीब पचास-साठ लोग थे. जब वे बारोली से रवाना हुए तो आसमान बिलकुल साफ था, मानो जुलाई नहीं मार्च का महीना हो. अरुण शिखा की बाँग के इस अँधेरे-उजाले प्रहर में बढ़ रहा उनका सर्वोदयी समूह मन पर एक विचित्र प्रभाव छोड़ता था. सबसे आगे थे विनोबा, तीन की कतार में बीच के आदमी. आजू-बाजू में थे जय-विजय, उनके निजी सहायक और अंग रक्षक. तीनों धरती के आदमी नहीं प्रतीत होते थे, क्योंकि उनका लिबास धरती के सभी आदमियों से भिन्न था. विनोबाजी शरीर पर आधी धोती पहने हुए थे और सिर पर हल्की हरी टोपी, क्रिकेट के खिलाड़ियों की तरह लेकिन सबसे अजीब चीज थी उनके बदन से लिपटे हुए बोरिया बिस्तर. विनोबाजी अपना सामान स्वयं साथ लेकर चलते थे, इसलिए तैरने के समय काम आने वाले लाइफ बेल्ट की तरह या गोल और लम्बे तकियों की तरह वे इन सामान की खोलों को अपने बदन पर विकर्ण के आकार में बाँध लेते हैं. हरी टोपी के साथ ये नीले होल्डऑल बड़ी खूबसूरती से खिलते हैं जैसे समुद्र के पेदे में जाने वाला गोताखोर या पहाड़ पर जाने वाले पर्वतारोही को विशेष उपकरणों की जरूरत होती है, वैसे ही लगता है विनोबाजी इन उपकरणों को लेकर किसी नए आयाम की यात्रा करने के लिए कमर कस कर चले जा रहे हों. जय-विजय का भी लिबास यही था, सिर्फ उनका सामान सफेद खोलों में था. उनके हाथों में दो लालटेन थीं. सर्वोदय की फ्रंट लाइट की तरह, या उस यूनानी दार्शनिक की तरह जो सत्य की खोज करते दिन में लालटेन लेकर निकला था.”

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रिपोर्टिंग की ये शैली इसे ऐतिहासिक बना देती है. विनोबा भावे जैसा व्यक्ति जिसके बारे में जानने के लिए दुनिया के बहुत सारे अध्येता उत्सुक रहते हैं. उनके लिए ये पुस्तक एक तरह का संदर्भ ग्रंथ हो सकती है. मंजरकशी को और जीवंत बनाने के लिए इसी रिपोर्ट में आगे प्रभाष जोशी लिखते हैं– “नगर में उसी तरह की खलबली आज रही जैसे गणेश विसर्जन या मुहर्रम के दिन या जवाहरलाल नेहरू के आगमन के दिन रहा करती है. आज आने वाला व्यक्ति कोई हाकिम नहीं था और न ही वह लोगों को कुछ देने आया है.”

रिपोर्टिंग में विनोबा दर्शन
विनोबा यात्रा की हर दिन की रिपोर्टिंग में प्रभाष जोशी ने विनोबा भावे के दर्शन और जीवन शैली का पर्याप्त वर्णन किया है. उन्होंने सर्वोदय पात्रों के जरिए लोगों से अन्न और दूसरे प्रकार के दान एकत्र करने जैसी उनकी विचारधारा पर व्यापक रूप से लिखा है. इसके जरिए विनोबा की विचारधारा को समझने में लोगों को मदद मिलेगी. 26 जुलाई की रिपोर्ट में प्रभाष जोशी लिखते हैं कि विनोवा ने साफ तौर पर समझाया कि सर्वोदय पात्र में एकत्र दान को अगर लोग अपने ही वार्ड या क्षेत्र में खर्च करने की वृति रखते हैं तो ये छोटे दिल की बात होगी. उन्होंने एक बैठक में साफ किया कि अगर जल को रोक दिया जाएगा तो समुद्र कैसे बनेगा. नदी कैसे बहेगी. ये दान की प्रवृति के विरुद्ध है. एक अन्य बैठक का जिक्र करते हुए प्रभाष जोशी ने लिखा है कि विनोबा जी कहते हैं कि हो सकता है कि शहरों में किसी को वेतन कम और किसी को ज्यादा मिले, लेकिन हवा और आकाश कम मिले ये समझ में नहीं आता.

घोड़ा कैसा है
आज मोटे तौर पर बहुत सारे लोग विनोबा भावे को भूदान यज्ञ के लिए जानते हैं, लेकिन प्रभाष जोशी के लेखों के संकलन वाली ये पुस्तक पढ़ कर लोगों को पता चलेगा कि महात्मा गांधी की व्यापक दृष्टि को आगे लेकर चलने वाले विनोबा ही थे. गीता और हिंदू धर्मग्रंथों के अलावा बाइबिल और कुरान पर उनकी समान रूप से पकड़ थी. इसका प्रमाण भी उन्होंने कई अवसरों पर दिया है. वे शरीर को कर्म पूरा करने का साधन के तौर पर ही लेते थे, यही हिंदू धर्मग्रंथों में भी लिखा है. अपनी एक रिपोर्ट में प्रभाष जी लिखते हैं – “आज प्रार्थना सभा में आने के पश्चात राज्य के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. मुखर्जी ने संत प्रवर की स्वास्थ्य संबंधी जांच की. वजन, रक्तचाप आदि देखने के पश्चात बाबा ने हँसते हुए डॉ. मुखर्जी एवं प्राकृतिक चिकित्सक डॉ. पंवार से पूछा घोड़ा (शरीर) कैसा है. डॉक्टर ने कहा मस्त एवं स्वस्थ है.” यहां प्रभाष जोशी ने कोई टिप्पणी अपनी ओर से नहीं की है, लेकिन इससे विनोबा के विचार साफ तौर पर सामने आ जाते हैं.

पुस्तक के लिए लेखों के संकलन का काम कमलेश सेन ने किया है और संपादन किया है मनोज कुमार मिश्र ने. पुस्तक के पुरोकथन में पत्रकार रामबहादुर राय ने महात्मा गांधी और संत विनोबा के पत्राचार का हवाला देकर लिखा है कि गांधीजी ने अपने एक पत्र में विनोबा को अपना पुत्र स्वीकार किया है. गांधीजी लिखते हैं– “…इस कारण तुमने मुझे जो पिता का पद दिया है उसे मैं तुम्हारे प्रेम को भेंट के रूप में स्वीकार करता हूं. उस पद के योग्य बनने का प्रयत्न करूंगा और जब मैं हिरण्यकश्यप साबित होऊँ तो प्रह्लाद भक्त के समान मेरा सादर-निरादार करना. ” ऐसे विनोबा के बारे में सीधे घटनाओं, सभाओं और भाषणों के जरिए जानना एक सुखद अनुभूति है. साथ ही इसे पुस्ताक के रूप में छाप देना महत्वपूर्ण रिकॉर्ड को सहेजने जैसा है. पुस्तक 383 पृष्ठों की है, लिहाजा लागत की बात की जा सकती है, लेकिन ऐसी पुस्तकें कम कीमत पर छापी जानी चाहिए.

पुस्तक – ‘विनोबा दर्शन: विनोबा के साथ उनतालीस दिन प्रभाष जोशी’
संपादक – मनोज कुमार मिश्र
संकलन – कमलेश सेन
प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन
मूल्य – 499 रुपये

Tags: Book revew, Literature

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