पितृपक्ष के अंतिम दिन गया में यहां नहीं किया पिंडदान… तो पूरा नहीं होगा श्राद्ध कर्म, जानें महिमा

कुंदन कुमार/गया: आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक को पितृपक्ष या महालय पक्ष कहा गया है. इस पक्ष में देश, विदेश के लाखों श्रद्धालु गया आकर पितरों के लिए पिंडदान और तर्पण करते हैं. गया में फिलहाल 54 पिंड वेदियां हैं, जिसमें 45 पिंड वेदी और नौ तर्पण स्थल हैं.

यहां लोग पितृपक्ष में पुरखों की मोक्ष प्राप्ति के लिए पिंडदान और तर्पण करते हैं. अक्षयवट भी एक ऐसी ही वेदी है, जहां पिंडदान किए बिना श्राद्ध पूरा नहीं होता. पितृपक्ष के अंतिम दिन गया के माड़नपुर स्थित अक्षयवट स्थित पिंड वेदी पर श्राद्ध कर्म कर पंडित द्वारा दिए गए सुफल के बाद ही श्राद्ध कर्म को पूर्ण या सफल माना जाता है.

अक्षयवट में खोआ, खीर से पिंडदान करने की परंपरा
अक्षयवट वेदी पर खोआ, खीर से पिंडदान करने की परंपरा है. मान्यता है कि यहां पिंडदान करने से पितर को सनातन अक्षय ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है. गया में पिंडदान, कर्मकांड की शुरुआत फल्गु से होती है. वहीं अंत अक्षयवट में होता है. ब्रह्म योनि पहाड़ की तलहटी में स्थित अक्षयवट वेदी के संबंध में मान्यता है कि यह सैकड़ों वर्ष पुराना वृक्ष है, जो आज भी खड़ा है. धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक अक्षयवट के निकट भोजन करने का भी अलग महत्व है. अक्षयवट के पास पूर्वजों को दिए गए भोजन का फल कभी समाप्त नहीं होता.

भगवान ब्रह्मा ने स्वर्ग से लाकर रोपा था यह पेड़
गया में इस अक्षयवट के बारे में कहा जाता है कि इसे भगवान ब्रह्मा ने स्वर्ग से लाकर यहां रोपा था. इसके बाद मां सीता के आशीर्वाद से अक्षयवट की महिमा विख्यात हो गई. मान्यता है कि त्रेतायुग में भगवान श्री राम, लक्ष्मण और सीता के साथ गया में श्राद्ध कर्म के लिए आए थे. इसके बाद राम और लक्ष्मण सामान लेने चले गए. इतने में राजा दशरथ प्रकट हो गए और सीता को ही पिंडदान करने के लिए कहकर मोक्ष दिलाने का निर्देश दिया. माता सीता ने फल्गु नदी, गाय, वटवृक्ष और केतकी के फूल को साक्षी मानकर पिंडदान कर दिया.

इसलिए है अक्षय
जब भगवान राम आए तो उन्हें पूरी कहानी सुनाई, परंतु भगवान राम को विश्वास नहीं हुआ. तब जिन्हें साक्षी मानकर पिंडदान किया था, उन सबको सामने लाया गया. पंडा, फल्गु नदी, गाय और केतकी फूल ने झूठ बोल दिया परंतु अक्षयवट ने सत्यवादिता का परिचय देते हुए माता की लाज रख ली. इसके बाद माता सीता ने अक्षयवट को सदैव अक्षय रहने का आशीर्वाद दिया.

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