हिमांशु जोशी/ पिथौरागढ़. उत्तराखंड देवों की भूमि के नाम से विश्व भर में प्रसिद्ध है और यहां की सभ्यता और संस्कृति उत्तराखंड को अन्य राज्यों से अलग बनाती है. यहां के लोकगीत और लोकनृत्य का इतिहास भी हजारों साल पुराना है. आज हम आपको उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकनृत्य छोलिया के बारे में बताने जा रहे हैं, जो विशेष रूप से उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में देखने को मिलता है. इसको चंद वंश के राजाओं के समय से ही कुमाऊं के पहाड़ी इलाकों में शादी समारोह में शान के रूप में देखा जाता है, जिसकी ख्याति आज पूरे देश मे फैल चुकी है. पारम्परिक ढोल, दमाऊं और मशकबीन की धुन पर छोलिया डांस किसी भी समारोह का विशेष आकर्षण होता है, जिस कारण कुमाऊं क्षेत्र के छोलिया डांस की मांग उत्तराखंड के अलावा अन्य राज्यों में भी काफी रहती है.
कुमाऊं का जाना-माना लोकनृत्य है छोलिया
इस विधा में छोलिया नर्तक टोली बनाकर नृत्य करते हैं. माना जाता है कि नृत्य की यह परम्परा करीब दो हजार वर्ष पुरानी है. नर्तकों की वेशभूषा और उनके हाथ में रहने वाली ढाल-तलवारें बताती हैं कि यह नृत्य युद्ध के प्रतीक के रूप में कुमाऊं में अस्तित्व में रहा है. इस नर्तक टोली के साथ संगीतकारों का एक दल अलग से चलता है, जो मशकबीन, तुरही, ढोल, दमाऊं और रणसिंघा जैसे लोक-वाद्ययंत्रों को बजाता है. नर्तकों का शारीरिक कौशल इस कला में इस मायने में महत्वपूर्ण है कि उन्हें युद्धरत सैनिकों के उन दांव-पेंचों की नक़ल करनी होती है, जिसमें वे छल के माध्यम से शत्रु को परास्त करते हैं. इसी कारण इसे छोलिया (छलिया) का नाम दिया गया. छोलिया नृत्य कुमाऊं की सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है, जिसे पहाड़ के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी संजोए हुए आये हैं, लेकिन अब आधुनिकता की जरूरतों से नई पीढ़ी छोलिया डांस सीखने से दूर जा रही है. इसे संरक्षित करने की जरूरत है.
राजपरिवारों के मनोरंजन से हुई डांस की शुरुआत
युद्धभूमि के दृश्यों और उसकी अनेक रणनीतियों का अनुकरण करने वाले इस नृत्य का आविष्कार राजपरिवारों के मनोरंजन के लिए किया गया था. छोलिया नृत्य की टोली के बाजगी बताते हैं कि नर्तकों को गति देने के उद्देश्य से अनेक तरह की तालें हैं, जिन्हें अलग-अलग समय के लिए नियत किया गया है. तो इस नृत्य की रफ़्तार को नियंत्रित करने का काम मुख्य ढोल वादक का ही होता है. 10 से 15 या अधिकतम 20 लोगों की छोलिया टोली का रिवाज़ रहा है. लगातार नृत्य से टोली थक न जाए, इसके लिए नृत्य को कुछ देर विराम देकर बीच-बीच में कुमाऊंनी लोकगीतों, चांचरी और छपेली के बोल भी गाये जाते हैं.
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FIRST PUBLISHED : December 1, 2023, 19:25 IST