न्यायालय ने पूछा, जब एएमयू राष्ट्रीय महत्व का संस्थान, तो अल्पसंख्यक दर्जे के क्या मायने?

उच्चतम न्यायालय ने बृहस्पतिवार को कहा कि लोगों को इससे क्या फर्क पड़ता है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं, जबकि यह ‘अल्पसंख्यक तमगे’ के बिना भी राष्ट्रीय महत्व का संस्थान बना हुआ है।
शीर्ष अदालत ने इस बात को रेखांकित किया कि अनुच्छेद 30 का उद्देश्य अल्पसंख्यकों को किसी चारदीवारी में बसाना नहीं है।
अनुच्छेद 30 शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और उसके प्रशासन को लेकर अल्पसंख्यकों के अधिकार से संबंधित है।
एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर हुई जोरदार बहस के बीच शीर्ष अदालत ने इस बात पर भी विचार किया कि यदि न्यायालय ‘‘एस. अजीज बाशा बनाम भारत सरकार’’ के फैसले को बरकरार रखता है तो इसका इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2006 के उस फैसले पर क्या प्रभाव पड़ेगा जिसके तहत संस्थान का अल्पसंख्यक दर्जा देने वाले 1981 के संशोधन अधिनियम को निरस्त किया गया था।

शीर्ष अदालत की पांच-सदस्यीय संविधान पीठ ने ‘‘एस अजीज बाशा बनाम भारत सरकार’’ मामले में 1967 में कहा था कि चूंकि एएमयू एक केंद्रीय विश्वविद्यालय था, इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता है।
संविधान पीठ में न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र मिश्रा भी शामिल हैं।
पीठ ने कहा, ‘‘अल्पसंख्यक टैग के बिना, एएमयू राष्ट्रीय महत्व का संस्थान बना हुआ है।

लोगों के लिए इससे क्या फर्क पड़ता है कि यह अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं? यह केवल ब्रांड नाम, एएमयू है।’’
एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देने का समर्थन करने वाले याचिकाकर्ताओं में से एक की ओर से पेश अधिवक्ता शादान फरासत ने कहा कि बाशा का फैसला जब तक नहीं आ गया था, तब तक विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान माना जाता था। एक अल्पसंख्यक संस्थान को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी उम्मीदवारों के लिए कोटा नहीं देने की स्वतंत्रता है।

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