ना कोई है, ना कोई था…किसी के नहीं हैं नीतीश, 2005 से अब तक बिहार का कर दिया ये हाल!

“चाय तो मैंने कभी नहीं बेची, लेकिन मेरे पिता वैध थे। दवाई की पुड़िया मैं बहुत अच्छी बनाता था। कोई फेंक भी दे तो गिरने पर भी खुलती नहीं थी।”

नीतीश कुमार ऐसे राजनेता हैं जिनको लेकर हमेशा कोई न कोई कयास चलता ही रहता है। कभी कहा जाता है कि वो विपक्ष के प्रधानमंत्री उम्मीदवार भी बन सकते हैं तो कभी हमेशा के लिए नो एंट्री का बोर्ड लगाने वाली बीजेपी भी उन्हें फिर से कंधे पर बिठाकर कुर्सी तक पहुंचाती नजर आती है। नीतीश के हर मूव की चर्चा पटना से लेकर दिल्ली तक होती रहती है। नीतीश की इसे काबिलियत कहे या राज्य का सामाजिक समीकरण की दवा की तरह ही नीतीश गठबंधन की पुड़िया भी ऐसे ही बांध लेते हैं कि जो कुछ दिन तक तो खुलती नहीं। बिहार भारत की तीसरी सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है। 2011 की जनगणना के अनुसार बिहार की आबादी 10.4 करोड़ थी। बिहार की आबादी ब्रिटेन, फ्रांस या इटली जैसे देशों की आबादी से अधिक है।  बिहार कई मायनों में भारत के अधिकांश राज्यों से अभी काफी पीछे हैं। यहां के ज्यादातर युवा पढ़े-लिखे बेरोजगार हैं। लेकिन फिर भी कहा जाता है कि यहां का बच्चा-बच्चा राजनीति के मामले में अच्छे-अच्छों को पछाड़ देगा। 

उत्तरी तट और सदूर दक्षिण की तरफ लालू-नीतीश की राजनीति

लालू यादव के विपरीत, जो अपने दौर में  हँसमुख मिजाज, चुटीले अंदाज और चतुराई के बल पर पटना यूनिवर्सिटी छात्र संघ (पी.यू.एस.यू.) का अध्यक्ष बन गए थे। नीतीश में आत्म-विज्ञापन जैसी भी कोई प्रतिभा नहीं थी। वह एक अच्छा वक्ता थाे। लेकिन श्रोताओं को बाँधे रखने की कला नहीं जानते। उसकी वक्तृत्व कला में तत्त्व होता था, किंतु भाषण में चमक पैदा करना नहीं आता। लालू यादव का अंदाज उलट था, उसके बोलने का अंदाज  गँवारू था लेकिन अंदाज करिश्माई होता था, तत्त्व की बात कुछ नहीं होती थी। लालू ने एक बार, यूनिवर्सिटी में लोहिया पर छात्रों द्वारा आयोजित एक सेमिनार का रिबन काटा, फिर छिपकर वह हॉल से बाहर निकल गए और पूछने लगे-“ई चीज क्या है लोहिया? लेकिन वह भीड़ जुटाने में माहिर थे, जो नीतीश कभी नहीं कर सकता थे। वह अपने-आपको आगे बढ़ाने में कोई भी ऐसा तरीका अपना सकता थे, जिसके बारे में सोचने भर से नीतीश को शर्म महसूस होती। कैंपस घेराव के दौरान घंटों तक उन पर फब्ती कसने, चुहलबाजी करने के बाद, लालू चुपके से शिक्षकों के कमरों में घुस जाते और उनसे यह कहकर कुछ पैसे वसूल लेते कि उसने कई दिनों से कुछ खाया नहीं है। उसने यूनिवर्सिटी कर्मचारी संघ में कर्मचारियों के साथ खैनी और पान में हिस्सा बाँटकर दोस्ती गाँठ ली। खैनी की आदत नीतीश को भी थी, लेकिन अपनी इस आदत को लेकर वह तब भी उतने ही सयाने थे, जितने कि आज हैं। दोनों पिछड़े इलाकों से पटना आए थे, लालू गंगा के उत्तरी तट से, नीतीश नदी के एकदम दक्षिण की तरफ दूर-देहात से। दोनों ग्रामीण परिवारों से थे, दोनों का संबंध वर्गीकृत पिछड़ी जातियों देर देहात से। 

20 साल पहले लड़ा अपना आखिरी चुनाव

70 के दशक में इंदिरा गांधी की नीतियों के खिलाफ पूरे देश में गुस्सा था और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार के साथ पूरे देश में आंदोलन चल रहा था। इसी जेपी आंदोलन में नीतीश कुमार भी शामिल हुए थे। नीतीश ने संजीदा और शांत होकर काम किया। नीतीश, लालू, सुशील मोदी, रामविलास पासवान के साथ जेल भी गए थे। नीतीश पटना के फुलवारी कैंप जेल में 19 महीने रहे। नीतीश ने 70 के दशक में अपने राजनीति की शुरूआत की थी। नीतीश ने जेपी आंदोलन में बड़ी भूमिका के बाद उनकी राजनीति अलग तरीके से शुरू हुई। 1989 में वो सांसद बने और 1990 में केंद्रीय राज्य मंत्री बने। 1998 से 1999 तक वो कृषि मंत्री और फिर 2001 में रेल मंत्री भी रहे। लेकिन नीतीश की किस्मत में बिहार की गद्दी संभालना था। 

जातिगत वोटर

यादव-  14%

कुर्मी- 2.87%

कुशवाहा- 4.2%

तेली- 2.8%

मुसहर-3.08%

दलित पासवान/दुषादद्व- 5.3%

मुस्लिम- 16॰5%

भूमिहार- 2.8%

ब्राहमण- 3.6%

राजपूत- 3.4%

कायस्थ-  0.6%

डोम- 0.20%

धोबी- 0.8%

कहार- 1.6%

नीतीश कुमार का राजनीतिक सफर

1 मार्च, 1951 : बख्तियारपुर में रामलखन सिंह और परमेश्वरी देवी के पुत्र के रूप में जन्म।

1957-64 : गणेश स्कूल, बख्तियारपुर में पढ़ाई-लिखाई।

1965-73: पटना साइंस कॉलेज, बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग में अध्ययन ।

22 फरवरी, 1973: मंजू कुमारी सिन्हा से विवाह।

1974 : इंदिरा गांधी के सत्तावाद के विरुद्ध आंदोलन, आपात्काल के दौरान कारावास ।

1977: नालंदा में हरनौत से जनता पार्टी प्रत्याशी के रूप में पहला विधानसभा चुनाव हारे

1980: नालंदा में हरनौत से लोक दल प्रत्याशी के रूप में दूसरा विधानसभा चुनाव हारे।

22 जुलाई, 1980: पुत्र निशांत का जन्म।

1985: हरनौत से लोक दल प्रत्याशी के रूप में पहली बार राज्य विधानसभा के लिए निर्वाचित।

1987: बिहार युवा लोक दल का प्रमुख नियुक्त।

1989 : बिहार जनता दल के महासचिव के रूप में नियुक्ति।

अप्रैल-नवंबर 1990 केंद्र में वी.पी. सिंह सरकार में कृषि राज्य मंत्री।

1991: जनता दल प्रत्याशी के रूप में लोकसभा के लिए पुनर्निर्वाचित ।

1993: जनता दल का महासचिव और संसद् में जनता दल का उपनेता नियुक्त ।

1994: लालू यादव से अलग होकर जॉर्ज फर्नांडिस तथा अन्य के साथ मिलकर समता पार्टी का गठन।

1995 : विधानसभा चुनाव में लालू यादव से पराजित।

1996 : समता पार्टी प्रत्याशी के रूप में लोकसभा के लिए पुन: निर्वाचित ।

1998 : जनता दल यूनाइटेड (जे.डी.यू.) प्रत्याशी के रूप में लोकसभा के लिए पुन:निर्वाचित, वाजपेयी सरकार में रेल तथा सड़क परिवहन मंत्री के रूप में नियुक्ति।

1999 : जे.डी.यू. प्रत्याशी के रूप में लोकसभा के लिए पुन:निर्वाचित ।

3 मार्च, 2000: जे.डी.यू. प्रत्याशी के रूप में सात दिन के लिए मुख्यमंत्री बने, विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने के पहले ही पद- त्याग ।

मई 2000-मार्च 2001: वाजपेयी सरकार में कृषि मंत्री; 2004 तक रेल मंत्री।

2004 : जे.डी.यू. प्रत्याशी के रूप में लोकसभा के लिए पुन:निर्वाचित ।

जनवरी 2005 : वाजपेयी द्वारा नीतीश को बिहार के लिए राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एन.डी.ए.) की ओर से भावी मुख्यमंत्री घोषित किया जाना।

फरवरी 2005 : विधानसभा चुनाव में लालू यादव को पराजित किया, किंतु अपने पक्ष में संख्या पर्याप्त न होने के कारण सरकार बनाने का दावा पेश करने से इनकार ।

24 नवंबर, 2005 : बिहार में भारतीय जनता पार्टी (बी.जे.पी.) की साझेदारी में स्पष्ट बहुमत प्राप्त, बिहार के मुख्यमंत्री बने।

26 नवंबर, 2010: विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत से विजयी हुए, लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने।

अप्रैल 2013: बी.जे.पी. को दिसंबर 2013 तक प्रधानमंत्री पद के लिए ‘धर्मनिरपेक्ष तथा स्वीकार्य’ प्रत्याशी का नाम घोषित करने को अंतिम समय-सीमा देना।

जून 2013 : बी.जे.पी. को बिहार सरकार से बाहर किया, एन.डी.ए. को तोड़ा और नरेंद्र मोदी पर हल्ला बोल की शुरुआत।

2015 में नीतीश और लालू ने महागठबंधन बनाकर बिहार में बीजेपी के सियासी रथ को थाम दिया और चुनाव में प्रचंड जीत हासिल की। 

2017 में नीतीश महागठबंधन की सरकार से अलग हो गए और फिर से बीजेपी के साथ सरकार बनाई। 2017 में राजद के साथ छोड़े जाने पर एक वर्ग द्वारा पलटू राम कहे जाने लगे। 

2020 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी और नीतीश ने चुनाव में जीत हासिल की। लेकिन इस चुनाव में जेडीयू तीसरे नंबर की पार्टी बन गई। 

2022 में बीजेपी से नाता तोड़कर नीतीश एक बार फिर से राजद के साथ गठबंधन बना सीएम पद की शपथ ले लेते हैं। 

जनवरी 2024 में नीतीश राजद से नाता तोड़ नौंवी बार बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेते हैं। 

बिहार की राजनीति के टीना फैक्टर हैं नीतीश

नीतीश कुमार को लेकर कहा जाता है कि either you love him or hate him but cant ignore या तो आप उनसे प्यार कर सकते हैं या नफरत लेकिन उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते। बिहार की राजनीति में तीन मुख्य राजनीतिक दल ही सबसे ताकतवर माने जाते हैं। इन तीनों में से दो का मिल जाना जीत की गारंटी माना जाता है। बिहार की राजनीति में अकेले दम पर बहुमत लाना अब टेढ़ी खीर है। नीतीश कुमार को ये तो मालूम है ही कि बगैर बैसाखी के चुनावों में उनके लिए दो कदम बढ़ाने भी भारी पड़ेंगे। बैसाखी भी कोई मामूली नहीं बल्कि इतनी मजबूत होनी चाहिये तो साथ में तो पूरी ताकत से डटी ही रहे, विरोधी पक्ष की ताकत पर भी बीस पड़े। अगर वो बीजेपी को बैसाखी बनाते हैं और विरोध में खड़े लालू परिवार पर भारी पड़ते हैं और अगर लालू यादव के साथ मैदान में उतरते हैं तो बीजेपी की ताकत हवा हवाई कर देते हैं। बिहार की राजनीति में टीना (TINA) फैक्टर यानी देयर इज नो अल्टरनेटिव जैसी थ्योरी दी जाती है। 

बिहार और नीतीश कुमार

राजनीति से इतर अगर बात करे कि सच में बिहार की तो चाहे वो खास हो या आम इस बात से इनकार नहीं कर सकते और अगर कोई शक भी हो तो कुछ सवाल जो हर किसी के जेहन में किसी न किसी कोने में मौजूद ही होगा। अगर भूल गए होंगे तो एक बार फिर से याद करा दें। साल था 2002 का और जिस रोहिणी आचार्य के ट्वीट ने इन दिनों इतनी सनसनी मचाई। उन्हीं की शादी का माहौल था समधि और दामाद के स्वागत के लिए शहर के शोरूमों से 50 नई कारें गन प्वाइंट पर उठवाई थीं। नीतीश की बेटी नहीं है लेकिन होती तो भी शादी में किसी शो-रूम से गाड़ियां नहीं उठवाते, इसमें कोई शक? नीतीश का बेटा है लेकिन उसे राजनीति से कोई मतलब नहीं है। होता भी तो राज्य को एक इंजीनियर नेता मिलता! नीतीश का ससुराल है लेकिन मुख्यमंत्री आवास को उन्होंने ससुरालियों का ससुराल नहीं बनने दिया। नीतीश के साले या रिश्तेदार न अधिकारियों से पैरवी कर सकते हैं, न ठेकेदारों से रंगदारी मांग सकते हैं और न ही आम आदमी पर दबंगई दिखा सकते हैं। नीतीश का घर-ससुराल सब कमोबेश वैसे ही है, जैसे था। उनके साथ राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी किस हाल में थे और अब किस हाल में हैं, पता है न? जमीन हड़पने से लेकर फर्जी कम्पनियों में निवेश तक … बहुत सारे ऐसे काम हैं जो इंजीनयर होते हुए भी नीतीश को नहीं आया। बिहार में उनसे कम पढ़े-लिखे नेताओं ने यह खूब किया है। कोई शक? नीतीश ने प्रशंसकों को निराश किया है लेकिन चापलूसों को फटकने न दिया। जबकि उसी बिहार में ‘खुश’ कर देने पर सिपाही जैसी नौकरी दे दी जाती थी। चापलूसी ही नौकरी की अहर्ता हो जैसे। सही है न? इसमें कोई दो राय नहीं कि नीतीश ने अधिकारियों को ज्यादा छूट दे दी है लेकिन बिहार में जदयू कार्यकर्ताओं को गुंडा बनने की इजाजत नहीं है। वे किसी अफसर से हाथापाई तो दूर, गलत बोलने से पहले सोचेंगे। यदि करेंगे तो भुगतेंगे। नीतीश मीडिया से बात करने से इनकार कर सकते हैं लेकिन पत्रकारों को धकिया नहीं सकते। उसी बिहार में जहां नेता तो नेता, उसके बेटे तक पत्रकारों से हाथापाई कर लेते हैं और इससे संबंधित कई वीडियो आपको यूय्यूब पर आसानी से मिल जाएंगे। नीतीश सरकार में ईवीएम में खराबी पर या देर से पहुंचने पर मतदान में देर हो सकती है लेकिन बूथ नहीं लूट सकते। नीतीश के राज में योग्य को नौकरी मिलने में देरी हो सकती है लेकिन अयोग्य को रिश्ते-नाते या अन्य वजहों से बगैर परीक्षा नौकरी नहीं मिल सकती। नीतीश करोड़ों के राजस्व नुकसान को झेलते हुए भी बिहारियों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए शराब बिक्री रोक सकते हैं। सिर्फ वोट के लिए शराबियों से समझौता नहीं कर सकते। (कालाबाजारी इतर विषय है) नीतीश बाहुबलियों को ठिकाने लगा सकते हैं लेकिन अपने मतलब के लिए उन्हें पैदा नहीं कर सकते। नीतीश अपनी जाति के लोगों से सहानुभति रख सकते हैं, कानून के दायरे में उनकी मदद भी कर सकते हैं लेकिन गैर कानूनी कोई जाति वाला भी अपराधी बनकर बच नहीं सकता। नीतीश जीतने के लिए जातीय समीकरण बिठा सकते हैं लेकिन जातीय संघर्ष नहीं करवा सकते। नीतीश सख्त हो सकते हैं, गुरुर वाले हो सकते हैं मगर बदतमीज और दूसरों को बात-बात पर बुरबक कहकर अपमानित करने वाले नहीं हैं। । नीतीश में कई दोष है, हर किसी में होते हैं। जिन्हें बिहार जानता है।

नीतीश के लिए आगे क्या

ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार के पालाबदल का असर सिर्फ बिहार की राजनीति पर होगा। इसका असर पूरे देश की सियासत पर पड़ेगा। इसमें शक नहीं कि नीतीश कुमार निहार में बड़े जनाधार के नेता माने जाते हैं, इसीलिए हर पाले की जरूरत बने हुए है। लेकिन इस बार उनके राजनीतिक जीवन का अहम इम्तिहान होगा। लोकसभा चुनाव में अगर वह अपनी उपयोगिता साबित नहीं कर पाए तो उनकी मुश्किलें बढ़ जाएंगी।

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